Sunday 15 January 2012

जब हँस पड़े सारा गाँव, नाच उठें सारी गलियाँ!



लोग बिना किसी कारण कई-कई दिनों तक सुध-बुध खोकर नाचते रहें तो इसे आप क्या कहेंगे...? या फिर दीवार पर सीलन से उभरी डिजाइन में भगवान के दर्शन-पूजन करने के लिए हुजूम उमड़ पड़े तो...? सबसे तार्किक प्राणी होने के बावजूद मनुष्य सबसे अतार्किक काम करने में भी अव्वल है... या फिर शायद कोई तर्क है जो अब भी हमसे छुपा हुआ है!
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हँसी कई बार संक्रामक साबित होती है। किसी को हँसता हुआ देख दूसरा व्यक्ति भी हँसने लगता है, भले ही पहले व्यक्ति के हँसने का कारण उसे मालूम हो। कभी हँसने वाले के हँसने का अंदाज दूसरों को हँसा देता है, तो कभी यह बात कि उसे इतनी हँसी आए चली जा रही है कि बेचारा बता भी नहीं पा रहा कि वह किस बात पर लोटपोट हुआ जा रहा है। कभी-कभी किसी समूह को ठहाके लगाता हुआ देख नवागंतुक भी बेवजह हँसने लगता है। जो भी हो, यह या इस तरह की हँसी आखिर कितनी देर तक चल सकती है? कुछ मिनिट, आधा घंटा, बहुत हुआ तो उससे कुछ ज्यादा। मगर 1962 में अफ्रीकी देश तंजानिया में हँसी का विचित्र संक्रमण हुआ। बताते हैं कि कशाशा नामक गाँव के एक स्कूल में एक बच्चे द्वारा दूसरे को सुनाए गए चुटकुले से सिलसिला शुरू हुआ। एक से दो, दो से चार बच्चे हँसने लगे। फिर पूरी क्लास और फिर पूरा का पूरा स्कूल हँसी की गिरफ्त में गया। देखते ही देखते पूरा गाँव और फिर उसका पड़ोसी गाँव भी ठहाकों में डूब गया! जो एक बार हँसना शुरू करता, चाहकर भी रुक नहीं पाता। लगातार बेतहाशा हँसने के कारण लोगों को कई तरह की समस्याएँ भी पेश आने लगीं। कुछ लोग बेहोश होने लगे, कुछ को साँस संबंधी तकलीफें होने लगीं और कुछ अन्य हँसते-हँसते रोने लगे! दावा किया जाता है कि हँसी का यह संक्रमण 6 से 18 महीनों तक जारी रहा! यकीन करना मुश्किल लगता है कि इतने अरसे तक इतनी बड़ी संख्या में लोग लगातार हँसते रहे। अधिक तर्कसंगत बात यह लगती है कि हँसी का एक ही महीनों लंबा दौरा चलने के बजाए इतनी अवधि तक लोगों को रह-रहकर दौरे पड़ते रहे होंगे। 'मास हिस्टीरिया" का यह अनूठा उदाहरण है और इसके पीछे का कारण आज भी अज्ञात है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है, यह घिसा-पिटा वाक्य तो कई-कई स्कूली निबंधों का आरंभिक बिंदु बनकर थक चुका है लेकिन इसी सामाजिकता में छिपी हैं मास हिस्टीरिया की जड़ें। संगी-साथियों या फिर नितांत अजनबियों का व्यवहार कभी-कभी हमारे मन पर इतना गहरा प्रभाव डालता है कि हम अनायास उनका अनुसरण करने लग जाते हैं। एक तरह का सम्मोहन छा जाता है। यूँ 'मास हिस्टीरिया" शब्द का उपयोग मूलत: सामूहिक स्तर पर किसी अतार्किक भय या घबराहट के लिए किया जाता है। मसलन मान लीजिए कि कहीं समूह भोज चल रहा है। अचानक कोई एक व्यक्ति कहता है कि मुझे चक्कर रहे हैं, मुझे खाने में कुछ गड़बड़ लगती है। इतना सुनते ही कई अन्य लोग भी चक्कर, पेट दर्द आदि महसूस करने लगते हैं। जो अब तक स्वादिष्ट भोजन का लुत्फ ले रहे थे, उन्हें भी अचानक खाने में कोई 'अजीब-सी गंध" या 'अजीब-सा स्वाद" जान पड़ता है। यह शक, यह भय इतना तीव्र होता है कि लोगों को उल्टी और बेहोशी की शिकायत भी हो सकती है।
यह तो हुई देखा-देखी बीमारी मोल लेने की बात। कई बार व्यक्ति बीमार होेकर भी किसी मामले में दूसरों का अंधानुसरण करने लगता है, जैसा कि तंजानिया के हँसी प्रकरण में देखा गया। व्यक्ति अपने आसपास ऐसा माहौल पाता है कि उसमें बहता चला जाता है। धार्मिक आस्था के चलते हुए मास हिस्टीरिया के कई उदाहरण दुनिया भर में मशहूर हैं। भारत में ही 21 सितंबर 1995 को 'भगवान द्वारा दूध पीने" की घटना लोग अभी भूले नहीं हैं। कई बार किसी दीवार पर कोई 'आकृति" नजर आने लगती है और उमड़ पड़ता है जन-सैलाब दर्शन-पूजन करने को। ऐसे में जिसे कथित आकृति नजर नहीं रही, वह भी स्वयं को आश्वस्त कर लेता है कि उसे आकृति दिख रही है। इसी तरह कभी किसी नाले का पानी 'मीठा" और प्रकारांतर से 'पवित्र" बन जाता है, तो कभी घरों की छतों पर कोई 'मंकी मैन" उछलकूद करने लगता है!
फ्रांस में जुलाई 1518 में एक विचित्र घटना घटी। स्ट्रासबर्ग नगर की सड़कों पर ट्रोफिया नामक एक महिला अचानक नृत्य करने लग गई। कहते हैं कि वह चार-: दिन तक लगातार नाचती ही रही। एक सप्ताह होते-होते 34 अन्य लोग भी उसके साथ नाचने लगे थे और एक महीना पूरा होने से पहले इन नर्तकों की संख्या बढ़कर 400 तक पहुँच गई थी! अंतत: इनमें से कोई थकान के मारे ढेर हो गया, तो कोई दिल के दौरे से भगवान को प्यारा हो गया! इस बात को लेकर आज तक कयास ही लगाए जा रहे हैं कि ये सारे लोग इतने समय तक इस कदर क्यों नाचे थे और खुद को रोक क्यों नहीं पाए थे! खास बात यह कि यह अकेला किस्सा नहीं था। चौदहवीं से अट्ठारहवीं सदी के बीच योरप के कई देशों में इससे मिलती-जुलती घटनाएँ घटीं। संभवत: पहली घटना जर्मनी के आचेन शहर में 24 जून 1374 को घटी। यहाँ अचानक बड़ी संख्या में लोग सुध-बुध खोकर सड़कों पर नाचने लगे और नाचते ही रहे। वे बेसिर-पैर की भाषा में बातें भी कर रहे थे और हवा में कुछ अदृश्य आकृतियाँ देखने का दावा भी कर रहे थे। इसके बाद तो ऐसी कई घटनाएँ घटीं। इनके तरह-तरह के कारण बताए गए और इनसे निपटने के लिए तरह-तरह के उपाय आजमाए गए। किसी ने कहा कि शैतानी प्रकोप है, सब मिलकर प्रार्थना करो। किसी ने कहा कि खून की गर्मी है, इन्हें जी भरकर नाच लेने दो, तभी ये ठीक होंगे। कहीं-कहीं तो इन लोगों के लिए बैंड-बाजों की भी व्यवस्था की गई ताकि नाचने का भूत जल्दी थककर उतर जाए!
अब अतीत की ऐसी घटनाओं के बारे में पढ़ने-सुनने पर ये अविश्वसनीय लगती हैं, हास्यास्पद लगती हैं लेकिन जब ऐसी कोई घटना घट रही होती है, तब अच्छे-अच्छों के लिए विवेक से काम लेना मुश्किल हो जाता है। एक लहर चलती है, जो राह में आने वाले हर-एक को बहा ले जाने की ताकत रखती है। सच, मानव मन की उलझती-उलझाती गलियों से बढ़कर कोई भूल-भुलैयाँ संसार में नहीं है!