हमारा
वजूद हमारी यादों के टेके पर खड़ा है। यादें नहीं हैं, तो हम नहीं हैं। हाड़-मांस
का पुतला एक जैविक 'वस्तु" मात्र होता है। उसे जिला देती हैं
यादें। ऐसे में यह सोचना ही बड़ा विस्मयकारी लगता है कि किसी की याददाश्त चली जाए, तो
उस पर क्या बीतती है। शायद एक कोरी स्लेट पर उभरते अनजान हरफों जैसा कुछ...।
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पिछले
दिनों एक ऐसे व्यक्ति के बारे में खबर आई, जिसे 90 मिनट से ज्यादा कुछ याद नहीं रहता! ब्रिटेन
का यह नागरिक रूट कनाल ट्रीटमेंट के लिए दांतों के डॉक्टर के पास गया था और उसके
बाद से उसे सिर्फ वही घटनाएं याद रहती हैं, जो बीते 90 मिनट में घटी हों। यही नहीं, रोज
सुबह उठने पर उसे लगता है कि यह वही दिन है जब उसे डेंटिस्ट के यहां जाना है। यह
क्रम बीते दस साल से जारी है! वह अपनी पहचान नहीं भूलता और न ही उसके
व्यक्तित्व में कोई बदलाव आया है। बस, उसका दिमाग 90
मिनट के पिंजरे का
चक्कर लगाकर रोज सुबह वापस उस दिन पर जा पहुंचता है, जब वह अपनी दाढ़ का इलाज कराने गया था।
अभी तक डॉक्टर उसकी बीमारी का इलाज नहीं खोज पाए हैं, हालांकि वे कहते हैं कि इस बात का कोई
प्रमाण नहीं है कि डेंटिस्ट द्वारा किए गए इलाज की वजह से उसकी यह हालत हुई...।
किस्सा
बड़ा दिलचस्प लगता है। आम तौर पर ऐसे किस्से फिल्मों में देखने को मिलते हैं। मसलन, 'गजनी" के
नायक की याददाश्त हर 15 मिनट बाद चली जाती है। याददाश्त जाने (और
वापस आने) के
किस्सों की फिल्म जगत में भरमार रही है। किसी दुर्घटना या हमले में सिर पर चोट लगी
और याददाश्त चली गई। फिर कहानी के अंत के आसपास दोबारा सिर के उसी हिस्से पर वैसी
ही चोट लगी, और लो! आ गई याददाश्त मानो कुछ दिन के सैर-सपाटे
पर गई थी...। हॉलीवुड की फिल्मों के लिए भी यह कई दशकों से पसंदीदा विषय
रहा है। दरअसल, याददाश्त का चला जाना ऐसा विषय है, जो कहानीकारों को मुग्ध कर ही देता है।
कारण यह कि हमारा वजूद हमारी यादों के टेके पर ही खड़ा है। यादें नहीं हैं, तो
हम नहीं हैं। हाड़-मांस का पुतला एक जैविक 'वस्तु" मात्र होता है। उसे जिला देती हैं
यादें। पल भर पहले की यादों से लेकर बरसों-दशकों पहले की यादें, अच्छी
और बुरी यादें, प्यार और नफरत की यादें, नसीहतों और अनुभवों की यादें...।
ऐसे में यह सोचना ही बड़ा विस्मयकारी लगता है कि किसी की याददाश्त चली जाए, तो
उस पर क्या बीतती है। शायद एक कोरी स्लेट पर उभरते अनजान हरफों जैसा कुछ...।
कहने की जरूरत नहीं कि किस्से-कहानियों और फिल्मों में स्मृतिलोप के
ये किस्से जिस नाटकीय तरीके से पेश किए जाते हैं, उनका हकीकत से रिश्ता कम ही होता है।
मगर ब्रिटेन के उक्त नागरिक के साथ जो घटा है, वह दर्शाता है कि कभी-कभी
वास्तविकता भी नाटकीयता के मामले में पीछे नहीं रहती।
हकीकत
और नाटकीय कल्पनाओं के बीच झूलती याददाश्त हमारी जनश्रुतियों और आख्यानों में भी
खास जगह बना गई है। दुष्यंत की याद में डूबी शकुंतला ने अनजाने में दुर्वासा ऋषि
की उपेक्षा की, तो क्रुद्ध ऋषि ने श्राप दे डाला कि जिसकी याद में तू डूबी है, वही
तुझे भूल जाएगा। अपने श्राप की कठोरता का आभास होने पर यह भी जोड़ा कि उसके द्वारा
दी गई कोई निशानी दिखाने पर उसे सब कुछ याद आ जाएगा...। उधर दुष्यंत शकुंतला और उससे किया
गया गंधर्व विवाह भूल बैठा और उसकी दी हुई अंगूठी खोने की वजह से शकुंतला बेबस हो
गई। बरसों बाद एक मछुआरे के माध्यम से अंगूठी सामने आने पर दुष्यंत को सब कुछ याद
आया...।
यूनानी
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार परलोक की पांच नदियों में से एक नदी लीथी भी है, जिसका
पानी पीने वाले की सारी स्मृति चली जाती है। आत्माओं के लिए यहां का पानी पीकर
अपने इस जन्म की सारी यादों को मिटा देना अनिवार्य है, ताकि वे नया जन्म ले सकें। यूनान में
स्मृतिलोप की देवी का नाम भी लीथी है। इसके अलावा वहां स्मृतिलोप के आसन का भी
उल्लेख आता है, जिस पर बैठने वाले की सारी स्मृति जाती रहती है।
हां, असल
जीवन में स्मृतियों को जाना किसी तिलस्मी नदी या आसन का मोहताज नहीं होता। बढ़ती
उम्र का प्रवाह कब याददाश्त को थोड़ा-थोड़ा कुरेदकर मिटाता चलता है, पता
ही नहीं चल पाता...।
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