Friday 15 June 2012

मठ से कारावास तक कॉफी की करामात!


ये बकरियाँ, ये महात्मा और ये जासूस कहीं--कहीं जिम्मेदार हैं इथियोपिया की झाड़ियों में उगने वाले उपेक्षित फल के एक स्वादिष्ट, स्फूर्तिदायक पेय के रूप में आपके प्याले तक पहुँचने के लिए।
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यदि आप कॉफी की चुस्कियाँ लेते हुए ये पंक्तियाँ पढ़ रहे हैं, तो एक पल रुककर धन्यवाद दीजिए कुछ बकरियों को, रात-रात भर जागने वाले कुछ महात्माओं को और जान की बाजी लगाकर सीमा पार से बेशकीमती बीज उड़ा लाने वाले जाँबाज जासूसों को। ये बकरियाँ, ये महात्मा और ये जासूस कहीं--कहीं जिम्मेदार हैं इथियोपिया की झाड़ियों में उगने वाले उपेक्षित फल के एक स्वादिष्ट, स्फूर्तिदायक पेय के रूप में आपके प्याले तक पहुँचने के लिए।

कॉफी की खोज को लेकर कोई निश्चित दस्तावेजी प्रमाण तो नहीं हैं, लेकिन आमतौर पर माना जाता है कि इसकी खोज नौवीं सदी में अफ्रीकी देश इथियोपिया में हुई थी। एक चरवाहा अपनी बकरियों में आए बदलाव से आश्चर्य में पड़ गया। उसने पाया कि कुछ झाड़ियों में लगने वाले बेरी नुमा लाल फल खाने के बाद उसकी बकरियाँ ऊर्जा से भरपूर होकर जमकर उछलकूद मचाती थीं। एक दिन जब वह स्वयं कुछ थका-थका और अवसादग्रस्त महसूस कर रहा था, तो अपनी बकरियों की देखा-देखी उसने भी कुछ फल मुँह में डाल लिए। चंद पलों में ही उसने अपनी थकान को गायब पाया और उसका मूड भी ठीक हो गया। फलों की चमत्कारिक शक्ति से अभिभूत होकर वह कुछ फल अपने साथ घर ले गया और पत्नी को सारा किस्सा सुनाया। पत्नी ने कहा कि इन्हें पास स्थित मठ में रहने वाले महात्माओं के पास ले जाया जाए। जब चरवाहे ने मठाधिपति महोदय को इन फलों के प्रभाव के बारे में बताया, तो उन्होंने फलों को शैतानी खुराफात घोषित करते हुए आग के हवाले कर दिया, लेकिन यह क्या! देखते ही देखते पूरे मठ में एक मनभावन महक फैल गई। एक मठवासी ने हिम्मत करके कुछ जलते फलों को आग से बाहर निकालकर आग बुझाने की गरज से उन्हें अपने जूतों तले कुचला। अब तो ये और भी ज्यादा महकने लगे। इन फलों को शैतानी खुराफात घोषित करने वाले मठाधिपति महोदय की भी अब इनमें दिलचस्पी जागी। उन्होंने अपने शिष्य को आदेश दिया कि जलकर कड़क और ठुककर चूरा हो चुके फल को एक बर्तन में डालकर उस पर गर्म पानी डाल दिया जाए, ताकि महक बनी रहे। फिर वे बर्तन में तैयार हुए इस नए पेय पदार्थ को चखने से खुद को रोक सके। इसका स्वाद उन्हें रास आया। देखते ही देखते उनके शिष्य भी इसे पीने लगे। कुछ ही दिन में यह स्पष्ट हो गया कि इसे पीने से नींद उड़ जाती है। रात-रात भर धार्मिक अनुष्ठान करने वाले इन मठवासी महात्माओं के लिए यह बड़े काम की चीज थी, सो वे नियमित रूप से इसका सेवन करने लगे।

इससे मिलती-जुलती कुछ अन्य कथाएँ भी कॉफी की खोज को लेकर चली आई हैं। कुल मिलाकर इस बात पर विद्वानों में लगभग सहमति है कि कॉफी प्राकृतिक रूप से इथियोपिया में उगती थी और फिर अरब लाकर इसकी खेती की जाने लगी, जहाँ से यह शेष विश्व में फैली। जहाँ तक इसके नाम की उत्पत्ति का सवाल है, कुछ लोगों का मानना है कि चूँकि यह इथियोपिया के 'काफा" नामक राज्य में पाई गई, अत: इसका नाम 'कॉफी" पड़ा। अन्य जानकार बताते हैं कि यह अरबी शब्द 'काहवा" से आया है, जिसका अर्थ है बीज की मदिरा। एक अन्य मत है कि यह एक अन्य अरबी शब्द से आया है, जिसका अर्थ है 'ताकत"

खैर, कॉफी की करामातों के किस्से कम नहीं हैं। कहते हैं कि यमन में मोका नामक स्थान पर तेरहवीं सदी में शेख उमर नाम के हकीम रहते थे। एक बार उन्हें राजकुमारी का इलाज करने शाही महल में बुलाया गया। उन्होंने इलाज तो कर दिया, लेकिन राजकुमारी को दिल भी दे बैठे। जाहिर है, राजा को यह नागवार गुजरा। उन्होंने शेख उमर को देश निकाला दे दिया। यहाँ-वहाँ भटकते हुए वे एक दिन एक ऐसे स्थान पर पहुँचे, जहाँ कॉफी उग रही थी। वे इसे पीकर गुजारा करने लगे। जब उनके कुछ पुराने मरीज उन्हें ढूँढते हुए वहाँ आए, तो उमर ने उन्हें भी कॉफी पिलाई। इससे उनके स्वास्थ्य में सुधार हुआ। इस बात की चर्चा फैली, तो मोका के राजा तक भी पहुँची। उन्होंने देश निकाले की सजा वापस ले ली और शेख उमर को ससम्मान मोका बुलवा भेजा।

अरब देशों की तरह योरप में भी कॉफी के फैलाव के साथ यह विवाद जुड़ा रहा कि इसे नशीला पदार्थ माना जाए या नहीं, धर्म-सम्मत माना जाए या धर्म-विरोधी, लाभदायक माना जाए या नुकसानदायक। इस सबके बीच कॉफी के स्वाद और इसकी व्यापारिक संभावनाओं ने सरकारों को किसी भी हद तक जाने के लिए प्रेरित किया। सन् 1616 में नीदरलैंड ने अपने कुछ जासूस यमन से कॉफी का एक पौधा चुरा लाने के लिए भेजे, जिससे नीदरलैंड और उसके उपनिवेशों में इसकी खेती शुरू हो सकी। इससे भी बढ़कर किस्सा है ब्राजील के जाँबाज जासूस फ्रांसिस्को डिमेलो पालहेटा का। ब्राजील सरकार अपने यहाँ कॉफी उगाकर उसका व्यापार करना चाहती थी। फ्रेंच गुयाना में यह उगाई जाती थी। फ्रेंच और डच गुयाना के बीच सीमा विवाद चल रहा था। इसमें मध्यस्थता के बहाने ब्राजील सरकार ने पालहेटा को फ्रेंच गुयाना भेजा। एक ओर मध्यस्थता चलती रही और दूसरी ओर पालहेटा महाशय अपने सुदर्शन व्यक्तित्व का लाभ उठाते हुए फ्रेंच गुयाना के गवर्नर की पत्नी को 'प्रभावित" करने में व्यस्त रहे। नतीजा यह निकला कि जब वे लौटने लगे, तो उन मोहतरमा ने बड़े प्रेम से उन्हें विदाई गिफ्ट के तौर पर एक विशाल गुलदस्ता दिया, जिसमें चुपके से कुछ कॉफी के बीज छुपा दिए गए थे। इस प्रकार कॉफी का ब्राजील में प्रवेश हुआ और देखते ही देखते ब्राजील कॉफी की दुनिया का शहंशाह बन गया!

अंत में एक किस्सा स्वीडन का भी जान लीजिए। अट्ठारहवीं सदी में वहाँ शासन करने वाले सम्राट गुस्ताव तृतीय कॉफी को नुकसानदायक मानते थे। उन्होंने अपनी प्रजा के सामने अपनी बात सही साबित करने के लिए एक 'प्रयोग" किया। अपनी जेल में कैद दो हमशक्ल जुड़वाँ भाइयों को उन्होंने अपना 'गिनी पिग" बनाया। आदेश दिया गया कि इनमें से एक भाई को रोज 30 कप कॉफी पिलाई जाए और दूसरे को इतनी ही चाय। कॉफी पीने वाला पहले मर जाएगा तो सिद्ध हो जाएगा कि कॉफी बुरी होती है! इस प्रयोग पर नजर रखने के लिए दो डॉक्टर भी नियुक्त किए गए। दोनों भाइयों को चाय-कॉफी पिलाई जाती रही। कुछ साल बाद प्रयोग पर नजर रखने वाले एक डॉक्टर की मौत हो गई। कुछ समय बाद दूसरा डॉक्टर भी चल बसा। दोनों भाई 'पीते" रहे और फिर एक दिन सम्राट ही भगवान को प्यारे हो गए! अंतत: एक कैदी भाई 83 की उम्र में चल बसा.... वह जिसको चाय पिलाई जाती रही थी...!