परी-कथाओं में तो डायन बहुत बाद में आई। पहले वह सदियों तक बड़ों के मन में खौफ का कोना आबाद करती रही।
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'महँगाई डायन' के बारे
में तो आपने सुना ही है। कोई बुरी लगने वाली चीज हो और वह स्त्रीलिंग भी हो तो उसे डायन की उपमा देना आसान होता है। और फिर जमाने की सारी आधुनिकता के बावजूद डायन, चुड़ैल, भूतनी आदि की अवधारणाएँ हमारे अवचेतन में अब भी इस कदर मौजूद हैं कि बुराई की प्रतीक के तौर पर हम इन्हें सहज स्वीकार कर लेते हैं। संसार की सबसे पहली डायन कब और कहाँ हुई, यह तो दावे से कोई नहीं कह सकता लेकिन शुरू से ही मौजूद रहे अज्ञात के भय और स्थापित व्यवस्था से हटकर रहने वालों के प्रति असहजता ने डायन नाम के प्राणी को जन्म देते देर नहीं की होगी। तिस पर अपनी क्षमता, मान्यता या प्रतिभा के बल पर पुरुष की सरपरस्ती के बगैर बसर कर रही स्त्री को लेकर उत्पन्न एक अनाम आतंक ने डायन की अवधारणा को खौफ और नफरत के पंख लगा दिए होंगे।
बच्चों की परी-कथाओं में डायन-चुड़ैलें अक्सर खलनायिका के रूप में प्रकट होती आई हैं। यहाँ ये कहानी में खल-पात्र की आवश्यकता को भी पूरा करती हैं और एक तरह से बड़ों के विश्वासों को आगे बढ़ाने का काम भी करती हैं। खैर, परी-कथाओं में तो डायन बहुत बाद में आई। पहले वह सदियों तक बड़ों के मन में खौफ का कोना आबाद करती रही। जितने मुँह उतनी बातें, जितने देश-समाज उतनी डायनें, जितनी कल्पनाएँ उतनी चुड़ैलें। अँगरेजी में इनके लिए प्रयुक्त शब्द 'विच" की उत्पत्ति को प्रकृति विज्ञान से जोड़ा जाता है। कहते हैं कि प्राचीनकाल की ये चुड़ैलें जड़ी-बूटियों से कुछ खुराफात करती रहती थीं। जो खुराफात देखने वालों को समझ में न आए, वह जादू-टोने की श्रेणी में आती है, सो ये जनानियाँ जादू-टोना करने वाली रहस्यमयी हस्तियाँ कहलाईं। शायद जड़ी-बूटियों से निकट संबंध के कारण ही पश्चिम में यह धारणा भी चल पड़ी कि ये 'विचेज़" चाहे जो रूप धरें, इनका असली रंग हरा होता है! एक वर्ग का मानना है कि किसी युग में ये स्त्रियाँ प्राकृतिक चिकित्सा की साधिकाएँ थीं। लोग इनके पास अपनी बीमारियों का इलाज कराने आते थे और इनकी विद्या की रहस्यमयता के चलते इनसे डरते भी थे। संभवत: अपनी दुकान जमाने के लिए ये आदिम डॉक्टरनियाँ स्वयं अपने आसपास रहस्यमयी माहौल रचती थीं। जो भी हो, सब कुछ ठीक चल रहा था, सबका भला हो रहा था।
फिर संस्थागत धर्म की स्थापना हुई और उसके ठेकेदार अपने ब्रांड की मार्केटिंग में लग गए। अधिक से अधिक लोगों को अपने पक्ष में करने हेतु उनके लिए यह प्रचारित करना जरूरी था कि जो भी अच्छा होगा, उन्हीं के भगवान के हाथों होगा और उन्हीं विधियों से होगा जो वे बताएँ। बिना इन विधियों का पालन किए और बिना इनके भगवान को श्रेय दिए अपनी विद्या और कौशल से लोगों को स्वास्थ्य एवं आयु प्रदान करने वाली प्राकृतिक चिकित्सक स्त्रियाँ इन ठेकेदारों के लिए बहुत बड़ी चुनौती पेश कर रही थीं। बस, यहीं से शुरू हुआ इनके 'डायनीकरण" का सिलसिला। प्रचार के काम में उन्हीं को आगे बढ़ाया जाता है, जो सामने वाले की मति का लोंदा लें और उसे अपनी वाक् कला के चाक पर मनचाहा आकार देकर पका दें। ये रस्सी को साँप और साँप को रस्सी बना देने का माद्दा रखते हैं, फिर चाहे किसी वस्तु का प्रचार कर रहे हों या किसी विचार का। सो ऐसे ही मार्केटिंग के जादूगरों ने जड़ी-बूटियों की साधिकाओं को समाज की नजरों में डायन बना डाला। यह तो हुई योेरप की बात, लेकिन अन्य स्थानों पर भी डायन का मिथक कुछ इसी अंदाज में सत्ता व स्वार्थ की सिद्धि के लिए गढ़ा गया।
मिथकों के साथ होता यह है कि इन्हें रचा भले ही किसी भी व्यक्ति या समाज द्वारा गया हो, आगे चलकर ये खुद अपना रास्ता तय करते जाते हैं और मनचाहा रूप धरते जाते हैं। सो 'डायन" भी हर देश और हर काल में विभिन्ना कथाओं की पात्र बनी, तरह-तरह के 'गुणों" से लैस होती गई और भय व घृणा की पात्र के रूप में समाज में अपना स्थान बनाती गई। पश्चिमी देशों वाली डायनें लंबे डंडे वाली झाडू पर सवार होकर हवाई यात्रा करने के लिए ख्यात हैं। इन उड़न-झाड़ुओं की अवधारणा कहाँ से आई? कहते हैं कि ये 'डायनें" फसल की अच्छी पैदावार के लिए एक खास अनुष्ठान करती थीं। आधी रात को ये एक जगह जमा होकर एक विशेष डंडा लेकर 'उर्वरता नृत्य' करतीं। इसमें वे डंडे की सवारी करतीं और हवा में खूब ऊँचा उछलने की कोशिश करतीं। उनका मानना था कि वे नृत्य करते हुए जितना ऊपर उछलेंगीं, फसल भी उतनी ही ऊँची उठेगी यानी भरपूर पैदावार होगी। जो आम लोग इस अनुष्ठान की बारीकियाँ समझे बगैर छिप-छिपकर इस नृत्य का आधा-अधूरा नजारा देखते, उन्हें लगता कि डायनें डंडे पर सवार हो हवा में उड़ रही हैं। कालांतर में डंडे की जगह डंडे वाली झाड़ू जनश्रुतियों में आ गई, शायद इसलिए कि स्त्री के हाथ में डंडे के बजाए झाड़ू का विचार कथा सर्जकों और उनके श्रोताओं को अधिक सहज स्वीकार्य लगा हो।
खैर, मिथकों से परे हकीकत में 'डायन" करार दी गई महिलाओं के लिए सत्ता का कहर हमेशा खौफनाक रहा है। योरप में पंद्रहवीं से अठारहवीं सदी में कथित डायनों का पता लगाकर उन पर 'मुकदमा' चलाकर उन्हें मृत्युदंड देने का सिलसिला खूब जोर-शोर से चला। नैतिकता, धर्म और समाज के भले के नाम पर होने वाली इस ज्यादती की शिकार वे महिलाएँ भी हुईं जो कुछ जादू-टोना कर लेती थीं और वे भी जिन्हें रास्ते से हटाना किसी रसूखदार के लिए जरूरी था। इन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दी जातीं, जिंदा जला दिया जाता। समय के साथ यह दौर भी खत्म हुआ और पश्चिम में आधुनिक युग के उदय के साथ ही जादू-टोना, डायन-चुड़ैल आदि की मान्यताएँ अतीत के कूड़ेदान में डाल दी गईं तथा भय या घृणा के बजाए मजाक का विषय बन गईं। परियों की तरह इन्हें किस्से-कहानियों तक सीमित कर दिया गया।
अब जब आधुनिकता का दौर कुछ ज्यादा ही परवान चढ़ा, तो कुछ आधुनिकाओं को फिर 'डायन" का ख्याल आकर्षित करने लगा। आजकल खुद को 'विका' धर्म की अनुयायी बताकर नए जमाने की 'विच" घोषित करने वाली महिलाओं की संख्या पश्चिम में बढ़ रही है और इसकी हवा भारत तक भी पहुँच चुकी है। यह और बात है कि भारत अभी उस दौर से बाहर नहीं आया है, जहाँ किसी स्त्री को डायन घोषित कर प्रताड़ित किया जाता है और निर्ममता से मौत के घाट उतार दिया जाता है। यूँ भी भारत एक साथ कई युगों में जीने के लिए ख्यात है। सो, यहाँ डायन ठहराकर प्रताड़ित की जाने वाली ग्रामीण महिलाएँ भी हैं और खुद आगे आकर स्वयं को आधुनिक 'विच' घोषित करने वाली कोलकाता की इप्सिता रॉय चक्रवर्ती भी। साथ में महँगाई डायन तो है ही...!
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