Tuesday 25 September 2012

नदियों पर बहता जीवन-मृत्यु का सफर


 नदियों ने मानव को जीना सिखाया और मानव ने तय किया कि मरने पर भी उसके सामने नदी ही होगी क्योंकि इस मृत्यु के बाद भी कहीं जीवन रहेगा और उस जीवन को भी जरूरत होगी एक नदी की...
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आषाढ़ के लगते ही नदियाँ तैयार हो जाती हैं आसमान से बरसने वाले अमृत को झेलकर धरती को नवजीवन का रसपान कराने के लिए। देखते ही देखते इनका वेग आनंद की ऊर्जा पाकर द्विगुणित हो जाता है और ये अपने रास्ते में आने वाले हर एक को रस-विभोर करती चल पड़ती हैं. नदियाँ युग-युगांतर से धरती ही नहीं, समूची सभ्यताओं को सींचती आई हैं। जंगलों में भटकते, शिकार कर पेट पालते इंसान को एक जगह टिकाकर 'सभ्य" बनाने का श्रेय नदियों को ही है। इन्होंने पानी का स्थायी स्रोत और अन्न उगाने के लिए उपजाऊ मिट्टी दी। बाकी काम मनुष्य ने अपनी बुद्धि से कर लिया। उसने खेती की और फिर दाने-पानी का यह स्थायी प्रबंध करने के बाद अपना परिष्कार करता चलता गया। उसने गाँव और शहर बसाए, कला के रंग टटोले, विज्ञान के सूत्र तलाशे। विश्व की हर प्राचीन सभ्यता किसी--किसी विशाल नदी के किनारे पनपी और पल्लवित हुई।

कोई आश्चर्य नहीं कि इन सभ्यताओं ने अपनी नदियों को ईश्वर-तुल्य मानकर पूजा। मिस्र की जीवनरेखा रही नील नदी को प्राचीन काल में हॉपी नामक देवता के रूप में पूजा जाता था। माना जाता था कि जल की देवी और उर्वरता के देवता के मिलन से हॉपी का जन्म हुआ है। किसी भी नदी के दो प्रमुख गुणों को प्रतिपादित करने का बड़ा ही सुंदर तरीका हुआ ? प्रसिद्ध यूनानी इतिहासविद् हेरोडोटस ने मिस्री सभ्यता को 'नील नदी का उपहार" कहा है। मिस्र में एक ओर जहाँ नदी की बदौलत उपजाऊ हुई काली मिट्टी थी, वहीं दूसरी ओर रेगिस्तान की बंजर लाल मिट्टी थी। मिस्रवासियों पर इसका इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि वे काले रंग को शुभ और लाल रंग को अशुभ मानने लगे।

उधर चीन में तो मानव उत्पत्ति की कथा ही वहाँ की प्राचीन पीत नदी से जुड़ी है। कहते हैं कि जब सृष्टि की उत्पत्ति हो चुकी थी, तब नूगुआ नामक देवी धरती का अवलोकन करने पधारीं। पीत नदी के किनारे बैठे-बैठे वे सोच रही थीं कि कितनी सुंदर सृष्टि है यह लेकिन इसका आनंद लेने के लिए कोई नहीं! उन्होंने नदी किनारे की गीली (और पीली!) मिट्टी ली और उससे देवी-देवताओं के रूप में मूर्तियाँ बनाने लगीं। फिर अपनी दिव्य शक्तियों से उन्होंने इन पुतलों में जान फूँक दी और इस तरह मानव की रचना हुई।

नदियों ने खेत-खलिहान तो भरे ही, नौकाओं के जरिए परिवहन के राजमार्ग भी उपलब्ध कराए। इन्होंने गाँवों-शहरों के बीच संबंध जोड़े। इन पर सवार हो मनुष्य ने दूर-दूर की यात्राएँ कीं, व्यापार का दायरा बढ़ाया। नदियों का गतिमान होना और सैंकड़ों-हजारों मील के सफर तय करना मानव मन में कई तरह के विस्मय जगा गया। उसने नदियों की उत्पत्ति, उनके निरंतर प्रवाह और उनके गंतव्य के बारे में चिंतन किया। नदी के भौतिक गुणों में उसने आध्यात्मिक प्रतिबिंब तलाशे। नदी के सफर से उसने अपनी जीवन यात्रा की तुलना की। इसमें झाँककर एक लोक से दूसरे लोक की अपनी यात्रा के रहस्य जानने चाहे।

हमारे पुराणों में पृथ्वीलोक और यमलोक के बीच बहने वाली वैतरणी नदी का उल्लेख है। अन्य प्राचीन सभ्यताओं ने भी परलोक में प्रवेश के लिए नदी पार करने की अनिवार्यता दर्शाई गई है। यूनानी पौराणिक कथाओं के अनुसार स्टिक्स नदी पार करने पर परलोक (जिसे हेडीज़ कहा जाता था) में प्रवेश मिलता है। यह नदी नाव द्वारा ही पार की जा सकती है, जिसे कैरन नामक वृद्ध नाविक चलाता है। कैरन अंधकार तथा रात्रि का बेटा है और नदी पार कराने के बदले चाँदी का एक सिक्का लेता है। इसीलिए प्राचीन काल में यूनानी लोग मृतकों को दफन करते समय उनके मुँह में चाँदी का सिक्का रख दिया करते थे ताकि दिवंगत आत्मा कैरन को किराया अदा करके सकुशल परलोक पहुँच जाए। जिसका अंतिम संस्कार ठीक से किया गया हो, वह सौ साल तक स्टिक्स के किनारे भटकने पर विवश रहता था, इसके बाद ही कैरन उस पर दया कर उसे नदी पार कराता था। स्टिक्स नदी का यूनानी पुराणों में इतना महत्व था कि देवी-देवता भी स्टिक्स के नाम पर ही शपथ लेते थे। यदि उन्होंने अपनी शपथ तोड़ी, तो उन्हें स्टिक्स का पानी पीना पड़ता था। इससे नौ साल के लिए उनकी बोलने की शक्ति चली जाती थी। इसके बाद वे नौ साल के लिए देव-सभा से निष्कासित रहते थे। स्पष्ट है कि स्टिक्स के नाम पर मनुष्यों ही नहीं, देवताओं के भी पसीने छूटते थे!

वैसे स्टिक्स यूनानी परलोक की एकमात्र नदी नहीं थी। हेडीज़ में कुल पाँच नदियाँ थीं। स्टिक्स के अलावा ये थीं: दु: की नदी, विलाप की नदी, अग्नि की नदी और स्मृतिभंग की नदी। इनमें स्मृतिभंग की नदी लीथी का विशेष महत्व था। इसका पानी पीने से आत्माओं की सारी यादें मिट जाती थीं। इसके बाद ही उनके पुनर्जन्म की राह खुलती थी। एक समय यह मान्यता भी प्रचलित थी कि हेडीज़ में एक और नदी थी, जिसका पानी पीने से आत्मा सर्वज्ञ होकर सिद्धि प्राप्त कर लेती थी और पुनर्जन्म की अनिवार्यता से मुक्त हो जाती थी।

मिस्र में भी परलोक का नदी और नाव से संबंध था। वहाँ माना जाता था कि सूर्यदेव शाम को पश्चिम में अस्त होने के बाद नाव पर सवार हो परलोक के एक छोर से दूसरे छोर का सफर करते हैं। उनके साथ उस दिन दिवंगत हुई आत्माएँ भी नाव पर सवार हो परलोक पहुँच जाती हैं। यही कारण था कि उस जमाने में मिस्र की हर कब्र में शव के साथ-साथ नाव का मॉडल भी दफनाया जाता था। इधर जापानी लोग मानते हैं कि दिवंगत आत्माओं को मृत्यु के सातवें दिन सान्जू नदी पार करनी होती है। नदी को पार करने के तीन तरीके हैं। जिनके कर्मों में पुण्यों का पलड़ा भारी है, उन्हें एक भव्य पुल पर से नदी पार करने की अनुमति होती है। जिनके पाप और पुण्य का पलड़ा बराबर है, वे उथले पानी वाले स्थान से नदी पार कर जाते हैं लेकिन जिनके पाप का पलड़ा भारी है, उन्हें गहरे पानी वाले स्थान से, भयानक सर्पों से बचते-बचाते उस पार जाना होता है।

ऐसी कितनी ही मान्यताएँ समय के अनादि-अनंत प्रवाह पर सवार हो हम तक पहुँची हैं और आगे जाने कितनी ही और पीढ़ियों तक पहुँचती रहेंगी। नदियों ने मानव को जीना सिखाया और मानव ने तय किया कि मरने पर भी उसके सामने नदी ही होगी क्योंकि इस मृत्यु के बाद भी कहीं जीवन रहेगा और उस जीवन को भी जरूरत होगी एक नदी की...