Sunday 24 December 2017

दोधारी तलवार से कम नहीं छुरी!

छुरी खतरे, डर व दर्द से रक्षा करती है, तो अपशकुन होने, दोस्ती टूटने व किसी खूनी के जन्म की चेतावनी भी देती है...!
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कभी-कभी हम रोजमर्रा के जीवन में जो वस्तुएं इस्तेमाल करते हैं, उनके अतीत व उन्हें लेकर लोक संस्कृति में व्याप्त धारणाओं की ओर हमारा ध्यान नहीं रहता। अब छुरी को ही लें। रसोई में इस्तेमाल होने वाली साधारण-सी छुरी में भी इंसान ने ऐसी विलक्षण शक्तियां देखीं, कि इसे लेकर कल्पनाओं का विस्तृत संसार रच डाला। मसलन, क्या आप जानते हैं कि पश्चिमी देशों में ऐसा माना जाता रहा है कि मुख्य द्वार में एक छुरी घोंपकर रखने से घर सुरक्षित रहता है? यही नहीं, शिशुओं के पालने के सिरहाने भी एक छरी घोंपी जाती थी, ताकि शिशु की हर खतरे से रक्षा हो सके! इसी प्रकार एक मान्यता यह थी कि प्रसव के दौरान महिला के बिस्तर के नीचे एक छुरी रख देने से उसकी प्रसव पीड़ा कम हो जाती है। यूनान के लोग मानते रहे हैं कि अगर आप काले हैंडल वाली छुरी अपने तकिए के नीचे रखकर सोएंगे, तो आपको बुरे सपने नहीं आएंगे। कुल मिलाकर, छुरी में खतरों से, दर्द से व डर से रक्षा करने की ताकत देखी गई! तार्किक मन को ये बातें हास्यास्पद लग सकती हैं मगर कल्पनाशील मस्तिष्क ऐसे ही तो काम करते हैं।
छुरी किसी दोधारी तलवार से कम नहीं होती। इसकी धार अगर अप्रिय, अनचाहे को काट सकती है, तो प्रिय व चहीते को भी क्षति पहुंचा सकती है। यही ध्यान में रखते हुए कई संस्कृतियों में आगाह किया जाता है कि अपने किसी मित्र को कभी तोहफे में छुरी नहीं देना चाहिए। अगर दी, तो दोस्ती का बंधन 'कट" सकता है, यानी दोस्ती टूट सकती है। अब यदि शंका है, तो समाधान भी है। तो दोस्ती टूटने की शंका का समाधान यह निकाला गया कि जब कोई दोस्त आपको छुरी भेंट करे, तब आप उसे प्रतीकात्मक भुगतान के तौर पर एक सिक्का दे दें। जब भुगतान चुकाया, तो फिर यह तोहफा थोड़े ही हुआ! अब यह तो अच्छा नहीं लगता कि आप किसी को कोई तोहफा भी दें और यह भी उम्मीद करें कि वह आपको इसकी कीमत चुकाएगा। तो इसके आगे रास्ता यह निकाला गया कि तोहफा देने वाला ही छुरी के ऊपर एक सिक्का चिपकाकर भेंट करे। प्राप्तकर्ता बस, वह सिक्का निकाले और तोहफा देने वाले को प्रतीकात्मक भुगतान कर दे।
एक सलाह यह भी दी जाती आई है कि दो छुरियों को कभी भी साथ में, एक-दूसरे की विपरीत दिशा में आड़ी नहीं रखना चाहिए। ऐसा करने से आपका किसी से झगड़ा हो सकता है। कई नाविक समुद्री सफर के दौरान छुरी का नाम लेना अपशकुन मानते हैं। वहीं कुछ देशों में छुरी का जमीन पर गिरना अपशकुन माना जाता है, तो कुछ देशों में इस बात का संकेत कि आपके घर कोई मेहमान आने वाला है। आइसलैंड में यदि मछली साफ करते वक्त किसी मछुआरे के हाथ से छुरी गिर जाए और उसकी नोक समुद्र की ओर हो जाए, तो वह खुश हो जाता है। यह इस बात का संकेत माना जाता है कि अगली बार जब वह समुद्र में जाएगा, तो उसे बड़ी संख्या में मछलियां मिलेंगीं। उधर रूस में कहते हैं कि छुरी की तेज धार ऊपर की ओर करके रखने से कहीं कोई हत्यारा जन्म लेता है।

कुछ देशों में छुरी के स्वामित्व को लेकर भी बड़ी दिलचस्प बात कही जाती है। वह यह कि कोई सही मायने में किसी छुरी की मालिक तभी बनता है जब छुरी उसका खून पिए! यानी छुरी ने आपका हाथ काटकर आपका खून बहाया, तब वह वास्तव में आपकी हुई। इसके बाद यह आपका कर्तव्य बनता है कि आप किसी और को, 'आपकी" हो चुकी यह छुरी इस्तेमाल न करने दें।

Sunday 10 December 2017

आफत की नन्ही पुड़िया

क्या नन्ही-सी गिलहरी इतने बड़े कारनामे कर सकती है कि सूरज को ही निगल ले या विभिन्ना लोकों को आपस में लड़वा दे? विश्व की कुछ पौराणिक मान्यताएं तो ऐसा ही कहती हैं...
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अमेरिका के एक आदिवासी समुदाय में ऐसा माना जाता आया है कि सूर्य ग्रहण के लिए काली गिलहरी जिम्मेदार है। उस इलाके में पाई जाने वाली यह काली गिलहरी अपनी शरारतों के लिए ख्यात, या कहें कुख्यात है। अपने शरारती स्वभाव के चलते ही यह समय-समय पर सूर्य को निगलने की कोशिश करती है और इसी से सूर्य ग्रहण होता है। जाहिर है, आदि काल में लोगों के लिए सूर्य का यूं अंधकार की ओट में चले जाना भयाक्रांत करने वाला अनुभव था। तो इस 'आपदा" को दूर करने के प्रयास करना भी लाजिमी था। ये आदिवासी मानते थे कि यदि गिलहरी को डरा दिया जाए, तो वह सूर्य को खाने का प्रयास करना छोड़ सकती है। तो जैसे ही सूर्य ग्रहण शुरू होता और किसी की उस पर निगाह पड़ती, चारों ओर मुनादी कर दी जाती कि काली गिलहरी सूर्य को निगल रही है। बस, सारे लोग अपने-अपने घर से निकल आते और गिलहरी को डराने के लिए ज्यादा से ज्यादा शोर मचाने में जुट जाते। बर्तन-भांडे, घंटे-घड़ियाल बजाए जाते। साथ ही चीखने-चिल्लाने के स्वर भी इनमें मिला दिए जाते। अक्सर इनके पालतू श्वान भी इस शोरगुल में अपना सुर मिला देते। फिर, जैसे-जैसे ग्रहण समाप्त होने लगता, लोग खुशी के मारे झूम उठते। फिर से मुनादी होती कि काली गिलहरी डर गई है। ग्रहण समाप्त होते ही चारों ओर खुशियां फैल जातीं। लोगों को यकीन हो जाता कि उनके शोर-गुल के कारण ही काली गिलहरी ने डर के मारे सूरज को खाने का इरादा त्याग दिया।
यूं गिलहरी को बड़ा मासूम व निरीह प्राणी माना जाता है। ऐसे में यह दिलचस्प है कि कहीं इसे इतनी बड़ी 'शरारत" के लिए जिम्मेदार ठहराया जाए। एक अन्य अमेरिकी समुदाय में लाल गिलहरी की ख्याति भी बदमिजाजी के लिए है। कहा जाता है कि बहुत पहले यह गिलहरी भालू जितनी बड़ी हुआ करती थी और किसी पर भी हमला बोल दिया करती थी। तब ईश्वर ने उसका आकार छोटा कर दिया, ताकि वह दूसरों को नुकसान न पहुंचा सके। मगर ईश्वर उसका स्वभाव बदलना भूल गए। इसीलिए आकार छोटा होने के बावजूद लाल गिलहरी की बदमिजाजी नहीं गई। अब चूंकि वह किसी को शारीरिक नुकसान तो पहुंचा नहीं सकती, सो यूं ही चिल्ला-पुकार करती फिरती है। यही नहीं, वह विभिन्ना प्राणियों के कान भरकर उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ भड़काती है, ताकि वे आपस में लड़ मरें!
स्कैंडिनेवियाई देशों की पौराणिक मान्यताओं में रैटाटॉस्कर नामक गिलहरी का जिक्र आता है। यह उस महावृक्ष पर रहती है, जो नौ लोकों को जोड़ता है। रहती ही नहीं है, यह वृक्ष के सबसे निचले भाग, यानी सबसे निचले लोक से लेकर सबसे ऊंचे भाग, यानी सबसे ऊंचे लोक तक आती-जाती है व संदेशवाहक का काम करती है। हालांकि यहां भी अक्सर वह शरारत पर उतर आती है और एक से दूसरे लोक को भेजे जाने वाले संदेशों में अपनी ओर से मिर्च-मसाला मिला देती है, जिससे लोकों के बीच ठन जाती है!

पश्चिमी देशों में गिलहरी के सपनों को लेकर भी दिलचस्प धारणाएं चली आई हैं। कोई कहता है कि सपने में गिलहरी को देखने का मतलब है कि आपको व्यक्तिगत संबंधों में प्रेम का और व्यवसाय में मुनाफे का अभाव है। वहीं कोई कहता है कि अगर सपने में आप गिलहरी को भोजन इकट्ठा करते हुए देखें, तो इसका मतलब है कि आपको धनलाभ होने वाला है। यदि सपने में आप गिलहरी को खाना खिला रहे हैं, तो इसका मतलब हुआ कि आपके पास धन-धान्य की कमी नहीं है। यानी बहुत कुछ कहती है गिलहरी...!

Saturday 25 November 2017

पेड़ के तनों में किसकी अनंत तलाश?

आखिर पेड़ों पर अपनी चोंच पटक-पटककर कठफोड़वा क्या तलाशता रहता है? अपने लिए भोजन या भोजन की तलाश में निकले अपने बच्चे...?
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यूं विभिन्ना पक्षियों को हम उनकी आवाज से पहचानते हैं। कहीं चीं-चीं, तो कहीं कांव-कांव, कहीं कूऽऽ, तो कहीं सीटी जैसी कोई आवाज।...। मगर शायद एक ही पक्षी है, जिसकी अपनी आवाज के बजाए उसकी कारगुजारी की आवाज ही उसकी पहचान बन गई है। आसपास लगातार ठक-ठक-ठक की आवाज आ रही हो, तो हम समझ जाते हैं कि कठफोड़वा किसी पेड़ पर सक्रिय है। लकड़ी पर अपनी चोंच से वार करने की उसकी यह क्रिया उसे पक्षी जगत में विलक्षण बनाती है। यह पेड़ों के तने व शाखाओं पर मौजूद कीड़ों को खाता है और तने को कुरेद-कुरेदकर, उसमें कोटर बनाकर अपना आशियाना बसाता है।
वैज्ञानिकों ने गणना कर बताया है कि कठफोड़वा 24 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से अपना सिर पेड़ के तने में दे मारता है, वह भी एक-एक मिनट में सौ-सौ बार तक! अगर उसकी जगह कोई मनुष्य हो, तो पहली बार सिर दे मारने के बाद ही अस्पताल पहुंच जाए मगर कठफोड़वे के शरीर की बनावट उसका बाल भी बांका नहीं होने देती। ऐसे में इस अनोखे पंछी को लेकर विस्मय होना स्वाभाविक है।
अमेरिका के मूल निवासियों में कठफोड़वे की उत्पत्ति को लेकर रोचक दंतकथाएं सुनाई जाती हैं। इनमें से एक के अनुसार, एक बार परमात्मा धरती पर विचरण करने आए और आम इंसान की तरह लोगों से मिलने लगे। एक दिन उन्होंने एक कंजूस महिला का द्वार खटखटाया और कहा, 'मैं कई दिनों से भूखा हूं। क्या आप मुझे खाने को कुछ देंगीं?" महिला ने अनमने ढंग से उसे भीतर बुलाया और थोड़ा-सा आटा अपनी भट्टी में डालते हुए बोली, 'जब यह रोटी पक जाए, तो तुम इसे खा सकते हो।" मगर जब रोटी पकी, तो महिला को लगा कि यह तो बहुत बड़ी बन गई, यह इसे क्यों खिलाऊं? इसके लिए मैं और छोटी रोटी बनाती हूं। मगर इस बार रोटी और भी बड़ी बनी। यह सिलसिला चलता रहा। दरअसल परमात्मा अपनी शक्तियों से हर बार भट्टी में रोटी को पहले से बड़ा बनाते जा रहे थे। उधर महिला ने आखिरकार अपने अजनबी मेहमान से आकर कह दिया कि मेरे पास तुम्हें खिलाने के लिए कुछ नहीं है, जंगल में जाकर तलाश लो, शायद पेड़ों के तनों में तुम्हें कुछ खाने को मिल जाए। यह सुनकर परमात्मा कुपित हो गए। उन्होंने अपना वास्तविक रूप महिला को दिखाया और उसे श्राप दिया कि अब तुम जीवन भर जंगलों में भटकोगी और पेड़ों के तनों में ही खाना तलाशोगी। अगले ही क्षण वह कठफोड़वा बन गई।
एक अन्य अमेरिकी दंतकथा कहती है कि बहुत पहले रेगिस्तान में एक नशीला पौधा उगता था। उस पर उगने वाली गांठनुमा आकृति को खाने से तिलस्मी सपने आते थे, जिसमें देवता आकर मनुष्यों से बातें करते थे और बताते थे कि भविष्य में क्या होने वाला है। मगर इन्हें खाने की अनुमति केवल ओझाओं को थी। एक बार एक लड़के ने चुपके से यह वर्जित गांठ खा ली। उसे खाते ही उसने खुद को एक अनूठे स्वप्नलोक में पाया, जहां हवा में रंगों कर समंदर तैर रहा था और देवताओं जैसी दिखने वाली आकृतियां चल-फिर रही थीं। फिर वह 'सो" गया। अगले दिन जब वह जागा, तो अपने अनुभव से रोमांचित था। उसने गांव में अपने दोस्तों को यह बात बताई, तो दोस्त भी जादुई गांठ को आजमाने जा पहुंचे। देखते ही देखते गांव के सभी लोग इस नशे में डूबने लगे। नतीजा यह हुआ कि वे अपना काम-धंधा ही नहीं, अपने नन्हे बच्चों तक को उपेक्षित करने लगे। वे दिन भर नशे में पड़े रहते और बच्चे खाने की तलाश में इधर-उधर भटकते रहते।

आखिर मानीटोउ देवता को बच्चों पर दया आ गई। उन्होंने बच्चों को भोजन दिया और उन्हें पेड़ों के खोखले तनों में छिपा दिया, जहां वे झुलसाती धूप और खतरनाक जानवरों से सुरक्षित रह सकते थे। जब गांववालों ने अपने बच्चों को गायब पाया, तो उन्हें ढूंढने निकल पड़े। तब मानीटोउ देवता उनके सामने प्रकट हुए और कहा कि मैंने तुम्हारे बच्चों को पेड़ों के तनों में छिपा दिया है। लोगों ने पूछा, हमें बच्चे वापस कैसे मिलेंगे? तो देवता बोले, मैं तुम लोगों को पक्षी बना देता हूं, तुम एक-एक पेड़ पर जाकर उसके तने को ठोक-ठोककर अपने बच्चे तलाश लो। बस, वे सारे लोग कठफोड़वे बन गए और आज भी अपने खोए हुए बच्चों की तलाश में पेड़ों पर ठक-ठक करते रहते हैं।

Sunday 5 November 2017

पुण्य के बाजार में पाप की आउटसोर्सिंग!

क्या पाप करने के बाद अपनी आत्मा की मुक्ति का सौदा किया जा सकता है? अपने पापों की सजा से बचने के लिए क्या इन्हें किसी और के सिर हस्तांतरित करना संभव है? इंसान ने इसके भी रास्ते तलाश किए हैं और उन पर चला है।
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पुरानी फिल्मों में एक दृश्य बहुत आम हुआ करता था। कोई अमीरजादा कहीं खून कर आता और फिर वह या उसका पिता किसी गरीब, मजबूर के आगे रुपयों का लालच देकर उसे यह खून अपने सिर लेने के लिए तैयार कर लेता। गरीब पुलिस/ अदालत के सामने खुद को दोषी बता देता और जेल चला जाता। कहानी बड़ी फिल्मी होती। मगर ऐसे किस्से यदा-कदा हकीकत में भी सामने आते रहे हैं। यह तो हुई अपराध की सजा से बच निकलने के लिए कानून की आंखों में धूल झोंकने की बात। लेकिन क्या किसी पाप की सजा से बचने के लिए ऐसा ही बलि का बकरा आगे कर साक्षात ईश्वर को धोखा दिया जा सकता है? बात सुनने में अटपटी लग सकती है लेकिन इंसानी दिमाग की खुराफातों की कोई सीमा नहीं।
पाप और पुण्य की अवधारणा हर समाज-संस्कृति में रहती आई है। मृत्यु होने पर गुनाहों की सजा का सिद्धांत इंसान सदा मानता आया है। वह यह भी जानता आया है कि दुनिया में ऐसा कोई नहीं जिसने कभी कोई पाप न किया हो, तो भला वह कैसे अपवाद हो सकता है! इसलिए मृत्यु उपरांत अपने पापों का अंजाम भुगतने का भय उस पर व्याप्त रहा है। इसी अंजाम से बचने की जुगत में उसने पाप मुक्ति की अनूठी तरकीब निकाल ली। वह यह कि कुछ सिक्कों के बदले में अपने पाप का ठीकरा किसी गरीब के सिर फोड़ दिया जाए और 'पापमुक्त" का लेबल लगवाकर परलोक रवाना हुआ जाए! आज की कॉर्पोरेट भाषा में कहें, तो खुद पाप कर उसके अंजाम की 'आउटसोर्सिंग" कर दी जाए। गोया पाप भी फोन नंबर की तर्ज पर पोर्ट होकर एक आत्मा छोड़ दूसरी आत्मा से नत्थी हो जाए!
ब्रिटेन के ग्रामीण इलाकों में लंबे समय तक एक प्रथा प्रचलित थी, जिसे 'सिन ईटिंग" यानी पाप भक्षण कहा जाता था। इसमें होता यह था कि घर में किसी की मृत्यु होने पर परिजन उसके शव पर कुछ देर के लिए ब्रेड का टुकड़ा रख देते या उसे शव के ऊपर से गुजारते। उनका विश्वास था कि ऐसा करने से दिवंगत के सारे पाप ब्रेड सोख लेती है। फिर किसी पेशेवर पाप भक्षक को बुलाया जाता, जो यह ब्रेड खा लेता। इसके साथ उसे कुछ मदिरा भी पिला दी जाती। दिवंगत के पाप सोख चुकी ब्रेड खाने से उसके पाप उस पेशेवर पाप भक्षक में स्थानांतरित हो जाते। कभी-कभी पाप भक्षक अंत्येष्टि के समय बाकायदा घोषणा करता कि उसने दिवंगत के पाप अपने ऊपर ले लिए हैं और दिवंगत आत्मा पाप के बोझ से मुक्त होकर परलोक के लिए रवाना हो सकती है। इस सबके बदले उस गरीब को चंद सिक्के दे दिए जाते। जाहिर है, इस पेशे में वे ही आते, जो नितांत निर्धन व निरुपाय होते। समाज उन्हें हिकारत से देखता, क्योंकि वे इतने-इतने पापों का बोझ जो लेकर जी रहे होते थे। उनकी बस्ती गांव के बाहर होती। उन्हें केवल पाप परोसने के लिए गांव में बुलाया जाता।
इंग्लैंड की यह प्रथा किस प्रकार शुरू हुई, इस बारे में ठीक-ठीक कुछ कह पाना मुश्किल है। वैसे यह माना जाता है कि पहले धनी वर्ग में किसी की मृत्यु होने पर गरीबों को बुलाकर भोजन कराया जाता और उनसे आग्रह किया जाता कि वे दिवंगत आत्मा की मुक्ति/ शांति के लिए प्रार्थना करें। यही रिवाज आगे चलकर पाप भक्षण प्रथा में बदल गया।

ऐसा भी नहीं है कि पाप के हस्तांतरण की ऐसी प्रथा केवल इंग्लैंड में ही रही हो। प्राचीन मेक्सिको में त्लेजलत्येतल नामक देवी को पाप मुक्ति की देवी कहा जाता था। ऐसा विश्वास था कि यदि अंतिम घड़ी में कोई इस देवी के समक्ष अपने सारे पापों का स्वीकार कर ले, तो देवी उसके पापों का भक्षण कर लेती हैं और उस व्यक्ति की आत्मा पाप के बोझ से मुक्त होकर परलोक सिधार सकती है। मिस्र व यूनान में भी इससे मिलती-जुलती प्रथा हुआ करती थी। इसराइल में एक खास पर्व पर एक बकरे के समक्ष पापों का स्वीकार किया जाता और फिर उसे पहाड़ से नीचे फेंककर बकरे व पाप दोनों से मुक्ति पा ली जाती थी...!

Sunday 15 October 2017

चाय के प्याले में टपका रेशम

नर्म, मुलायम रेशम का इतिहास गोपनीयता व षड़यंत्र के कई उतार-चढ़ावों से भरा हुआ है। जहां चीन ने इससे खूब कमाई की, वहीं एक समय रोमन साम्राज्य की अर्थव्यवस्था पर इसके कारण संकट के बादल मंडराने लगे थे।
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रेशम के मुलायम स्पर्श की मुरीद दुनिया सदियों से है। तमाम वस्त्रों के बीच इसका विशिष्ट स्थान रहता आया है। एक समय बहुत ही सीमित लोगों तक इसकी पहुंच थी। रेशम की जन्मस्थली चीन में इसके निर्माण के राज की रक्षा इस कदर की जाती थी कि सीमाओं पर देश से बाहर जा रहे लोगों की तलाशी ली जाती थी। यदि किसी के पास रेशम के कीड़े, कोये (ककून) आदि पाए जाते, तो उसे तत्काल मौत के घाट उतार दिया जाता था। बताते हैं कि इस प्रकार चीन ने लगभग 30 सदियों तक रेशम पर अपना एकाधिकार बनाए रखा था!
रेशम की खोज को लेकर चली आई चीनी कथा बड़ी मजेदार है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में चीनी सम्राट शुआनयुआन की पत्नी ली जू एक दिन शहतूत के पेड़ के नीचे बैठकर चाय पी रही थी कि अचानक उसके प्याले में कुछ जंगली कोये गिर गए। उसने कोये निकालने की कोशिश की, तो पाया कि उनमें से रेशे निकलते जा रहे हैं। इस प्रकार रेशम की खोज हुई। इस खोज के सम्मान में ली जू को लोगों ने रेशम की देवी का दर्जा दे डाला। आज भी चीन के हुझोऊ शहर में प्रति वर्ष अप्रैल में मनाए जाने वाले एक उत्सव में ली जू देवी की विशेष तौर पर पूजा की जाती है और रेशम की खोज करने के लिए उनका धन्यवाद दिया जाता है। चीनी लोगों को रेशम पर अपना एकाधिकार इस कदर प्यारा था कि लंबे समय तक उन्होंने इसे देश से बाहर ले जाने पर पाबंदी लगाए रखी। आखिरकार जब एक राजकुमारी दूसरे देश में ब्याही गई और उसने अपने प्रिय रेशमी परिधानों के बगैर ससुराल जाने से इनकार कर दिया, तब रेशम ने पहली बार देश की सरहद पार की। मगर इसके बाद भी सदियों तक इसे बनाने की विधि को गुप्त रखा गया।
खैर, रेशम ही नहीं, इसके उत्पादन की विधि भी अंतत: दूसरे देशों में फैली। यह जहां भी गया, पहले-पहल इसका उपयोग राजघरानों तक ही सीमित रहा। बताया जाता है कि एक बार रोमन सम्राट जूलियस सीजर रेशमी परिधान धारण कर एक नाटक देखने गए। उनके द्वारा पहना गया रेशमी कपड़ा इतना आकर्षक था कि लोग नाटक को भूलकर उनके कपड़ों को ही देखते रहे! एक समय ऐसा भी आया, जब रोम के रईसों में रेशम का चस्का इस कदर बढ़ा कि इससे साम्राज्य की अर्थव्यवस्था गड़बड़ाने का अंदेशा होने लगा। कारण यह कि बेहद महंगे दामों पर रेशम खरीदे जाने के चलते रोम के सोने के भंडार घटने लगे। तब संसद ने कभी अर्थव्यवस्था, तो कभी नैतिकता का हवाला देकर रेशम के उपभोग को हतोत्साहित करने का प्रयास किया। उधर चीन ने रेशम के व्यापार से जमकर कमाई की और इस व्यापार की ही गरज से 6 हजार मील लंबा रेशम मार्ग अस्तित्व में आया।
रेशम निर्माण की विधि जिस किसी के भी हाथ लगी, उसने इसे गुप्त रखने के भरसक प्रयास किए। इसके कारण छल-प्रपंच व षड़यंत्रों का लंबा दौर चला। माना जाता है कि आधुनिक तुर्की में रेशम निर्माण तब शुरू हुआ, जब सम्राट के कहने पर कुछ साधु अपनी बांस की खोखली लाठियों में रेशम के कीड़े के अंडे छुपाकर चीन से ले आए!

चीनी लोक साहित्य में रेशम से जुड़ी कहानियों की भरमार है। ऐसी ही एक कहानी में शहतूत के पेड़ के जन्म के बारे में बताया गया है। इसके अनुसार, एक आदमी अपनी बेटी तथा घोड़े के साथ रहता था। एक बार उसे काम के सिलसिले में दूर देश जाना पड़ा। कुछ दिन बाद उसकी बेटी को पिता की याद सताने लगी और उसने घोड़े से कह दिया, 'जाओ, जाकर मेरे पिताजी को ढूंढ लाओ। यदि तुम उन्हें ले आए, तो मैं तुमसे शादी कर लूंगी।" घोड़ा गया व अपने मालिक को खोज लाया। पिता को पाकर बेटी की खुशी का ठिकाना न रहा मगर वह घोड़े से किया गया वादा भूल गई। घोड़ा अनमना रहने लगा। उसके व्यवहार से मालिक को कुछ शक हुआ। उसने बेटी से पूछा कि क्या मेरी अनुपस्थिति में तुमने घोड़े से कोई बात की थी? बेटी ने शादी के वादे के बारे में बताया। इस पर पिता ने घोड़े को मार डाला ताकि बेटी को उससे ब्याह न करना पड़े। मगर एक दिन जब वह लड़की घर से बाहर निकली, तो घोड़े की आत्मा ने तिलस्मी लबादा ओढ़ाकर उसे एक कोया बना दिया, जिसमें से कुछ समय बाद शहतूत का पेड़ उग आया...

Sunday 8 October 2017

घर में कैसे घुसा चूहा?

चूहों को कहीं प्राण ऊर्जा चूसने वाला माना गया है, तो कहीं प्रसूताओं के प्राण बचाने वाला। इन्हें इंसाफ करने वाला भी बताया गया है...!
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प्रशांत महासागर स्थित सोलोमन द्वीपों में हाल ही मंे चूहे की एक नई प्रजाति सामने आई है। इसकी खासियत यह है कि यह चूहा ऊंचे पेड़ों पर रहता है और यह लगभग डेढ़ फुट लंबा होता है! हालांकि स्थानीय रहवासी लंबे समय से कहते आ रहे थे कि यहां ऐसे चूहे पाए जाते हैं मगर अब तक वैज्ञानिकों को इसका प्रमाण नहीं मिल पाया था। अब वह भी मिल गया है। स्थानीय लोग बताते हैं कि विका नामक यह चूहा अपने नुकीले दांतों से नारियल तक को बेध देता है!
चूहे आम तौर पर गंदगी और बीमारी के पर्याय माने गए हैं, जिस कारण ये वितृष्णा जगाते हैं। इसके चलते इन्हें लेकर तरह-तरह की कहानियां भी गढ़ी गई हैं। इनमें से कुछ में तो इन्हें बड़े ही खौफनाक प्राणी के रूप में चित्रित किया गया है। मसलन, ब्राजील में कोलो कोलो नामक डरावने चूहे के बारे में बताया जाता है। कहा जाता है कि एक सांप द्वारा दिए गए अंडे को एक मुर्गे द्वारा सेने से जो प्राणी अस्तित्व में आया, वह कोलो कोलो था, जोकि चूहे जैसा ही था। लोग मानते हैं कि कोलो कोलो मनुष्यों के घरों में छुपकर रहता है। जब लोग सो रहे होते हैं, तब वह जाकर उनकी जीभ पर काटकर उनकी लार चूस लेता है। इसके साथ ही सो रहे व्यक्ति की प्राण ऊर्जा भी जाने लगती है और समय रहते स्थिति को संभाला नहीं गया, तो उसकी मृत्यु भी हो सकती है।
जर्मनी की एक लोककथा में कहा गया है कि एक क्रूर सामंत गरीबों पर खूब अत्याचार करता था। एक बार प्रांत में अकाल पड़ा। लोग भूख से तड़पने लगे। सामंत के भंडार अनाज से भरे थे लेकिन वह इसे गरीबों में बांटने को तैयार नहीं था। इसके बजाए, उसने गांव वालों को छलपूर्वक अपने एक खाली खलिहान में बुलाया, इस आश्वासन के साथ कि उन्हें अनाज दिया जाएगा। जब सारे ग्रामीण खलिहान में चले गए, तो उसने बाहर से दरवाजा बंद कर अपने खाली खलिहान को आग के हवाले कर दिया और चल पड़ा। लोगों की चीखें सुनकर वह बुदबुदाया, 'चूहे चीं-चीं कर रहे हैं!" इसके बाद जैसे ही वह घर पहुंचा, उस पर चूहों की फौज ने हमला बोल दिया। वह भागा, मगर चूहे उसे नोच-नोचकर खा गए। इस प्रकार चूहे यहां इंसाफ करने वाले के रूप में दर्शाए गए हैं।
चूहों संबंधित कुछ अंधविश्वास बेहद प्रचलित रहे हैं। मसलन यह कि यदि चूहे किसी समुद्री जहाज से बाहर कूद रहे हैं, तो इसका मतलब जहाज डूबने वाला है। इसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि यदि चूहे अकारण घर से बाहर भागने लगें, तो यह किसी आसन्ना अनिष्ट का संकेत हो सकता है। मजेदार बात यह है कि कहीं-कहीं चूहों का घर में आना भी शुभ माना जाता है। कहते हैं कि यह इस बात का संकेत है कि उस घर में दौलत आने वाली है! चूहों संबंधी सपनों को लेकर भी मजेदार धारणाएं रही हैं। मसलन, यह कि यदि आप सपने में चूहे देखते हैं, तो आपके खूब सारे दुश्मन होंगे!
मिस्र में प्राचीन काल में लोग चूहों को बुद्धिमान प्राणी मानते थे। कारण यह कि ये कहीं भी पहुंचकर भोजन की तलाश कर ही लेते हैं। उधर प्राचीन रोम में सफेद चूहे का नजर आना अच्छा शगुन समझा जाता था।

सूदान की जनश्रुति में यह बताया गया है कि आखिर कैसे चूहे आकर इंसानों के घरों में रहने लगे। इसके अनुसार कई सदियों पहले प्रसव के दौरान महिलाओं की मृत्यु तय थी क्योंकि लोग प्रसव पीड़ा से तड़प रही स्त्री का पेट चीरकर शिशु को निकाल लेते थे। एक दिन एक चूहा गांव में आया। उसने जब यह प्रथा देखी, तो हैरत में पड़ गया। लोग एक प्रसूता का पेट चीरने को हुए, तो चूहे ने उन्हें रोक दिया और कहा, 'पेट मत चीरो, थोड़ा इंतजार करो। यह बच्चे को जन्म दे देगी।" थोड़ी देर में जब महिला ने प्राकृतिक रूप से बच्चे को जन्म दिया, तो स्वयं वह यह देखकर दंग रह गई कि बच्चा जनने के बाद भी वह जीवित बच गई है। तब मनुष्यों को यह ज्ञान हुआ कि बच्चे को जन्म देने के लिए मां का पेट चीरने की जरूरत नहीं होती। सारी कृतज्ञ महिलाओं ने चूहे को पुरस्कृत करना चाहा। तब चूहे ने कहा कि मुझे अपने घर में रहने दें और जो आप खाएं, वह खाने की मुझे भी अनुमति हो। बस, तभी से चूहा हमारे घरों में घुसा हुआ है!

Sunday 24 September 2017

कौन लाता है तूफान...?

समुद्री तूफानों की व्यापक विनाशक शक्ति देख आदि मानव इस निष्कर्ष पर पहुंचा इतने व्यापक स्तर पर कहर बरपाना किसी दैवी शक्ति के ही बस की बात हो सकती है।
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इन दिनों दुनिया के कई हिस्सों से समुद्री तूफानों की खबरें आ रही हैं। विराट महासागर से भयावह गति से आतीं हवाएं, आकाश की ओर लपकतीं समुद्री लहरें, घनघोर घटाओं का आक्रमण और निरंतर घंटों कहर बरपाती बरसात...। ये तूफान अच्छे-अच्छों को भयाक्रांत करने की क्षमता रखते हैं। प्रकृति की इस आपदा का राज जानने की जिज्ञासा होना स्वाभाविक था। यह जिज्ञासा आदि मानव को इसी निष्कर्ष पर ले गई कि इतने व्यापक स्तर पर कहर बरपाना किसी दैवी शक्ति के ही बस की बात हो सकती है। इसीलिए जहां-जहां समुद्री तूफान आते हैं, वहां-वहां आपको ये कथाएं सुनने को मिलेंगी कि कैसे ये किसी देवता या फिर राक्षस के क्रोध अथवा प्रतिशोध का नतीजा होते हैं।
मध्य-पूर्व की प्राचीन सभ्यताओं में तूफान लाने का श्रेय अनेक देवताओं को प्राप्त है, जैसे तेशब, हदाद आदि। न्यूजीलैंड के माओरी आदिवासी आरा तिओतियो को समुद्री तूफानों का देवता मानते हैं। वहीं दक्षिण अमेरिका के माया साम्राज्य में हुरकन देवता को तूफान लाने का श्रेय दिया गया है। माना जाता था कि हुरकन की एक टांग मनुष्यों की टांग जैसी और दूसरी सर्प के जैसी थी। जब मनुष्यों ने अपनी करतूतों से सारे देवी-देवताओं को कुपित कर दिया, तो हुरकन ने ऐसा तूफान लाया कि धरती पर जल प्रलय आ गया और सब कुछ नष्ट हो गया। दरअसल, अनेक संस्कृतियों में ऐसे जलप्रलय के किस्से आते हैं, जिसके बाद सृष्टि नए सिरे से बसी और ये जल प्रलय भीषण तूफानों के ही नतीजे बताए गए हैं।
यूनान में कहा जाता था कि सौ हाथ व पचास सिर वाले तीन राक्षस समुद्रों में तूफान लाते हैं। वहां की पौराणिक कथाओं में देवताओं के साथ इन राक्षसों के युद्ध का वर्णन भी किया जाता है, जिसमें इन्होंने एक बार में पहाड़ के आकार के सौ-सौ पत्थर देवताओं पर बरसाए थे! स्पष्ट है कि तूफानों की ताकत से अभिभूत मानव मस्तिष्क ने इनके कर्ता की कल्पना अतिरंजित बाहुबल से लैस हस्ती के रूप में की।
अमेरिका में प्रेसकाय द्वीप पर एक किंवदंति प्रचलित है। कहते हैं कि वहां पानी की सतह के नीचे एक समुद्री चुड़ैल रहती है, जो तूफान का आह्वान करती है। इसके पीछे उसका लक्ष्य होता है तूफान में डूबने वाले जहाजों के नाविकों को हासिल करना। अमेरिका की ही लकोटा जनजाति के लोग तूफानों को इया नामक राक्षस का कृत्य मानते हैं। इया की भूख कभी शांत नहीं होती, इसीलिए वह मनुष्य, पशु और यहां तक कि समूचे गांव निगल जाता है। दिलचस्प बात यह है कि इसके बावजूद ये लोग इया को बुरा नहीं मानते। उनके अनुसार, इया तो केवल वह कर्तव्य निभा रहा है, जो उसे सौंपा गया है।

जबर्दस्त तबाही मचाने वाले समुद्री तूफानों से प्रभावित होने वाले लोगों में इन्हें लेकर तरह-तरह के अंधविश्वास भी व्याप्त हैं। मसलन, यह कि तूफान आने से पहले घोड़े सामान्य से अधिक फुर्ती से दौड़ पड़ते हैं, भेड़िए रोने लगते हैं व खिले हुए फूल अपनी पंखुड़ियां समेटकर बंद हो जाते हैं। एक मजेदार सलाह यह दी जाती है कि यदि आप अपनी जेब में लाल प्याज लेकर चलते हैं, तो बड़े-से-बड़ा तूफान भी आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा! यानी एक अदद प्याज तूफानों पर भारी पड़ जाता है!

Sunday 10 September 2017

जब हरी गाय चरे नीली घास!

यदि आप जानना चाहते हैं कि मनुष्य की कल्पनाशक्ति कहां तक जा सकती है, तो जरा हिचकियों से मुक्ति के लिए सुझाए जाने वाले उपायों पर गौर करें।
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कभी-कभी कोई छोटी-सी चीज भी हमें इस कदर परेशान कर देती है कि इस परेशानी से छुटकारा पाने के लिए हम किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाते हैं। हिचकी आना यूं कोई बड़ी बात नहीं है मगर जब यह लंबे समय तक बनी रहती है, तो इंसान को अन्वेषक से लेकर निरा घनचक्कर भी बना डालती है।
आम तौर पर कहा जाता है कि यदि आपको हिचकी आ रही है, तो इसका मतलब यह है कि कहीं कोई आपको याद कर रहा है। ऐसी धारणा भारत में ही नहीं, एशिया व योरप के अनेक देशों में भी व्याप्त है। हिचकियों से छुटकारा पाने के लिए ऐसी सलाह दी जाती है कि आप जितने लोगों को जानते हैं, उनके नाम एक-एक कर लेना शुरू करें। जिस व्यक्ति का नाम लेते ही हिचकियां रुक जाएं, समझ जाएं कि वही आपको याद कर रहा था। मनोवैज्ञानिक इस युक्ति के पीछे बड़ा तार्किक कारण बताते हैं। वह यह कि जब आप याद करने वाले का कयास लगाकर लोगों के नाम लेने लगते हैं, तो आपका ध्यान हिचकियों से हट जाता है। खैर, ऐसा भी नहीं है कि हिचकी का मतलब हमेशा यही माना जाए कि कोई याद कर रहा है। हंगरी में माना जाता कि हिचकी तब आती है, जब कोई किसी से आपकी चुगली कर रहा होता है। वहीं ग्रीस में कहा जाता है कि जब कहीं आपकी शिकायत की जाती है, तो आपको हिचकी आती है!
यूं हिचकियां स्वास्थ्य के लिए कोई गंभीर खतरा पेश नहीं करतीं मगर जापान में ऐसी धारणा रही है कि यदि किसी को लगातार सौ हिचकियां आ जाएं, तो उसकी मृत्यु हो जाती है! कोलंबिया में भी माना जाता है कि यदि हिचकियां रोकने के सारे उपाय बेकार जाते हैं, तो फिर मृत्यु ही उस व्यक्ति को इनसे छुटकारा दिलाती है। हिचकियों के प्रकोप से बचने के लिए वहां के लोग सलाह देते हैं कि भोजन बेहद धीरे-धीरे ग्रहण किया जाए! परातनकालीन इंग्लैड में कहा जाता था कि हिचकियों के पीछे नन्हे प्रेतों की खुराफात होती है। इन प्रेतों के प्रकोप से मुक्ति पाने के उपाय भी बड़े दिलचस्प सुझाए जाते थे। मसलन, यह कि कुछ खास जड़ी-बूटियों का लेप तैयार कर उससे क्रॉस का निशान बनाया जाए और लातीनी भाषा में एक खास प्रार्थना गाई जाए। या फिर यह कि अपने दायें हाथ की तर्जनी पर थूकिए और अपने बायें जूते के सामने क्रॉस का निशान बनाकर अमुक प्रार्थना उल्टी बोलें...!
आयरलैंड में तो हिचकियों से मुक्ति पाने के लिए बड़ी ही अफलातूनी युक्ति सुझाई जाती है। कहा जाता है कि यदि आप नीली घास चरती एक हरी गाय की कल्पना करें, जो हिचकियां चली जाएंगीं! स्कॉटलैंड में मध्यकाल में लोग अपनी जीभ पर रूमाल बांधकर उसे बाहर की ओर खींचकर सौ तक गिनते थे। माना जाता था कि इससे हिचकियों से छुटकारा मिल जाएगा। नॉर्वे में हिचकियों की काट के लिए लोग ग्लास में छुरी रखकर पानी पीते हैं! योरप की रोमानी जनजाति के पास भी एक नुस्खा है। वह यह कि अपने गले में लाल धागा डालिए, उस धागे में एक चाबी बांधिए और फिर उस चाबी को अपने बायें कंधे पर डाल दीजिए।

इसके अलावा भी कई और अजीबोगरीब तरकीबों की सिफारिश हिचकियों को भगाने के लिए की जाती है। मसलन, शीर्षासन करना, कूदना, सीने पर बर्फ रखना, नाक/ कान बंद करके पानी पीना, चम्मच को पांच मिनिट तक ठंडा करके माथे पर रखना आदि। कुल मिलाकर, एक मामूली हिचकी मनुष्य की कल्पनाशक्ति को भरपूर उड़ान दे डालती है। 

Sunday 27 August 2017

स्वर्ग के राजा का तोहफा

सांड व बैल का मानव जीवन में खास स्थान रहा है। इसे पूजा भी गया है और इसके इर्द-गिर्द अनेक रोचक मिथक भी गढ़े गए हैं।
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एक चीनी लोककथा के मुताबिक, एक बार स्वर्ग के राजा ने देखा कि पृथ्वी पर लोग भूख से मर रहे हैं। राजा को उन पर दया आ गई। स्वर्ग में दो दिव्य बैल थे। राजा ने इन्हें पृथ्वी पर भेजा, पृथ्वीवासियों के लिए इस संदेश के साथ कि यदि तुम खूब मेहनत करोगे, तो हर तीन दिन में कम से कम एक बार तुम्हें भोजन अवश्य मिलेगा। स्वर्ग के बैल धरती पर आ गए मगर अपने राजा का संदेश सुनाने में गड़बड़ा गए। उन्होंने पृथ्वीवासियों से कहा कि यदि तुम खूब परिश्रम करोगे, तो हर दिन कम से कम तीन बार तुम्हें भोजन मिलेगा, ऐसी स्वर्ग के राजा की आज्ञा है! जब राजा को यह पता चला, तो वे बहुत नाराज हुए क्योंकि वे जानते थे कि धरतीवासी कितनी ही मेहनत क्यों न कर लें, इतनी मात्रा में भोजन का उत्पादन नहीं कर सकते और इस तरह तो स्वयं उन पर झूठा होने की तोहमत आ जाएगी! तब स्वर्ग के राजा ने अपने बैलों को आदेश दिया कि वे हमेशा के लिए धरती पर ही रहें और मनुष्यों के हल जोतें। बस, तभी से बैल धरती पर हैं और हल जोतकर मनुष्यों का पेट भरने में मदद कर रहे हैं।
बैल व सांड का मानव जीवन के साथ-साथ मिथकों व लोककथाओं में खास स्थान रहा है। आदि मानव द्वारा गुफाओं की दीवारों पर अंकित चित्रों में बैल देखे जा सकते हैं। यानी ये इन प्राचीनतम कलाकारों के जीवन का भी अभिन्ना हिस्सा थे। मेसोपोटामिया में कहा जाता है कि जब सम्राट गिलगमेश ने सौंदर्य व प्रेम की देवी इनाना के प्रणय निवेदन को ठुकरा दिया, तो कुपित देवताओं ने गिलगमेश को सबक सिखाने के लिए गुगलाना को धरती पर भेजा। गुगलाना को स्वर्ग के सांड के रूप में भी जाना जाता था और वह इनाना की बहन व मृत्युलोक की देवी का पति था। गुगलाना के चलने मात्र से धरती कांप उठी थी मगर गिलगमेश ने अपने साथी के साथ मिलकर उसका काम तमाम कर दिया।
एक यूनानी पौराणिक कथा के अनुसार क्रीत द्वीप के राजा माइनॉस ने समुद्र के देवता पोसायडन से आग्रह किया कि वे बलि के लिए एक सफेद सांड भेजकर यह संकेत दें कि सिंहासन पर उसी का हक है, उसके भाइयों का नहीं। पोसायडन ने माइनॉस के पास एक सुंदर, सफेद सांड भेजा मगर माइनॉस ने तय किया कि इतने शानदार सांड की बलि देना मूर्खता होगी। उसने इस दिव्य सांड को रख लिया और इसकी जगह एक साधारण सांड की बलि दे दी। अब पोसायडन का कुपित होना लाजिमी था। सो उन्होंने प्रेम की देवी एफ्रडाइटी के साथ मिलकर ऐसा जाल बुना कि माइनॉस की पत्नी उस सांड के प्रेम में पड़ गई और उसने आधे मानव व आधे सांड माइनोटॉर को जन्म दिया! उधर प्राचीन ईरान की पौराणिक कथाओं में भी असाधारण शक्तियों से लैस सांड के अनेक किस्से आते हैं। यहां तक कि इसे ईश्वर की छह आरंभिक रचनाओं में से एक कहा गया है।

बैल व सांड को पूजे जाने का भी लंबा इतिहास रहा है। माना जाता है कि मिस्र मंे एपिस के रूप में सांड को ही सर्वप्रथम पूजा गया। भारत में नंदी को शिवजी के द्वारपाल तथा वाहन होने का गौरव प्राप्त है। असीरिया (उत्तरी इराक) व आसपास के इलाकों में मनुष्य के सिर तथा पंख लगे सांड के धड़ वाले 'लमासू" की प्रतिमाएं मिलती हैं। इन्हें राजमहलों आदि के प्रवेशद्वार पर द्वारपाल के तौर पर स्थापित किया जाता था। यही नहीं, धरती पर अपने लिए बहु-उपयोगी सांड को मनुष्य ने वृषभ तारामंडल के रूप में आसमान तक में स्थापित कर दिया है...! 

Sunday 20 August 2017

श्रृंगार से अध्यात्म तक... चोटियां!

चोटी की भूमिका श्रृंगार तक ही सीमित नहीं है। इसका संबंध सामाजिक रुतबे, आस्था और अध्यात्म तक से रहता आया है...
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चोटियां इन दिनों काफी चर्चा में हैं। यूं हम इन्हें भारतीय परंपरा से ही जोड़ते आए हैं मगर बालों की चोटी बनाने की परंपरा अधिकांश प्राचीन सभ्यताओं में रही है। खास बात यह कि चोटी बनाने का मामला केवल बालों के श्रृंगार या सुविधा से ही नहीं जुड़ा, इसका संबंध संस्कृति, समाज व आस्थाओं से भी रहा है। चोटी की परंपरा कितनी पुरानी है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ऑस्ट्रिया में पाई गई 25000 से 28000 साल पुरानी एक मूर्ति में एक स्त्री के बाल चोटियों में बंधे दर्शाए गए हैं! ऐसा भी नहीं है कि चोटी बनाना महिलाओं तक ही सीमित रहा हो। पुरातन काल में जब पुरुषों का भी लंबे बाल रखना आम था, तब उनके सर पर भी चोटी सजती थी। यह परंपरा आज भी विश्व के अनेक कबीलाई समाजों में जारी है।
चोटियों की विविधता का आलम यह है कि कई अफ्रीकी कबीले खास तरह की चोटी के माध्यम से ही अपनी पहचान प्रकट करते हैं। यानी चोटी देखकर कहा जा सकता है कि अमुक व्यक्ति किस कबीले का है। मिस्री साम्राज्य में राजसी परिवारों की स्त्रियों की चोटियां आम स्त्रियों से अलग हुआ करती थीं। वहीं रोमन काल में श्रेष्ठी वर्ग की महिलाओं में चोटियां स्टेटस सिंबल थीं। चोटी की संरचना जितनी अधिक जटिल हो, माना जाता था कि महिला उतने ही धनी कुल से है। इसका व्यवहारिक पहलू यह था कि साधारण परिवारों की महिलाओं के पास इतनी फुर्सत होने का सवाल ही नहीं उठता था कि वे अपनी चोटी को लेकर लंबे-चौड़े प्रयोग कर सकें। उत्तरी अमेरिका के कुछ जनजातीय समुदायों की परंपरानुसार केवल अविवाहित युवतियां चोटी बनाती हैं, जबकि विवाहित महिलाएं अपने बाल खुले रखती हैं। किसी समुदाय मंे पुरुष तीन चोटियां बनाते हैं और महिलाएं दो, वहीं मैदानी इलाकों के अमेरिकी आदिवासी समुदाय में महिलाएं बाल छोटे रखती हैं और पुरुष अपने लंबे बालों की चोटियां बनाते हैं!
चोटियों के श्रृंगार के भी विविध तरीके अलग-अलग समाजों में देखे जाते हैं। मोती-मनकों से लेकर घास-पत्तियों तक से चोटी को सजाया जाता है। उत्तरी अमेरिका में एक खास प्रकार की घास को धरती माता के पवित्र बाल माना जाता है। कुछ समुदायों में इस घास को अपनी चोटी में गूंथने की परंपरा है। कहा जाता है कि इससे व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से धरती माता के साथ जुड़ता है और उसके मन में पवित्रता का संचार होता है। अफ्रीका के मांगबेटु समुदाय की महिलाएं पशुओं की हड्डी से बनी सींकों से अपनी चोटियां सजाती हैं। वहीं मसाई सुमदाय के पुरुष अपनी चोटी पर गोबर लगाते हैं! उधर हिंबा समुदाय की महिलाएं अपनी चोटी पर गेरू, राख, मक्खन व कुछ जड़ी-बूटियां मलकर उसका रूप निखारती हैं।

अफ्रीकी समुदायों में मौजूद जटिल चोटियां बनाने की परंपरा विश्व प्रसिद्ध है। मगर यह बात कम लोग जानते हैं कि वहां चोटियां बनाने को लेकर कई तरह के नियम-कायदे भी हैं, निषेध भी और अंधविश्वास भी। मसलन, यह कि किसी एक व्यक्ति को ही दूसरे की चोटी बनानी चाहिए। यदि एक साथ दो लोग किसी की चोटी बनाते हैं, तो जल्द ही उनमें से किसी एक की मृत्यु हो जाती है। यह भी कि खुले आसमान के नीचे चोटी नहीं बनानी चाहिए। गर्भवती महिलाओं को किसी अन्य की चोटी बनाने की मनाही है। मजेदार बात यह है कि जिसने आपकी चोटी बना दी, उसे धन्यवाद कहना भी अशुभ समझा जाता है!

Sunday 23 July 2017

ज्वार-भाटा लाने वाला महाकेकड़ा

समुद्र में लहरें व ज्वार-भाटा लाने से लेकर शहीद योद्धाओं की आत्मा धारण करने तक, कई तरह के काम केकड़ों के नाम दर्ज हैं देश-विदेश के किस्सों-कहानियों में...
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हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार बीते वर्ष महाराष्ट्र में केकड़े की छह नई प्रजातियां सामने आईं। इसके साथ ही अपनी विचित्रताओं को लेकर कौतुहल उत्पन्ना करने वाले इस जीव की कुछ और विविधताएं दर्ज हुईं। दो जोड़ी छोटे और चार जोड़ी बड़े पैरों के दम पर आड़ा चलने वाला यह प्राणी वैसे ही कई रोचक किस्से-कहानियों का किरदार रहा है। मसलन, फिलिपीन्स का मंडाया समुदाय मानता है कि सूर्य और चंद्रमा पति-पत्नी हैं और उनकी संतानों में तंबानाकानो नामक विशाल केकड़ा भी शामिल है। यह समुद्र तल में स्थित एक विशाल गड्ढे में रहता है। जब वह गड्ढा छोड़कर कहीं जाता है, तो समुद्र का पानी उस विशाल गड्ढे मंे भर जाता है और किनारों पर भाटा आ जाता है। जब तंबानाकानो वापस अपने गड्ढे में आता है, तो सारा पानी पुन: गड्ढे से बेदखल हो जाता है और किनारों पर ज्वार आ जाता है। यानी समुद्री ज्वार-भाटा केकड़े की ही देन हैं! यही नहीं, इस महाकेकड़े के हिलने-डुलने से ही समुद्र में लहरें भी उठती रहती हैं।
जापान में पाई जाने वाली केकड़े की हाइकेगानी नामक प्रजाति काफी प्रसिद्ध है। इसकी खासियत है इसकी पीठ पर उभरी मानव चेहरे जैसी आकृति। इसे लेकर बड़ी रोचक कथा प्रचलित है। कहते हैं कि हाइके योद्धाओं का जापान पर शासन था और मीनामोटो योद्धा उन्हें सत्ता से बेदखल करने को प्रयासरत थे। सन् 1185 में दोनों सेनाओं के बीच समुद्र के किनारे निर्णायक युद्ध हुआ। उस समय 7 वर्षीय बालक अंतोकू हाइके सम्राट था। मीनोमोटा सेना हाइके सेना पर लगातार भारी पड़ रही थी। हाइके योद्धाओं का नियम था कि युद्ध में पराजय अवश्यंभावी लगने पर वे युद्धबंदी बनने के बजाए अपने प्राण हरकर शहादत प्राप्त कर लेते थे। जब इस युद्ध में ऐसी नौबत आई, तो सैनिकों ने अपने 7 वर्षीय सम्राट को समुद्र में फेंक दिया। उनके पीछे-पीछे सम्राट की मां व दादी भी समुद्र में समा गईं। शेष बचे सैनिकों ने भी सम्राट के साथ जल समाधि ले ली। समुद्र की गहराइयों में मौजूद केकड़ों ने इन सब हाइके लोगों का भक्षण कर लिया। इसके बाद शहीद हाइके योद्धाओं की आत्मा इन केकड़ों में बस गई और इनकी पीठ पर योद्धाओं के चेहरे अंकित हो गए। ये केकड़े हाइकेगानी कहलाए। यदि किसी जापानी मछुआरे के जाल में हाइकेगानी केकड़े फंस जाते हैं, तो वे सम्मानपूर्वक इन्हें वापस समुद्र में डाल देते हैं।

यूनानी पौराणिक कथाओं में भी केकड़े का विशेष उल्लेख आता है। इसके अनुसार, महान योद्धा हरक्युलिस, जोकि देवराज ज़्युस की अवैध संतान था, अनेक सिर वाले महासर्प हायड्रा से युद्ध कर रहा था। तब कारकिनोस नामक केकड़े ने हायड्रा की मदद की गरज से हरक्युलिस का एक पैर जकड़ लिया। मगर अद्धभुत बल के स्वामी हरक्युलिस के आगे वह टिक नहीं सका। हरक्युलिस ने कारकिनोस को झटक दिया और अपने पैर तले कुचल डाला। मगर उसका बलिदान बेकार नहीं गया। ज़्युस की पत्नी हेरा हरक्युलिस ने घृणा करती थीं। उन्होंने कारकिनोस को आसमान में स्थापित कर दिया, जहां वह आज भी कर्क तारामंडल के रूप में देखा जा सकता है।