Tuesday 27 September 2011

क्या आपने बाँधी है यह डोर?

सिटी बस के आकर रुकते ही कंडक्टर ने अपनी धुन में बस पर चढ़ आए शराबी महाशय को बाहर का रास्ता दिखाया। लड़खड़ाता, बड़बड़ाता वह चार कदम चलकर ठिठक गया। बड़बड़ाना बराबर जारी था। जाने किसे कोसते हुए अपने ही अंदाज में कोई नसीहत दे रहा था। आसपास खड़े दो-चार लोगों ने उसकी उपेक्षा करने में ही अक्लमंदी समझी। तभी जाने कहाँ से एक आवारा श्वान महाशय का वहाँ से गुजरना हुआ। जनाब को कुछ फर्माता हुआ देख वे रुक गए... और बड़े ध्यान से, उनके चेहरे को निहारते हुए, अपनी दुम लगातार हिलाते हुए नसीहत ग्रहण करने लगे। नसीहत उनकी समझ में कितनी रही थी, यह तो पता नहीं, लेकिन उनके चेहरे के भावों से लग रहा था कि अपने को संबोधित किए जाने मात्र से वे गद्गद् हुए जा रहे हैं। कभी इस तरफ होते हुए, कभी उस तरफ, तो कभी वक्ता की राह में बिछ जाने की मुद्रा में वे आँखों से अपनी स्वीकृति पर कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए एकालाप सुनते जा रहे थे और दुम हिलाए जा रहे थे। एकाध बार शराबी महोदय ने कहा भी कि 'अरे, मैं तेरे को नहीं बोल रहा हूँ" लेकिन श्वानजी उनकी बातों को ग्रहण करने को तत्पर थे। खैर, कुछ समय बाद वक्ता श्रोता दोनों ऊब के शिकार हो गए। श्वान ने बस स्टॉप के आगे लगी फर्शियों पर बैठक जमाई और शराबीजी लड़खड़ाते हुए, कुछ खामोश-से, आगे बढ़ गए।
एक अकेले, संभवत: परिवार और समाज से बहिष्कृत प्राणी को एक अन्य लावारिस, आवारा प्राणी का कुछ समय के लिए ही सही, साथ मिला। इतना सम्मान तो मिला कि उसकी बातों को बकवास मानकर खारिज नहीं किया गया, बल्कि ध्यान से सुना गया। वैसे ही जैसे घर के किसी बड़े या फिर किसी समझदार मित्र की बातों को सुना जाता है। इस नन्हे-से वाकये ने मनुष्य और पशु के बीच मौजूद विभाजन रेखा को महीन कर दिया। एकाकीपन उपेक्षा की नजरें इस रेखा को देखने में असमर्थ हैं और अपनेपन की भाषा भी आसानी से इसके आर-पार संप्रेषित हो जाती है। शायद इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने 'एनिमल एसिस्टेड थैरापी" को मान्यता दी है। इसके तहत प्रशिक्षित पशु के सान्निाध्य से रोगी को मनोवैज्ञानिक रूप से लाभान्वित किया जाता है। भावनात्मक समस्याओं से लड़ रहे रोगियों को पशुओं का साथ पाने से काफी फायदा होते देखा गया है। इससे उनमें आत्मविश्वास बढ़ता है, वे खुलकर दूसरों के सामने अपनी बात कहने लगते हैं, उनमें तनाव का स्तर घट जाता है, यहाँ तक कि उनकी याददाश्त में भी वृद्धि होते देखी गई है। वे खुद में सिमटे रहने के बजाए दूसरों के साथ मिलकर जीना सीखते हैं।
चिकित्सा विज्ञान ने भले ही 'पशु थैरेपी" के महत्व को अब समझा हो, लेकिन इसका प्रत्यक्ष लाभ इंसान बहुत पहले से लेता आया है। कई साल पहले की बात है। सत्रह साल का एक अंतरमुखी किशोर घर से दूर, महानगरों के महानगर लंदन में अकेला था। दिन में नौकरी करता और रात को किराए के अपने छोटे-से कमरे में एकाकीपन से जूझने चला आता। अपने लिए एक-दो सैंडविच बनाता और उन्हें खाकर बिस्तर की शरण में जाकर स्वप्नलोक में खोने की चेष्टा करता। फिर एक दिन उसकी नजर उसकी पुस्तकों के पीछे से झाँकते एक नन्हे चूहे पर पड़ी, जो बड़ी हसरत भरी निगाहों से उसकी ओर देख रहा था। किशोर ने ब्रेड के दो-चार टुकड़े और कुछ पनीर उसकी तरफ फेंका। मूषक महाराज की दावत हो गई। अब रोज का यही क्रम हो गया। उस किशोर ने अचानक पाया कि वह इतना भी अकेला नहीं है। उसके साथ बैठकर रोज डिनर लेने वाला भी कोई है। दमघोंटू दीवारों के बीच एक साझेदार ने मानो अपनेपन की ऑक्सीजन उपलब्ध करवा दी। चूहा उस किशोर से कभी-कभी बातें भी करता और यदि उसे सैंडविच बनाने में देर हो जाती, तो उसे हल्की-सी झिड़की भी देता! घर से दूर होने का दर्द उस किशोर के जीवन से हवा होता गया।
यह किशोर कोई और नहीं, प्रख्यात लेखक रस्किन बॉण्ड थे, जिन्होंने हाल में अपनी किशोरावस्था का यह किस्सा बयाँ किया है।
पाले हुए पशुओं की बात छोड़ दीजिए, राह चलते लावारिस पशु या मुक्त गगन में उड़ने वाले पंछी भी इंसान के साथ ऐसी डोर में बँध जाते हैं, जिसकी परिभाषा मुश्किल है। खुशवंत सिंह ने अपनी दादी के संस्मरण में बताया है कि वे परिवार के साथ गाँव से शहर आने पर अपना एकाकीपन आँगन में बैठने वाली चिड़ियाओं के साथ बाँट लेती थीं। वे उन्हें दाना डालतीं और चिड़ियाएँ चाव से उन्हें खा लेतीं। दादी और चिड़ियाओं के बीच एक अनोखा साझा हो गया था। एक दिन दादी चल बसीं। उस दिन भी आँगन में चिड़ियाओं का मजमा लगा था। खुशवंत की माँ ने दादी के ही अंदाज में उनकी ओर दाने फेंके, लेकिन यह क्या..! चिड़ियाओं ने उन्हें छुआ तक नहीं। बस, वहीं बैठी रहीं। जब दादी की अर्थी श्मशान के लिए रवाना हुई, तो चिड़ियाएँ भी फुर्र हो गईं। दाने वहीं जमीन पर धरे रह गए। चिड़ियाओं का रिश्ता दादी से था, दानों से नहीं।
आपने भी महसूस किया होगा कि घर-आँगन या पास-पड़ोस में यदि किसी पक्षी ने घोंसला बना दिया तो बच्चों को मानो एक नया कौतुक मिल जाता है। सुबह-शाम चिड़िया, फिर उसके अंडों, फिर उसके बच्चों की खैर-खबर लेना उनकी दिनचर्या का अनिवार्य अंग बन जाता है। वो देखो, अपने घर को कैसे सजा रही है..! देखो, बच्चों के लिए खाना लेकर गई, अब उन भुक्कड़ों को खिलाएगी..! अरे, खुद कब खाती होगी..? वो देखो, उस शैतान को डाँट रही है..! घर के सदस्य ही बन बैठते हैं ये पंखों वाले मेहमान और इनकी दिनचर्या से हमारे बच्चे घर-गृहस्थी और दुनियादारी के जाने कितने पाठ सीख लेते हैं। आज महानगरों के बच्चों को यह सुख नसीब नहीं, लेकिन गाँव-कस्बों में और यहाँ तक कि शहरों के बाहरी इलाकों में भी ये और ऐसे ही नजारे अब भी आसानी से देखे जा सकते हैं।
मनुष्य स्नेह लुटाने की जरा-सी पहल करे, तो कई बार पशु भी इंसानों के तौर-तरीके अपनाने को तैयार रहते देखे गए हैं। यह कपोल कल्पना नहीं, शत-प्रतिशत सच्चा घटनाक्रम है। रोज सुबह वह लावारिस गाय अपने बछड़े को लेकर उस घर पर दस्तक देती है। जी हाँ, दस्तक। मेन गेट पर टँगी ताला लगाने की जंजीर को वह मुँह से खड़खड़ाती है। तब तक, जब तक कि गृहस्वामिनी उसके उसके बच्चे के हिस्से की रोटी लेकर बाहर नहीं जाती। इसे ग्रहण कर माँ-बेटे चल देते हैं अगले गंतव्य की ओर।
क्या आपने भी किसी पशु-पक्षी से स्नेह अपनापे की डोर बाँधी है? जरा बाँधकर देखिए। आपके जीवन में एक सौंधी-सी समृद्धि ही आएगी। हाँ, इसके लिए किसी प्राणी को पट्टे से बाँधने या पिंजरे में कैद करने की गलती मत कीजिएगा। इन्हें जो डोर बाँधती है, जो पिंजरा कैद करता है, वह आपके प्रेम में छिपा है। बस, उसी को लुटाते रहिए।