Friday 6 April 2012

रेतीले पन्नों पर जीवन का महागाथा


प्राण सोखने पर आमादा माहौल में भी इंसान की जीने की जिद और जी लेने की विजय गाथा पसरी है रेगिस्तानों के रेतीले पन्नों पर।


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कहीं पढ़ा था कि मनुष्य और उसके कथित विकास से अनछुए घने, हरियाले जंगल अपने विविध जीव-जंतुओं, कलकल करते नदी-झरनों के साथ पृथ्वी के मूल स्वरूप का दृश्य प्रस्तुत करते हैं। बात को उल्टा रखकर मन में प्रश्न उठता है: क्या मरुस्थल पृथ्वी के भावी दृश्य को प्रस्तुत करते हैं! सूखे, वीरान, बेजान, जिंदगी जीने के सामान से महरूम...! यह एक आम धारणा है और जितनी आम है, उतनी ही गलत भी। रेगिस्तानों में भी जीवन धड़कता है। रेत के उन सूखे टीलों के बीच भी सामाजिकता और संस्कृति की नदियाँ प्रवाहमान होती हैं। एक अलग तरह की जीवनशैली, एक अलग अंदाज धरती से नाता बनाने का। कई-कई किस्सों-कहानियों को अपने में समेटे बैठे हैं शांत रेगिस्तान। यहाँ जीवन मौत के किनारों पर जीने की चुनौती देता है। प्राण सोखने पर आमादा माहौल में भी इंसान की जीने की जिद और जी लेने की विजय गाथा पसरी है रेगिस्तानों के रेतीले पन्नों पर।
विश्व के कई रेगिस्तानों में सदियों से लोग बसते आए हैं। इस बात के बावजूद कि जीवन की बुनियादी जरूरत पानी का अभाव रेगिस्तान को परिभाषित करता है। एक ओर सूर्य का रौद्र रूप शरीर से पानी सोख लेता है, तो दूसरी ओर इस क्षति की भरपाई के लिए पानी के स्रोत मरुस्थल में ईद का चाँद होने पर उतारू होते हैं। लेकिन इंसान भी कहाँ हार मानता है! जहाँ से पानी की दो बूँदें मिल जाएँ, वहीं से उन्हें सहेज लेने की कला (या कह लीजिए विज्ञान) में वह निपुण हो गया है। मसलन, अरब के रेगिस्तान में भोर से ठीक पहले, रेत में धँसे पत्थरों को पलट दिया जाता है, ताकि उन पर ओस की बूँदें बैठें और पानी के रूप में कुछ जीवनदायी मोती सहेजे जा सकें। कारण यह कि दिन में रेगिस्तान की रेत जितनी तपती है, रात आते ही वह "तेरा तुझको अर्पण" की शैली में सारी ऊष्मा वापस आसमान को लौटाकर शीतलता की चादर ओढ़ सोती है। ऐसे में पत्थरों का रेत में धँसा हिस्सा अधिक ठंडा हो जाता है और उसे बाहर की ओर करने से सूखी रेगिस्तानी हवा में मौजूद थोड़ी-बहुत नमी ठहरकर द्रवीकृत हो जाती है।
रेगिस्तान का जीवन ऐसी ही जद्दोजहद का पर्याय है। अकेला मनुष्य ही नहीं, कई तरह के बड़े-छोटे जीव-जंतु और वनस्पतियाँ भी कुदरत की कंजूसी के बीच जीने का सामान जुटा लेती हैं। जिस एक जीव ने मरुस्थल के साथ अपनी पहचान एकाकार कर दी है, वह है ऊँट। रेत के कालीन को पैरों तले रौंदता चलता यह गर्वीला प्राणी इंसान के साथ साझेदारी करने से गुरेज नहीं रखता। वह इंसान का सामान और स्वयं इंसान को उसके कुटुम्ब-कबीले सहित ढोता है, उसे दूध भी पिलाता है और मौका आने पर अपने मांस से उसकी भूख भी मिटाता है। जाते-जाते निशानी के तौर पर अपनी चमड़ी दे जाता है जो कलाकृतियों के निर्माण के लिए कच्चे माल की भूमिका निभाती है।
रेगिस्तान का जीवन एकलखोरों के लिए नहीं है। यहाँ प्रकृति का इम्तेहान आपको समूह के महत्व का पाठ पढ़ा देता है। कारवाँ बन जाए, तो एक चलता-फिरता गाँव मरुस्थल के एक से दूसरे छोर की दूरी नाप लेता है। अकेला चना अंतहीन रेतीले टीलों के बीच भटककर गुमनाम कब्र में समा जाने का खतरा लिए चलता है। रेगिस्तान के बीच मौजूद नखलिस्तान आशा का संदेश सुनाते हैं और जीवन की आपाधापी के बीच जीवन के रस का उत्सव मनाने का मौका मुहैया करा देते हैं। हाँ, जहाँ जीवन है, वहाँ जीवन का रस भी इंसान तलाश ही लेता है। प्रकृति ने रंग उड़ेलने में कंजूसी बरती, तो यहाँ के इंसान ने अपनी वेशभूषा में इंद्रधनुष रोशन कर लिया। प्रकृति ने जो फल-सब्जी साल में कुछ दिन खिलाकर सुखा दिए, इंसान उन्हें सुखाकर खिलाने और खाने में पारंगत हो गया। उसने भेड़-बकरी, मुर्गियाँ आदि पाले, जहाँ मौका हाथ लगा, काश्तकारी कर डालने से भी पीछे नहीं हटा। जीवनदायी जल के महत्व को उसने सबसे अधिक समझा और जहाँ जितना मिला, उसे सहेजने के एक से बढ़कर एक अद्भुत  उपाय किए। ऐसे कि सदियों बाद भी उसके वंशज इन्हें देखकर दाँतों तले ऊँगलियाँ दबाते हैं। उसने शहर गढ़े तो ऐसे कि जो सिर्फ कुदरत के सामने सदियों सीना ताने खड़े रहे, बल्कि स्थापत्य कला के अलग अध्याय के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उसने ललित कलाओं में डुबकी लगाई, शुष्क रेगिस्तानी हवाओं को अपने भावपूर्ण गीत-संगीत की स्वर-लहरियों से तर किया।
सच, जीवट को तपाने की प्रयोगशाला हैं रेगिस्तान। ये बेहद सख्त अभिभावक की भाँति, हमें स्नेह की वर्षा में तर करने में विश्वास नहीं रखते। बल्कि हमें मजबूत बनाते हैं, जीवन के सूत्र खुद तलाशने और उनके सहारे भरे-पूरे, उल्लास से परिपूर्ण, अर्थवान जीवन की राह बनाने के लिए।