आज
भले ही यह जुमला आम हो गया हो कि 'ईमानदारी का जमाना गया" मगर
संसार भर का लोक साहित्य और पौराणिक आख्यान इसी ईमानदारी व सत्यनिष्ठा के
महिमामंडन से भरे पड़े हैं और इनकी वांछनीयता को रेखांकित करते आए हैं।
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यूं
तो मशीनें बेईमानी नहीं करतीं मगर यदि इंसान ठीक अपने जैसी ही मशीन बनाने पर उतर
आए, तो
फिर एक बेईमान मशीन से रूबरू होने का जोखिम उठाने के लिए भी तैयार रहना होगा। आज
इंसान ऐसे रोबोट बनाने में लगा हुआ है, जो अपने 'मन" से निर्णय लेने और काम करने में सक्षम
हों। मगर उसके भीतर यह डर भी है कि कहीं रोबोट उसे धोखा देकर, गलत
काम करके, खलनायक
न बन बैठे। यह डर कई विज्ञान फंतासी फिल्मों में रोचक अंदाज में व्यक्त भी किया जा
चुका है। अब गूगल के शोधकर्ता कुछ अन्य शोधकर्ताओं के साथ मिलकर ऐसे उपाय खोज रहे
हैं, जिनसे
रोबोट के मन में कोई अवांछित काम करने का खयाल न आए। मसलन,
यदि किसी रोबोट को
घर की साफ-सफाई
के लिए प्रोग्राम किया गया है और सफाई करने पर उसे कोई पुरस्कार दिया जाता है, तो
कहीं ऐसा न हो कि पुरस्कार हासिल करने की खातिर वह घर का कचरा साफ करने के बजाए उसे
इधर-उधर
छुपा दे। यानी एक ऐसे रोबोट की तलाश है, जो 'होशियार"
हो मगर ज्यादा 'होशियारी" न
दिखाए! ईमानदार
बना रहे।
सभ्यता
के विकास के बाद से मनुष्य ने ईमानदारी को एक आवश्यक गुण के रूप में स्थापित किया।
सामाजिक व्यवस्था के संचालन और रिश्तों के निर्वाह के लिए यह जरूरी भी था। आज भले
ही यह जुमला आम हो गया हो कि 'ईमानदारी का जमाना गया" मगर
संसार भर का लोक साहित्य और पौराणिक आख्यान इसी ईमानदारी व सत्यनिष्ठा के
महिमामंडन से भरे पड़े हैं और इनकी वांछनीयता को रेखांकित करते आए हैं। हमारे देश
में तो राजा हरीशचंद्र का नाम ही सत्यनिष्ठा और ईमानदारी का पर्याय है। एक
सत्यवादी की कथा मध्य-पूर्व में भी सुनाई जाती है। इसके
अनुसार, अली
नामक एक व्यक्ति था, जो कभी झूठ नहीं बोलता था। एक दिन राजा
ने उसे परखना चाहा। उसे विश्वास नहीं था कि कोई ऐसा भी आदमी हो सकता है, जो
कभी झूठ न बोले। जब अली ने राजा से कहा कि न तो उसने कभी झूठ बोला है और न ही कभी
बोलेगा, तो
राजा ने एक चाल चली। उसने एक दिन अली को बुलाया और उसके सामने घोड़े पर सवार होते
हुए कहा, 'जाकर
रानी साहिबा से कह दो कि हम शहर से बाहर जा रहे हैं और कल दोपहर को लौटेंगे।" अली
वहां से चला गया, तो राजा घोड़े से उतर गया और यह सोचकर मन ही मन खुश हुआ कि अब
अली अनजाने में ही सही, झूठ बोल देगा क्योंकि राजा तो कहीं जा
ही नहीं रहा था! मगर अली ने जाकर रानी से कहा, 'राजा साहब ने मुझसे कहा है कि मैं आपसे
कहूं कि वे शहर से बाहर जा रहे हैं और कल दोपहर को लौटेंगे।" रानी
ने पूछा, 'कब
निकले वो?" तो अली बोला, 'मैंने तो उन्हें बस घोड़े पर सवार होते
देखा। वे बोले कि वे जा रहे हैं लेकिन हो सकता है कि वे न गए हों। वे बोले कि वे
कल लौटेंगे मगर हो सकता है कि वे कल न लौटें।" जब राजा को यह पता चला, तो
वे भी मान गए कि यह आदमी केवल वही सच बोलेगा, जो इसने अपनी आंखों से देखा है।
अनगिनत
लोक कथाओं में झूठ और बेईमानी पर सत्य व ईमानदारी की जीत का बखान किया गया है। साथ
ही, ईमानदारी
व सत्यनिष्ठा के प्रतीक देवी-देवताओं को पूजा भी गया है। रोम में
सैंकस को ईमानदारी, शपथ व विश्वास के देवता के रूप में
पूजा जाता था। ऐसी आस्था थी कि वे विवाह, व्यापार, कानून आदि संबंधी शपथ की रखवाली करते
हैं। यानी शपथ पर अमल को सुनिश्चित करते हैं। साथ ही, बेईमानी की सजा देते हैं। क्यूरिनल
पहाड़ी पर स्थित उनके मंदिर में छत नहीं बनाई गई थी, ताकि लोग वहां आकर खुले आकाश के नीचे
शपथ ले सकें। इसी प्रकार फाइडीस को विश्वास की देवी माना जाता था। रोमन सीनेट
द्वारा दूसरे देशों के साथ की जाने वाली संधियों को फाइडीस के मंदिर में ही रखा
जाता था।
एक
भारतीय लोककथा में एक राजा एक अन्य ईमानदार व्यक्ति की परीक्षा लेता है। इस गरीब
मजदूर के पास अपनी बेटी की शादी कराने के लिए पैसे नहीं थे। शुभचिंतकों की सलाह
मानकर वह राजा के पास मदद मांगने के लिए गया। राजा ने उसे आश्वासन दिया कि तुम
शादी की तैयारियां करो, शादी से 10 दिन पहले मेरे पास आकर पैसे ले जाना।
मजदूर खुशी-खुशी गया और बेटी की शादी की तैयारियां करने लगा। मगर शादी से
10 दिन
पहले जब वह राजा के पास पैसे लेने गया, तो राजा ने उसे फूटी कौड़ी देने से भी
इनकार कर दिया। मजदूर रोता हुए घर जाने लगा। रास्ते में डाकुओं ने उसे रोक लिया और
उसके पास जो थोड़ा-बहुत पैसा था, उसे भी लूट लिया। मजदूर ने उनसे गुहार
की कि वे यह पैसा छोड़ दें, वह बहुत मुसीबत में है। उसने बेटी की
शादी और राजा की वादाखिलाफी की बात बताई, तो डाकुओं के सरदार ने कहा, 'हम
भले ही डाकू हैं पर हम भी इंसान हैं। तुम्हारी बेटी की शादी के लिए पैसे हम देंगे।" लेकिन
मजदूर ने यह कहकर डाकुओं से पैसे लेने से इनकार कर दिया कि वह अपराध की कमाई नहीं
लेगा। इतना सुनते ही डाकुओं के सरदार ने अपने चेहरे पर लिपटा कपड़ा हटा दिया। दरअसल
वह राजा ही था, जो डाकू का वेश धरकर यह परखना चाहता था कि जिसे वह धन दे रहा
है, वह
वास्तव में इसके लिए पात्र है या नहीं। फिण उसने मजदूर को धन देकर धूम-धाम
से उसकी बेटी की शादी कराई।
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