Tuesday 30 October 2012

बूँद-बूँद से घड़ा भरते समृद्धि के शुभंकर

जब किसी शिल्पकार का शिष्य बरसों मेहनत करके हुनर सीख लेता था, तो उसका गुरू उसे एक गुल्लक भेंट करता था। एक तरह से वह अपने शिष्य को आशीर्वाद देता था कि जाओ, अब तुम्हारा हुनर तुम्हें खूब समृद्धि बख्शे।
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रुपए-पैसे से पहला परिचय होते ही हममें से अधिकांश का परिचय गुल्लक से भी हो जाता है। हाथ में मौजूद राशि को तुरंत खर्च करने के बजाए किसी और दिन के लिए बचाकर रखने का दूरदृष्टिपूर्ण सिद्धांत हमने गुल्लक के हाथ में आने पर ही जाना है। बूँद-बूँद से घड़ा भरने की कहावत को साकार होते दिखाती है गुल्लक। दरअसल गुल्लक तो महज एक जरिया है। भविष्य के लिए बचत निधि का निर्माण करना कोई अकेले मनुष्य का विशिष्ट गुण नहीं है। यह अनेक प्राणियों का नैसर्गिक स्वभाव होता है। शिकारी पशु जब अपने पेट की क्षमता से अधिक शिकार कर देते हैं तो बचा हुआ मांस किसी महफूज जगह पर भूख की अगली लहर को थामने के लिए छिपाकर रख देते हैं। कभी-कभी अन्य पशु उनके इस 'मांस बैंक" पर डाका डाल इन्हें अपनी मेहनत की कमाई से वंचित कर देते हैं। जंगल तक जाने की जरूरत नहीं, आपने अपने आस-पास ही किसी पालतू या आवारा श्वान को जमीन में हड्डी गाड़ते हुए देखा होगा। इससे यही साबित होता है कि मनुष्य की तरह उसका सबसे वफादार दोस्त भी भविष्य के बारे में सोचता है और उसके लिए योजना बनाता है। बेशक, यह किसी बीमा कंपनी के रिटायरमेंट प्लान जैसी परिष्कृत योजना नहीं होती लेकिन यह भी तो देखिए कि इसके लिए कोई विज्ञापन लगता है और ही कोई एजेंट!
खैर, एक समय इंसान ने भी भविष्य के लिए बचाकर रखने की शुरुआत जमीन में गड्ढा खोदकर ही की थी: हड्डी गाड़ने के लिए नहीं, सिक्के गाड़ने के लिए। लंबे अरसे तक अपनी जमा पूँजी सुरक्षित रखने का यही एक तरीका ज्ञात था कि पैसा या सोना कहीं गाड़ दो और आड़े वक्त पर जरूरत पड़ने पर उसे निकाल लो। इसमें खतरे भी निहित थे। चोर-डाकुओं की नजर धन गाड़ने वालों पर लगी रहती थी कि किसी के इस 'भूमिगत बैंक" का ठिकाना ज्ञात हो जाए तो उस पर हाथ साफ कर लिया जाए। कभी-कभी धन गाड़ने वाला उस गुप्त स्थल का राज अपने साथ लेकर ही चल बसता, तो कभी खुद ही भूल जाता कि उसने किस जगह अपनी पूँजी धरती माता के हवाले की थी! सदियों बाद किसी अन्य प्रयोजन से खुदाई होने पर यही धन 'गड़े खजाने" के रूप में प्राप्त होता है तो उसकी उत्पत्ति को लेकर कई तरह के किस्से चल पड़ते हैं। प्राचीन रोमन और यूनानी सभ्यता की खुदाई में भी विभिन्न आकारों की गुल्लकें मिली हैं। वैसे दुनिया के कई पिछड़े इलाकों में आज भी लोग अपने धन की सुरक्षा के लिए धरती के ही भरोसे रहते हैं। पिछड़े और गरीब इलाके ही क्यों, सुनने में तो यहाँ तक आया है कि कुछ साल पहले बड़े-बड़े बैंकों के धराशायी होने पर कई अमेरिकियों तक ने अपनी पूँजी बचाने के लिए बैंकों से निकालकर उसे अपने आँगन में गाड़ने में ही समझदारी समझी! कभी-कभी नए जमाने के संकट हमें पुराने जमाने के समाधानों की तरफ ले जाते हैं।
खैर, बात शुरू हुई थी गुल्लक से। मिट्टी में अपनी पूँजी सुरक्षित रखने वाले हमारे पूर्वजों ने मिट्टी की ही मदद से थोड़ा-थोड़ा कर पैसा जमा करना शुरू किया। वे मिट्टी के विशेष पात्र बनाने लगे, जिनमें सिक्का डालने के लिए एक खाँचा भर होता था। जमा पूँजी निकालने के लिए इस पात्र को फोड़ना पड़ता था। इस प्रकार गुल्लक को फोड़ना एक निर्णायक कदम होता था। जब तक गुल्लक 'वनपीस" में है, आपकी बचत सलामत है, भले ही आप उसमें और कुछ भी जोड़ रहे हों। मगर जैसे ही आपने गुल्लक फोड़ी, समझो सारी जमा पूँजी खर्च और आपका बैलेंस हो गया शून्य! यह गणित व्यक्ति को इस बात के लिए बाध्य करता था कि वह बहुत जरूरी होने पर ही अपनी बचत राशि को खर्च करे। आज भी हमारे ग्रामीण इलाकों में इसी तरह की गुल्लकें आपको मिल जाएँगीं। यूँ अन्य चीजों की तरह गुल्लकों की डिजाइन में भी परिवर्तन होते रहे और अब ये कई-कई तरह की मॉडर्न कल्पनाशील डिजाइनों में उपलब्ध हैं। यह बात और है कि ये मॉडर्न गुल्लकें अब बच्चों के शिक्षाप्रद खिलौने तथा संग्रहकर्त्ताओं की दिलचस्पी की चीज बनकर रह गई हैं।
पश्चिमी देशों में लंबे अरसे तक गुल्लकों को सूअर का ही आकार दिया जाता था और आज भी अँगरेजी में उन्हें 'पिगी बैंक" ही कहा जाता है। यह बड़े विस्मय का विषय हो सकता है कि भला पैसे बचाने का सूअर से क्या लेना-देना! इसके पीछे अँगरेजी भाषा का एक पेंच छिपा है। मध्ययुगीन इंग्लैंड में गुल्लकें (तथा अन्य बर्तन) जिस नारंगी रंग की मिट्टी से बनाई जाती थीं, उसे 'पिग क्ले" कहा जाता था। यहाँ पिग की स्पेलिंग सूअर वाली "pig" होकर "pygg" थी। अट्ठारहवीं सदी तक आते-आते लोगों ने इस असुविधाजनक स्पेलिंग से छुटकारा पाकर मिट्टी के लिए भी "pig" लिखना ही शुरू कर दिया। इसके साथ ही वे शायद इस शब्द की उत्पत्ति भी भूलने लगे। सो पीआईजी पिग का आशय सूअर से ही समझा जाने लगा और गुल्लकें 'पिग" मिट्टी से 'पिग" की शक्ल में बनने लगीं!
अब जबकि पिगी बैंक का तात्पर्य सिक्के जमा करने के पिग की शक्ल वाले पात्र से हो गया, तो ये पिग मिट्टी के अलावा प्लास्टर से लेकर प्लास्टिक तक अन्य पदार्थों से भी बनने लगे लेकिन कहलाए पिगी बैंक ही। एक और परिवर्तन यह आया कि नए जमाने की इन गुल्लकों से पैसा निकालने के लिए इन्हें फोड़ना जरूरी नहीं रह गया। अब इनमें पीछे या नीचे की तरफ एक ढक्कन आने लगा, जिसे खोलकर पैसा निकाला जा सकता है और गुल्लक सलामत रहती है।
आज पिगी बैंक पिग के आकार का मोहताज नहीं रह गया है। यह कई तरह के आकारों में आता है: कार और टीवी से लेकर कार्टून कैरेक्टर और बिल्डिंग तक। कुछ साधारण ढक्कन से खुलती हैं, तो कुछ पर बाकायदा ताला लगाकर चाबी से खोलने की सुविधा रहती है। कुछ हाईटेक गुल्लकें तो तिजोरी की तरह खास कॉम्बिनेशन लॉक वाली भी होती हैं। ऐसी गुल्लकें भी गई हैं, जिनमें इलेक्ट्रॉनिक डिसप्ले बोर्ड बताता है कि अंदर कुल कितनी रकम जमा हो चुकी है! चूँकि आधुनिक गुल्लकों के टार्गेट उपभोक्ता/खरीददार बच्चे संग्रहकर्त्ता हैं, अत: इन्हें आकर्षित करने के लिए निर्माता डिजाइनों के साथ प्रयोग करते रहते हैं।
तो नेट बैंकिंग के इस जमाने में भी गुल्लक का महत्व अपनी जगह बरकरार है। जर्मनी, नीदरलैंड आदि में आज भी बच्चों को जन्मदिन नव वर्ष के तोहफे के रूप में गुल्लक भेंट की जाती है ताकि वे बचत के महत्व को सीखें। वैसे इन देशों में एक दिलचस्प प्राचीन परंपरा रही है कि जब किसी शिल्पकार का शिष्य बरसों मेहनत करके हुनर सीख लेता था, तो उसका गुरू उसे एक गुल्लक भेंट करता था। एक तरह से वह अपने शिष्य को आशीर्वाद देता था कि जाओ, अब तुम्हारा हुनर तुम्हें खूब समृद्धि बख्शे। इस प्रकार गुल्लकें समृद्धि की शुभंकर भी रही हैं।