Tuesday 14 February 2012

दुआ है कि आपकी तलाश कभी पूरी न हो!


  मनोज कुमार की फिल्म 'उपकार" में मातृभूमि का गगनभेदी स्तुतिगान 'मेरे देश की धरती सोना उगले..." तो आज भी खूब गूँजता है, लेकिन इसी फिल्म में एक बड़ा शांत-शीतल-सा गीत भी है, जिसको अब उतना याद नहीं किया जाता: 'हर खुशी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे..." युद्ध पर गए फौजी नायक की मंगेतर उसके कुशलक्षेम के लिए दुआ कर रही है और मानो हर भली मनोकामना उस पर बरसा देना चाहती है : 'तेरी रातों पे रातों का साया हो", 'रोशनी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे", 'जिंदगी हो वहाँ तू जहाँ भी रहे" आदि। अपनों के प्रति स्नेह, लगाव, प्रेम, रक्षा की भावना तो लगभग सभी प्राणियों में पाई जाती है, लेकिन अपनों के लिए दुआ करने, आशीर्वाद देने, मंगलकामना-शुभेच्छा व्यक्त करने की भावना केवल हम इंसानों में ही पाई जाती है। इसी का दूसरा पहलू भी है और वह यह कि दूसरों को बद्दुआ या श्राप देने की प्रवृत्ति भी मनुष्यों में ही होती है। दुआएँ हों या बद्दुआएँ, ये शब्दों से परे, हमारी आत्मा की गहराइयों से निकली भाव-ऊर्जा हैं, जो सामने वाले की आत्मा को अमृत या विष से सींचती है। हाँ, शब्दों के पाश से ये मुक्त नहीं हैं, बल्कि अक्सर बेमन से या औपचारिकतावश दिए जाने पर ये शब्दों तक ही रह जाती हैं।
 शब्दों के फेर के चलते कभी-कभी दुआ-बद्दुआ जरा मजेदार रूप भी ले लेती हैं। एक प्राचीन चीनी 'बद्दुआ" का जिक्र विश्व के कई कोनों में अक्सर किया जाता है : 'दिलचस्प दौर में जीओ" अब यह दिलचस्प दौर क्या है और इसमें जीना बद्दुआ कैसे हुआ? क्या किसी के जीवनकाल के दिलचस्प होने की कामना करना दुआ नहीं हुई? इसे यूँ समझाया जाता है कि जब सब कुछ अच्छा चल रहा हो तो वह दौर कितना ही सुखद लगे, होगा तो उबाऊ ही। इसके विपरीत उथल-पुथल भरा दौर परेशान कर देता है, लेकिन शब्दों की जादूगरी उसे 'दिलचस्प" कहने की अनुमति दे देती है। बताया जाता है कि यह चीनी बद्दुआओं की तिकड़ी की पहली बद्दुआ है। बाकी दो इस प्रकार हैं : 'तुम शक्तिशाली लोगों/सरकार की नजर में जाओ" तथा 'तुम्हें वह मिल जाए, जिसकी तुम्हें तलाश है" अब शक्तिशाली लोगों या सरकार का खौफ दिखाना तो समझ में आता है। यह भी पता चलता है कि यह खौफ देश और काल की सीमाओं से परे है। उत्सुकता जगाती है तीसरी 'बद्दुआ" जिसकी तलाश है, उसका मिल जाना बुरा कैसे हुआ? यहाँ बहुत गहरी बात छुपी हुई है। क्या यह सच नहीं है कि हमारा जीवन एक लक्ष्य से दूसरे लक्ष्य की ओर जाने का नाम है? क्या यह भी सच नहीं है कि जीवन चलायमान ही इसलिए है कि इसमें लक्ष्य हैं, लक्ष्यों की तलाश है? ऐसे में यदि यह तलाश खत्म हो जाए, पाने के लिए और कोई लक्ष्य ही रहे तो कैसा होगा जीवन? क्या यह मृत्यु से भी बदतर नहीं होगा? तो किसी की तलाश पूरी होने की कामना करना हुई, उसके प्रति बद्दुआ? मानना पड़ेगा, चीनी लोग श्राप भी आशीर्वाद के रैपर में लपेटकर देने में माहिर थे! अब यह भी जान लीजिए कि इन तीन बद्दुआओं का चीनी मूल संदेह के घेरे में है। जानकार कहते हैं कि दरअसल इनकी ईजाद योरप में हुई और वह भी बहुत प्राचीन काल में नहीं, बल्कि संभवत: उन्नीसवीं  सदी में!
 खैर, आशीर्वाद या शुभकामनाओं का संसार विविध है, रोचक भी और हृदयस्पर्शी भी। आयरलैंड में परंपरागत रूप से कई प्रकार की शुभेच्छाएँ कुछ काव्यात्मक अंदाज में व्यक्त की जाती रही हैं। गौर कीजिए इनमें से एक पर : 'तुम्हारे हाथों को करने के लिए हमेशा काम हो, तुम्हारी जेब में सदा हों सिक्के एक या दो/तुम्हारी खिड़की पर सूरज प्रकाशमान रहे, हर बारिश के बाद इंद्रधनुष का आना तय रहे/एक दोस्त का हाथ सदा तुम्हारे निकट रहे, ईश्वर तुम्हारा हृदय खुशियों से भर दे।" एक और मुलाहिजा फरमाएँ : 'आनंद और शांति तुम्हें घेरे रहें, संतुष्टि तुम्हारे किवाड़ पर कुंडी लगाए/खुशियाँ आज तुम्हारे साथ हों और सदा तुम्हें आशीष दें।"
 भारत में तो बड़ों द्वारा दिए जाने वाले आशीर्वादों की लंबी श्रंखला  है। सबसे आम है 'जीते रहो" या 'आयुष्मान भव:" इंसान किसी की लंबी उम्र से बढ़कर उसके लिए क्या दुआ कर सकता है? अन्य तरीके से इसे यूँ भी कहा जाता है कि 'तुमको मेरी उम्र लग जाए।" एक और पुरातनकालीन आशीर्वाद है, 'दूधो नहाओ, पूतो फलो।" अब यहाँ जरा पेंच है। किसी को दूध में नहलाने का क्या औचित्य? शायद समृद्धि के प्रतीक के तौर पर इस उपमा का प्रयोग किया जाता हो। कोई समृद्ध व्यक्ति ही तो दूध को पानी की तरह बहाकर नहाने की विलासिता कर सकता है! हाँ, 'पूतो फलो" वाली बात पुत्र के प्राचीनकालीन आग्रह से उपजी है। प्रकृति हमें बेटा या बेटी देने में कोई पूर्वाग्रह नहीं बरतती, लेकिन हम किसी के प्रति शुभेच्छा जताने में जरूर आशीर्वाद का कोना बेटे के लिए आरक्षित कर देते हैं। 'समृद्ध होओ और बेटे पैदा करो" की मंगलकामना के पीछे यह धारणा भी रही होगी कि आपके द्वारा अर्जित समृद्धि को विरासत में संभालने के लिए पुरुष वारिस हो। गोया आपकी समृद्धि से आपकी बेटी का क्या लेना-देना!
 अब सवाल उठता है कि क्या दुआएँ या बद्दुआएँ सचमुच असरकारी होती हैं! आधुनिक युग में एक बड़ा तबका इसे अंधविश्वास या फिर मन के वहम की उपज मानता है। इसके विपरीत ऐसे लोग भी कम नहीं हैं, जिनका इनमें विश्वास है। चलिए, पुरातनपंथी नजरिए से देखें तो भी हम इतना तो महसूस करेंगे कि जब किसी के प्रति मन में भली भावना उमड़ती है और उसके समक्ष प्रकट होती है तो निश्चित ही सकारात्मकता की एक तरंग उसकी आत्मा को शीतल स्पर्श दे जाती है। 'कोई है जो मेरा भला चाहता है" यह ख्याल ही व्यक्ति को आत्मिक आनंद दे जाता है। ऐसा नहीं है कि मंगलकामना करने वाला दुआ करके खाली हो जाता है। वह स्वयं भी एक भले-भले-से एहसास से खुद को भरा हुआ पाता है। तो एक अर्थ में दुआ/ मंगलकामना/ आशीर्वाद कारगर तो होते हैं। इसी का दूसरा पहलू यह है कि किसी का बुरा चाहने के विचार का प्रकटीकरण सामने वाले का मन तो खराब करता ही है, स्वयं बद्दुआ देने वाला भी नकारात्मकता की अपनी आग में झुलसने से बच नहीं पाता। भौतिकशास्त्री उनके क्षेत्र में अतिक्रमण को क्षमा करें, लेकिन कहना पड़ेगा कि न्यूटन का तीसरा सिद्धांत दुआओं और बद्दुआओं पर भी लागू होता है। तो नकारात्मकता को 'ना" कहिए और सबके लिए मन में दुआएँ पालिए। आपकी ओर से चली शुभेच्छा की हर तरंग आपकी ओर एक और तरंग लेकर आएगी, शुभेच्छाओं भरी...