Sunday 22 January 2017

सिंहासन पर सूर्य की संतान

मानव सदा सूर्य के प्रताप का कायल रहा है और शासक अपना संबंध सूर्य से जोड़ते रहे हैं। अनेक देशों के शासक सूर्यवंशी होने का दावा करते आए हैं।
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सूर्य का हमारे जीवन, हमारी संस्कृति और हमारी आस्थाओं में क्या स्थान है, यह सर्वविदित है। पृथ्वी को जीवन ऊर्जा प्रदान करने वाले सूर्य की महत्ता लगभग हर युग में, हर कहीं स्वीकार की गई है। यही कारण है कि विभिन्ना रूपों में सूर्य की पूजा मानव सभ्यता का अभिन्ना अंग रही है। दक्षिण अमेरिका के इन्का साम्राज्य में सूर्य देवता इन्टी को सृष्टि निर्माता वीराकोचा का पुत्र माना गया। समुद्र की देवी उनकी मां थीं और पृथ्वी तथा चंद्रमा उसकी बहनें। चूंकि सूर्य की कृपा से ही फसलें उगती थीं, सो इन्का लोगों के मन में इन्टी देव के प्रति असीम श्रद्धा थी। मगर सदा अपनी कृपा बरसाने वाले इन्टी कभी-कभी अपने भक्तों से रुष्ट भी हो जाते थे। सूर्य ग्रहण को उनके क्रोध का परिणाम माना जाता था। तब रुष्ट सूर्यदेव को मनाने के लिए विशेष चढ़ावे चढ़ाए जाते थे।
इस दक्षिण अमेरिकी सभ्यता में सूर्य के प्रति श्र्ाृद्धा इस कदर व्याप्त थी कि शासक वंश स्वयं को इन्टी, यानी सूर्य का ही वंशज बताता था। कहा जाता था कि पृथ्वीवासियों की अराजकता व असभ्यता से इन्टी दुखी थे, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र मान्को कपाक से कहा कि वह पृथ्वी पर जाए और मनुष्यों को सही तरीके से जीना सिखाए। इस प्रकार मान्को कपाक ने धरती पर सभ्यता की स्थापना की और प्रथम इन्का सम्राट बने। यह कुछ वैसा ही है, जैसे भारत में सूर्यवंश की उत्पत्ति सूर्य से मानी गई है। इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया आदि की कुछ जनजातियां भी स्वयं को सूर्य देव की वंशज मानती आई हैं। मिस्र में सम्राट को चित्रों में अक्सर सिर पर सूर्य को धारण किए हुए दर्शाया जाता था।
सूर्य की शक्ति का कायल होने के लिए आदि काल से ही मनुष्य के पास अनेक कारण थे। ऊर्जा के इस अनंत स्रोत से ही समस्त सृष्टि जीवन पाती है। आसमान में विराजित सूर्य की नजर से समस्त संसार में कुछ भी छुपा नहीं रह सकता। फिर, यह भी है कि सूर्य प्रकाश का परम स्रोत है और प्रकाश को हमेशा से ज्ञान के साथ जोड़ा जाता आया है। सो सूर्य ज्ञानवान भी माना गया। वह अपना प्रकाश व अपनी ऊष्मा समूचे संसार को समान रूप से प्रदान करता है, इसलिए वह न्यायप्रिय भी हुआ। इस प्रकार सूर्य को उन गुणों से लैस पाया गया, जो शासक वर्ग स्वयं में दर्शाना चाहता है। यही कारण है कि हर दौर, हर काल में शासक अपना संबंध सूर्य से जोड़ते आए हैं। उधर मेसोपोटामिया में राजा को 'मेरे आका" की तर्ज पर 'मेरे सूर्य" कहकर संबोधित किया जाता था।
वापस इन्का सभ्यता की बात करें, तो वहां तीन नैतिक सिद्धांतों पर जोर दिया जाता था। ये थे- चोरी मत करोे, झूठ मत बोलो और आलस मत करो। मान्यता यह थी कि जो लोग इन सिद्धांतों का पालन करते हैं, वे मृत्यु के बाद सूर्य की ऊष्मा के बीच रहते हैं और जो इनका पालन नहीं करते, उन्हें मृत्यु उपरांत सर्द धरती पर ही सदा के लिए रहना होता है। जांबिया की जनजातियां मानती आई हैं कि आसमान के देवता सूर्य पर वास करते हैं। इसी प्रकार मिस्र में कहा जाता था कि सृष्टि का सृजन करने वाले अमुन देव सूर्य पर रहते हैं। घाना व माली जैसे अफ्रीकी देशों में भी सृष्टि निर्माता का वास सूर्य पर माना गया था।

धारणाएं व अस्थाएं अनेक हैं मगर ये सब यही दर्शाती हैं कि सूर्य हमेशा से मानव को विस्मित करता आया है। और यह तय है कि आसमान में टंगा यह आग का विराट गोला जब तक धधकता रहेगा, तब तक विस्मय का रिश्ता बना रहेगा।

Sunday 8 January 2017

खुशी लाता बैंगनों का ख्वाब!

बैंगन को कभी प्रेम का फल कहा गया, तो कभी पागलपन का फल। इसे बीमारियों की जड़ भी माना गया और शुभत्व का प्रतीक भी।
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मध्य-पूर्वी देशों में एक कहावत है कि तीन बैंगनों का सपना देखना खुशी का प्रतीक होता है। बात सुनने में थोड़ी अजीब लग सकती है। जिस सब्जी (तकनीकी रूप से फल) के बारे में हमारे यहां अनेक लोगों की राय है कि यह 'बेगुण" है, उसे सपने में देखना भला खुशी का प्रतीक कैसे हुआ? और वह भी एक नहीं, तीन-तीन बैंगन! यह कहावत इतना तो जाहिर करती ही है कि मध्य-पूर्व में बैंगन किस कदर लोकप्रिय रहा है। सच भी यह है कि हालांकि बैंगन की उत्पत्ति भारत में हुई मानी जाती है लेकिन इसे सबसे ज्यादा प्यार व लोकप्रियता मिली मध्य-पूर्व में। तुर्की में यह इस कदर खाया जाता रहा है कि वहां दक्षिणी हवाओं का नाम ही 'बैंगन की हवा" रख दिया गया था। कारण यह कि ये हवाएं उन चूल्हों की आग भड़काती थीं, जिन पर गली-गली में बैंगन पकाया जा रहा होता। वैसे तुर्की में आज भी इसका उपयोग इतने व्यापक तौर पर होता है कि एक किस्सा यह भी है कि जब एक विदेशी अतिथि से भोजन के उपरांत पूछा गया कि और क्या लीजिएगा, तो बेचारे को कहना पड़ा, 'बस, एक ग्लास पानी ... और कृपया उसमें बैंगन मत डालिएगा!"
बैंगन की इतिहास देखें, तो हम पाते हैं कि यह जहां-जहां गया, वहां या तो जबर्दस्त रूप से लोकप्रिय हुआ या फिर उतने ही व्यापक तौर पर बदनाम। जब यह दक्षिण योरप पहुंचा, तो वहां के लोगों ने इसे 'प्रेम का फल" कहा क्योंकि उनका मानना था कि इसमें यौन शक्ति वर्द्धक गुण होते हैं। मगर जब यह अपनी यात्रा में थोड़ा आगे बढ़ा और उत्तरी योरप में गया, तो लोगों ने इसे 'पागलपन का फल" नाम दिया। उनका मानना था कि बैंगन खाने से दिमागी संतुलन जाता रहता है! यह भी बताया जाता है कि कुछ योरपीय देशों ने बैंगन को पहले-पहल भोज्य पदार्थ के बजाए दांतदर्द की दवा के तौर पर अपनाया था। कहते हैं कि सत्रहवीं सदी में फ्रांसीसी सम्राट लुईस सोलहवें को नए-नए फल-सब्जियों को आजमाने व अपने मेहमानों को परोसकर उनकी वाहवाही पाने का शौक था। इसी क्रम में उन्होंने बैंगन को भी अपनी शाही रसोई में स्थान दिया। मगर जब यह उनके मेहमानों को परोसा गया, तो उन्हें यह कोई खास रास नहीं आया।
उधर अमेरिका का बैंगन से परिचय कराने का श्रेय वहां के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन को जाता है। उन्हें काश्तकारी का शौक था और वे योरप से नए-नए पौधों के बीज मंगाकर अपने यहां उगाते थे। उन्हीं ने पहले-पहल अमेरिका में बैंगन उगाया। हालांकि उस समय तक अमेरिका में भी इसकी कुख्याति पहुंच चुकी थी। लोग इसे दिमागी असंतुलन के अलावा कुष्ठ रोग व कैंसर का कारक भी मानते थे। यही कारण है कि शुरुआत में अमेरिकियों ने इसे उगाया भी, तो सजावटी पौधे के तौर पर। कोई एक सदी के बाद ही उन्होंने इसे खाने की हिम्मत जुटाना शुरू किया!

एक समय बैंगन फारस (आधुनिक ईरान) में भी बदनाम था, जहां इसे मुंहासों से लेकर मिर्गी के दौरे तक के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता था! उधर चीन व जापान ने अपने यहां बैंगन के आगमन का दिल खोलकर स्वागत किया। जापान में तो यहां तक कहा जाता है कि नया साल शुरू होने पर सबसे पहले फुजी पर्वत, फिर बाज और उसके बाद तीसरे क्रम पर बैंगन के दर्शन होना शुभ होता है!