Sunday 8 March 2015

एक फली का लंबा टाइम-पास

मूंगफली देवताओं का चढ़ावा भी रही और गुलामों का भोजन भी। आज कार रेसर इससे बिदकते हैं, नासा के वैज्ञानिक इसे शुभ शगुन मानते हैं और हम भारतीय इसके बहाने उत्सव मना लेते हैं...!
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तमाम तरह के फास्टफूड्स के इस जमाने में भी मूंगफलियों में कोई तो बात है कि बरसात को निहारते हुए या फिर किसी फिल्म या खेल का लुत्फ लेते हुए इनका रसास्वादन करना अब भी एक लोकप्रिय शगल है। यूं हमारे यहां बाग-बगीचों, चौपाटियों पर टाइम-पास करते हुए मूंगफली खाना इस कदर आम रहा है कि इस फली का दूसरा नाम ही 'टाइम-पास" हो गया है। यूं मूंगफली ने ध्ारती पर काफी लंबा टाइम पास किया है। दक्षिण अमेरिकी देश पेरू की नानचॉक घाटी में मूंगफली के 7,600 साल पुराने अवशेष पाए गए हैं। मगर इसका यह टाइम काफी अच्छी बीता और इस दौरान इसने जिंदगी के कई रूप देखे हैं। दक्षिण अमेरिका में यह कितनी महत्वपूर्ण थी, यह इस बात से भी पता चलता है कि वहां लोग 3,500 साल पहले से ही मूंगफली के आकार में मिट्टी के मर्तबान बना रहे हैं और उन्हें मूंगफली की आकृतियों से ही सजा भी रहे हैं। यहां तक कि प्रसिद्ध इंका साम्राज्य में देवताओं को मूंगफली का चढ़ावा दिया जाता था। राजाओं की मृत्यु पर जब उनके शव का ममीकरण कर कब्र के हवाले किया जाता, तो उनके साथ कुछ मूंगफलियां भी रख दी जाती थीं। यानी आत्मा के टाइम-पास की व्यवस्था..!
दक्षिण अमेरिका में उत्पत्ति के बाद मूंगफली को स्पेन और पुर्तगाल से आए उपनिवेशवादियों ने योरप, अफ्रीका और एशिया तक पहुंचाया। मजेदार बात यह है कि दक्षिण अमेरिका की यह मूल उपज अफ्रीका के रास्ते होकर उत्तर अमेरिका पहुंची। वह यूं कि जो अफ्रीकी गुलाम उत्तर अमेरिका लाए गए, मूंगफली उनका प्रचलित आहार थी। वहां लंबे समय तक इसे गुलामों/ गरीबों (और पशुओं!) का आहार माना गया। आखिरकार जब वहां गृह युद्ध छिड़ा, तब दोनों सेनाओं ने मूंगफली के पौष्टिक गुणों को पहचाना और युद्ध के दौरान दोनों पक्षों के सैनिकों ने इसका भरपूर सेवन कर इसे 'मुख्यध्ाारा" का खाद्य बनाया। जहां तक भारत का सवाल है, यह माना जाता है कि यहां 18वीं सदी के आसपास अफ्रीका, फिलिपीन्स और चीन से क्रमश: पश्चिम भारत, दक्षिण भारत और बंगाल में मूंगफली ने प्रवेश किया। जिस साध्ाारण-सी मूंगफली को कभी अमेरिकी वनस्पतिशास्त्रियों ने पालतू सूअरों को खिलाने के लिए एक उत्तम आहार घोषित किया था, वह आज विश्व के बहुत बड़े भाग में बहुत बड़ी मानव आबादी को आहार के रूप में काम रही है। साथ ही, इससे तेल और मक्खन ही नहीं निकाला जाता, ब्राजील के आदिवासी इसे मक्के के साथ पीसकर मदिरा भी बनाते हैं, जिसका सेवन खास उत्सवों पर किया जाता है। इसके अलावा इसके सैंकड़ों अन्य उपयोग भी हैं, जिनमें शेविंग क्रीम और जूते की पॉलिश का निर्माण भी शामिल हैं।
मूंगफली जहां-जहां भी उगी, उसके इर्द-गिर्द अनेक तरह की ध्ाारणाएं और विश्वास भी उग आए। मसलन, अफ्रीका में लोग मानते थे कि मूंगफली के पौध्ो में भी मानव शरीर की भांति 'आत्मा" होती है। उध्ार 1502 में कैरेबियाई द्वीपों पर पहली-पहली बार मूंगफली से साक्षात्कार करने के बाद स्पेन के इतिहासकार तथा समाज सुध्ाारक बार्तोलोम दे ला कैसास ने इनका वर्णन करते हुए लिखा, 'यदि आप इन फलियों के स्वाद के वशीभूत होकर इन्हें ज्यादा मात्रा में खा लेंगे, तो आपको सिरदर्द हो सकता है मगर यदि इन्हें अध्ािक मात्रा में खाया जाए, तो सिरदर्द नहीं होता और ही कोई अन्य नुकसान होता है..."
अंध्ाविश्वासों पर केवल 'पिछड़े", कम शिक्षित लोगों का एकाध्ािकार नहीं है। नासा के वैज्ञानिकों के बीच 1964 से अच्छे शगुन के लिए मूंगफली खाने का चलन रहा है। जब भी वे कोई महत्वपूर्ण अंतरिक्ष यान छोड़ते हैं, तो मुट्ठी भर मूंगफलियां जरूर खाते हैं। बताते हैं कि इसकी शुरूआत तब हुई थी, जब 28 जुलाई 1964 को रेंजर-7 यान को चंद्रमा पर जाने के लिए सफलतापूर्वक छोड़ा गया। मिशन मैनेजर हैरिस शुरमेयर ने अपने साथी वैज्ञानिकों को मूंगफलियां खाने को दीं, ताकि उनका ध्यान कुछ बंटे और वे थोड़े तनावमुक्त हो सकें। बाद में यह एक परंपरा ही बन गई और माना जाने लगा कि महत्वपूर्ण मौकों पर मूंगफलियों का सेवन शुभ होता है... दूसरी ओर, कार रेसरों के बड़े तबके के बीच मूंगफली को अपशकुन माना जाता है। कहा जाता है कि कभी किसी रेसर ने रेस से पहले मूंगफली खाई थी। रेस के दौरान हादसे में वह मारा गया और ठीकरा मूंगफली के सिर फूटा!
खैर, शगुन-अपशकुन से परे मूंगफली हमारे भारत में उत्सव का सबब भी है। बंगलुरू के बासवनगुडी इलाके में हर वर्ष दो दिन का मूंगफली मेला लगता है। कार्तिक माह के अंतिम सोमवार तथा मंगलवार को नंदी (बासव) मंदिर के पास लगने वाले इस मेले की शुरूआत के पीछे कई तरह के किस्से प्रचलित हैं। ऐसे ही एक किस्से के मुताबिक इस इलाके में कभी मूंगफली के खेत हुआ करते थे। एक बैल अक्सर इन खेतों में घुसकर फसल को नष्ट कर जाता था। तब किसानों ने भगवान शिव की सवारी नंदी से गुहार लगाई कि वे इस बैल को फसल नष्ट करने से रोकें। जब बैल ने उन्हें परेशान करना बंद कर दिया, तो कृतज्ञ किसानों ने वहां नंदी (बासव) का मंदिर बना दिया। आज भी वे अपनी फसल का एक अंश बासव को अर्पित करने के लिए आते हैं और इसी मौके पर यहां लगता है यह दो दिनी मूंगफली मेला। दूर-पास के ग्रामीण यहां मूंगफली के अलावा अन्य कई प्रकार का सामान भी बेचने आते हैं। विभिन्ना तरह की कलाकृतियों और खाद्य सामग्री से मेला सजता है और मूंगफली की बदौलत यहां आने वालों का अच्छा टाइम पास होता है...