Sunday 30 December 2018

फल के बाहर आकर पछताया काजू बीज


यदि आप सर्दियों का लुत्फ लेते हुए काजू-बादाम खा रहे हैं, तो जरा इनसे जुड़े किस्सों का भी रसास्वादन कीजिए। ये किस्से दिलचस्प भी हैं और दार्शनिक भी।
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काजू का बीज फल के भीतर होने के बजाए बाहर क्यों होता है? फिलिपीन्स की एक लोककथा ने इस सवाल का जवाब देने की कोशिश की है। इसके अनुसार, पहले काजू के बीज भी फल के भीतर ही हुआ करते थे। मगर भीतर वे खुद को बंधा हुआ महसूस करते थे। वे फल की कैद में बैठे-बैठे ही चिड़ियों का चहचहाना, नदियों की कलकल, बच्चों की किलकारियां, हवाओं की सरसराहट आदि सुना करते थे और सोचते थे कि कितना अच्छा होता यदि वे यह सब देख पाते! उन्हें अफसोस था कि वे बाहर की दुनिया तभी देख सकते हैं, जब कोई खाने के इरादे से उन्हें फल के बाहर निकाले। फिर कुछ ही पल में वे किसी के मुंह का निवाला बनते और सब कुछ खत्म...। काजू के बीजों ने इच्छा जताई कि काश हम फल के बाहर होेते! वन परी ने उनकी इच्छा सुनी और अपनी तिलस्मी शक्तियों से इसे साकार कर दिया।
अब काजू के बीज फल के बाहर लगने लगे। वे संसार के सौंदर्य को देखकर खुश थे। मगर जल्द ही वे तस्वीर के दूसरे रुख से भी दो-चार हुए। दोपहर में जब धूप तेज हुई, तो वे उसकी तपिश से परेशान हो गए। रात को जब कंपकंपा देने वाली सर्द हवाएं चलीं तो वे कांप उठे। उन्हें खुले में टंगा देखकर पक्षी उनका भक्षण करने के लिए लपकने लगे। उन्हें एहसास हुआ कि वे फल के भीतर ही अधिक सुरक्षित थे। तब उन्होंने वन परी से गुहार लगाई कि उन्हें वापस फल के भीतर कर दिया जाए मगर परी ने कह दिया कि तुम्हारी इच्छा पूरी की जा चुकी है, अब तुम जहां हो वहीं रहोगे। कहानी का संदेश संभवत: यही है कि प्रकृति ने जो जैसा बनाया है, उसके पीछे ठोस वजह है। उसके विपरीत जाने की कोशिश नहीं करना चाहिए।
मनुष्य की कल्पनाशक्ति के विस्तृत दायरे से काजू-बादाम जैसे सूखे मेवे भी बाहर नहीं हैं। इनके इर्द-गिर्द रचे गए किस्से-कहानियां मानो इनके स्वाद को और रुचिकर बना देते हैं। बादाम की उत्पत्ति को लेकर ग्रीस की एक दंतकथा कहती है कि फिलिस नामक राजकुमारी का प्रेमी अकामस युद्ध पर गया और नहीं लौटा। उसे यकीन हो गया कि अकामस युद्ध में मारा गया है। दुख के मारे उसने प्राण त्याग दिए। तब देवी एथेना ने फिलिस के प्रेम से द्रवित होकर उसे एक वृक्ष में तब्दील कर दिया। यही बादाम का वृक्ष है। फिलिस का प्रेमी अकामस मरा नहीं था। दस साल बाद जब वह लौटा और उस वृक्ष का आलिंगन किया, तो उस पर बहार आ गई। तभी से बादाम के वृक्ष को ग्रीस में प्रेम और आशा का प्रतीक माना जाता आया है।
आज भी ग्रीक शादियों में शकर चढ़े बादामों को विषम संख्या में छोटी-छोटी पोटलियों में बांधकर, चांदी की तश्तरी में रखकर परोसा जाता है। विषम संख्या का बंटवारा नहीं किया जा सकता और आशा की जाती है कि नवविवाहित जोड़े को भी कभी 'बांटा" नहीं जा सकेगा और वे सदा एक रहेंगे। बादाम में मीठे व कड़वे स्वाद का मिश्रण होता है। यह जीवन का प्रतीक है क्योंकि जीवन में भी आपको मीठे के साथ-साथ कड़वा भी मिलता है। उस पर शकर चढ़ाकर कामना की जाती है कि नवविवाहितों के जीवन में मीठे का अनुपात ज्यादा हो।
स्वीडन में क्रिसमस के अवसर पर चावल की एक प्रकार की खीर बनाने की परंपरा है। इसमें कुल जमा एक बादाम डाला जाता है। जिस किसी के हिस्से में यह बादाम आए, माना जाता है कि उसके लिए आने वाला साल शुभ रहेगा...

जिनके पांव जमीं पर नहीं पड़ते...!


धरती पर पांव रखे रहना यदि मनुष्य होने की निशानी है, तो देवता माना जाने वाला राजा जमीन पर कैसे पैर रखे...? और यदि धरती से ही शक्ति प्राप्त हो, तो भला कोई इसके स्पर्श से दूर क्यों रहना चाहे...? धरती और इंसान के बीच बड़ा अनोखा संबंध है।
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प्रशांत महासागर के छोटे-से देश टोंगा में राजा को अर्द्ध दैवीय दर्जा प्राप्त रहा है। यूं तो अनेक देशों में राजा को दैवीय शक्तियों से लैस, ईश्वर तुल्य या फिर साक्षात ईश्वर मानने का रिवाज रहा है। इसके साथ ही उन्हें भांति-भांति के विशेषाधिकारों से लैस किया जाता रहा है। टोंगा के राजा को चूंकि मनुष्य से ऊंचा दर्जा दिया गया है, सो माना जाता है कि उनके पैर साधारण मनुष्यों की भांति धरती को स्पर्श नहीं करने चाहिए। टोंगा स्थित प्राचीन तलाईतुमु किले के बीचो-बीच एक ऊंचा मंच बना हुआ है, जिस पर राजा विशेष अवसरों पर कुछ खास अनुष्ठान किया करते थे। इसके आसपास जमीन से ऊपर उठे हुए पैदल रास्ते बनाए गए हैं, जिन पर चलने का अधिकार केवल राजा को था।
यह मजेदार है कि जिस धरती से जीवन निकला, राजा को उससे भी ऊपर मान लिया जाए। गोया राजा के पांव जमीन पर टिकना उसकी शान के खिलाफ हो! या फिर शायद इसके जरिए यह दिखाया जाता हो कि देव-तुल्य राजा सारे जमीनी पचड़ों से ऊपर है। जमीन या कहें धरती से मानव का खास रिश्ता है। वह धरती पर ही जन्मा, उसी पर अपना जीवन गुजारता है। धरती को मां का दर्जा अनेक संस्कृतियों में दिया गया है। इसके साथ ही इंसान जमीन को लेकर कई तरह के अनुष्ठान विभिन्ना अवसरों पर करता आया है और यह सिलसिला आज भी कायम है। यह तो हुआ मनुष्य व धरती के रिश्ते का आध्यात्मिक पहलू। भौतिक पहलू की बात करें, तो जमीन के मालिकाना हक को लेकर इंसान सदियों से मरने-मारने पर उतारू होता आया है। न जाने कितने युद्ध इसी आधिपत्य के लिए लड़े गए। राजाओं के लिए यह आम था कि वे जमीन के साथ-साथ उस पर मौजूद हर चीज पर अपना स्वामित्व मानकर चलते थे। मगर जब राजा पर 'ईश्वरत्व" या 'देवत्व" सवार हो, तो वह खुद को इसी धरती से ऊपर भी मान सकता है। आखिर ईश्वर और देवी-देवताओं को भी पृथ्वीवासी नहीं माना गया है। राजा आकाश में स्थित किसी लोक में भले न रह पाए, धरती पर पैर न रखकर खुद को धरतीवासियों से अलग तो जता ही सकता है!
उधर इंडोनेशिया के बाली द्वीप में लोग मानते हैं कि मनुष्य दैवी लोक से जन्म लेकर धरती पर आता है। जन्म के बाद पहले 105 दिन तक उसमें देवत्व के अंश मौजूद रहते हैं। इसीलिए शिशु के 105 दिन का होने तक उसके पैर जमीन को छूने नहीं दिए जाते। इस दौरान उसे देवता-तुल्य माना जाता है।
ग्रीक मान्यताओं में एंटियस को समुद्र व धरती की संतान माना गया है। ऐसा कहा जाता था कि धरतीपुत्र होने के नाते वह धरती, यानी अपनी माता से ही शक्ति पाता था। वह अपने सामने से गुजरने वाले लोगों को दंगल की चुनौती देता था। चूंकि उसे धरती मां से लगातार शक्ति प्राप्त होती रहती थी, सो उसे हराना असंभव था। वह अपने प्रतिद्वंद्वी को न केवल परास्त कर देता था, बल्कि उसके प्राण भी हर लेता था। अपने द्वारा मारे गए लोगों की खोपड़ियों से उसने अपने पिता का मंदिर भी बना डाला था। एक दिन उसने अपने इलाके से गुजर रहे योद्धा हेराक्लिज को दंगल के लिए ललकारा। दंगल शुरू हुआ और हेराक्लिज ने थोड़ी ही देर में जान लिया कि एंटियस को जमीन पर पटककर चित्त नहीं किया जा सकता क्योंकि उसकी शक्ति का तो स्रोत ही धरती है। सो हेराक्लिज ने एंटियस को अपने बलशाली बाजुओं में भींच लिया और उसे जमीन से ऊपर उठाकर, तब तक भींचे रखा, जब तक कि उसने दम नहीं तोड़ दिया। धरती पर पांव न पड़ना एंटियस को भारी पड़ गया।

Tuesday 27 November 2018

अविश्वास की विभाजन रेखा खींचती अग्नि


अग्नि जीवन का पोषण भी करती है और संहार भी। उसके इन दोनों रूपों से परिचित होते हुए ही मनुष्य ने उसे सदा से अपने जीवन का हिस्सा बनाया है। इससे कई रोचक मिथक व परंपराएं उपजी हैं।
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दक्षिणी अफ्रीका की सान जनजाति के लोग मानते हैं कि पहले-पहल जीवन जमीन के ऊपर नहीं, बल्कि इसके नीचे पनपता था। मनुष्य वहां सारे पशु-पक्षियों के साथ शांति से रहते थे। सब एक-दूसरे को समझते थे और मिल-जुलकर बसर करते थे। स्वयं ईश्वर भी वहीं निवास करते थे। वहां सूरज तो नहीं था लेकिन प्रकाश व ऊष्मा हर समय मौजूद रहती थी। फिर ईश्वर ने सोचा कि क्यों न जमीन के ऊपर भी एक दुनिया बसाई जाए। उन्होंने एक विशाल वृक्ष रचा, जिसकी शाखाएं पूरी धरती पर छा गईं और इसके बाद बाकी सारी चीजें रचीं, जो हम आज देखते हैं। अब उन्होंने भूमिगत संसार में रह रहे मनुष्यों व पशु-पक्षियों को ऊपर बुला लिया। नया संसार देखकर सभी खुशी से झूम उठे। ईश्वर ने सबको हिदायत दी कि वे पहले की ही तरह यहां भी मिल-जुलकर रहें, एक-दूसरे की बात सुनें व एक-दूसरे की कद्र करें। साथ ही उन्होंने मनुष्यों कोे विशेष हिदायत दी कि तुम किसी भी हाल में अग्नि प्रज्वलित नहीं करोगे। इतना कहकर ईश्वर चले गए।
अब हुआ यूं कि दिन में तो सूरज के प्रकाश व ऊष्मा से सब प्रसन्नाचित्त रहे मगर जब शाम को सूरज ढला, तो मनुष्यों को अंधेरे और उससे भी अधिक ठंड ने परेशान करना शुरू कर दिया। पशु-पक्षी अपने शरीर की बनावट की बदौलत ठंड से बच गए लेकिन मनुष्य परेशान होते रहे। यह सिलसिला रात-दर-रात चलता रहा। धीरे-धीरे मनुष्यों को पशु-पक्षियों से ईर्ष्या होने लगी। आखिर एक रात मनुष्यों ने तय कर लिया कि वे खुद को गर्म रखने के लिए आग जलाएंगे। ईश्वर के आदेश की अवहेलना करते हुए उन्होंने अग्नि प्रज्वलित कर दी। इससे वे तो ऊष्मा पाकर प्रसन्ना हो गए लेकिन सारे पशु-पक्षी आग से डरकर इधर-उधर भाग उठे। कोई पहाड़ों पर चला गया, कोई गुफाओं में जा छुपा, तो कोई पेड़ों की ऊंची शाखों पर बस गया। अग्नि ने मनुष्यों व शेष जीव जगत के बीच विभाजन रेखा खींच दी। तभी से मनुष्य अभिशप्त है कि पशु-पक्षी उस पर विश्वास नहीं करेंगे।
अग्नि प्रकृति के मूल तत्वों में से एक है और इसके बिना जीवन संभव नहीं। मगर अफ्रीका की यह कथा उसी अग्नि को नकारात्मक रूप में दर्शाती है, इसीलिए अपने आप में अनूठी है। एक और खास बात यह है कि इसमें मनुष्य पहले ही से अग्नि से परिचित था और इसे प्रज्वलित करने की विधि उसे ज्ञात थी। जबकि अधिकांश स्थानों के मिथकों में हमें यही सुनने को मिलता है कि कैसे मनुष्य का अग्नि से परिचय हुआ और उसने इसे अपनाया। ऐसे अधिकांश मिथकों में चोरी का जिक्र आता है। कभी मनुष्य कहीं से अग्नि चुरा लाता है, तो कभी कोई पशु-पक्षी उसके लिए इसे चुरा लाता है।
जापानी पौराणिक कथाओं के अनुसार, अग्नि के देवता कागुत्सुची को जन्म देते हुए उनकी माता इजानामी भस्म हो गईं। इस पर उनके पिता इजानागी ने क्रुद्ध होकर अपनी तलवार से कागुत्सुची के जिस्म के आठ टुकड़े कर दिए। ये आठ टुकड़े आठ ज्वालामुखी बन गए। इजानागी की तलवार से जो खून टपका, उसकी हर बूंद से एक-एक देवता प्रकट हुए। इस प्रकार अग्नि का प्राकट्य देवताओं के जन्म से जुड़ा हुआ है।
अग्नि को लेकर कई तरह के रिवाज और परंपराएं भी चली आई हैं। मसलन, प्रशांत महासागर के कुछ द्वीपों में घर के चूल्हे के पास एक वृद्ध महिला की नन्ही मूर्ति रखी जाती है। इसे अग्नि की पहरेदार माना जाता है और कहते हैं कि यह सुनिश्चित करती है कि चूल्हा सदा जलता रहे। योरप के कुछ हिस्सों में कभी ऐसा माना जाता था कि यदि घर में अग्नि ठीक से नहीं जल पा रही, तो जरूर शैतान आसपास मंडरा रहा है। इंग्लैंड में कुछ लोग अग्नि की लपटों का अध्ययन करके भविष्य बताने का दावा करते थे। और हां, जापान में बच्चों को चेताया जाता है कि अगर वे आग से खेलेंगे, तो जीवन भर बिस्तर गीला करते रहेंगे...!

नींद न आए, तो समझ जाओ कि...!


क्या संसार के रचयिता ने नींद के आगोश में तमाम जीव-जंतुओं की रचना कर डाली? क्या विस्मृति की नदी वाली अंधेरी गुफा में वास करते हैं निद्रा देव? क्यों तगड़ी दावत उड़ाकर पीठ के बल सोने से चैन की नींद नसीब नहीं होती...?
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अमेरिका के एबेनाकी आदिवासी समुदाय के लोग सृष्टि के निर्माण की कहानी कुछ यूं सुनाते हैं कि एक बार ईश्वर ने जब अपने आसपास देखा तो पाया कि न कोई रंग था, न ध्वनि, न प्रकाश था और न किसी प्रकार की हलचल। उन्होंने तय किया कि वे जीवन से धड़कने वाला संसार बनाएंगे। उन्होंने समुद्र में रहने वाले विशाल कछुए को बुलाया और आदेश दिया कि वह अपनी पीठ को धरती बना दे। फिर उन्होंने उसकी पीठ पर पहाड़, मैदान व खाइयां रच डालीं। साथ ही आसमान को नीला कर उसमें सफेद बादल उड़ा दिए। इसके बाद बारी आई इस नए रचे गए संसार में प्राणियों को लाने की। ईश्वर बहुत देर तक विचार करते रहे कि किस-किस प्रकार के प्राणी रचे जाएं। वे कुछ तय नहीं कर पा रहे थे और सोचते-सोचते उनकी नींद लग गई। नींद में उन्होंने सपना देखा, जिसमें उन्हें अजीब-अजीब जीव-जंतु नजर आए। कोई चार पैरों पर चल रहा था, तो कोई जमीन पर रेंग रहा था। कोई हवा में उड़ रहा था, तो कोई पानी मंे तैर रहा था। ये भांति-भांति की ध्वनियां उत्पन्ना कर रहे थे। कोई आपस में मिल-जुलकर रह रहे थे, तो कोई लड़ रहे थे। ईश्वर नींद से जागे, तो सोचने लगे कि ऐसे अजीबोगरीब प्राणी हर्गिज हो नहीं सकते। मगर यह क्या! उन्होंने अपने आसपास देखा तो पाया कि चारों ओर ठीक वैसे ही प्राणी विचर रहे थे, जैसे उन्होंने सपने में देखे थे। उन्होंने नींद में ही, अपने स्वप्न के माध्यम से सारे प्राणियों की रचना कर डाली थी!
इस प्रकार एबेनाकी समुदाय मानता है कि संसार का आबाद होना नींद का ही सुपरिणाम है। एक तरह से यह नींद की वांछनीयता ही नहीं, अनिवार्यता को भी रेखांकित करता है। आज विज्ञान मानता है कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए नींद अनिवार्य है। इसके बगैर जिया नहीं जा सकता। यह नींद के महत्व की स्वीकारोक्ति ही है कि विभिन्ना संस्कृतियों की पौराणिक कथाओं, जनश्रुतियों आदि में नींद से जुड़े कथानक मिलते हैं। प्राचीन ग्रीस में हिप्नॉस को नींद का देवता माना जाता था। वे रात्रि की देवी और अंधकार के देवता के पुत्र व मृत्यु के देवता के भाई थे। गौर कीजिए, यहां नींद का संबंध रात्रि व अंधकार के साथ-साथ मृत्यु से भी जोड़ा गया है, जोकि चिरनिद्रा है। यह भी कहा जाता है कि हिप्नॉस एक अंधेरी गुफा में निवास करते हैं, जिसमें से विस्मृति की नदी निकलती है।
नींद को लेकर कई गुत्थियां मानव मन को विस्मित करती रही हैं। इन गुत्थियों के पीछे तर्क तलाशते हुए उसने दिलचस्प धारणाएं गढ़ डालीं। ब्राजील में कहा जाता है कि यदि आप ठूंस-ठूंसकर खाने के बाद पीठ के बल सो जाते हैं, तो पीसादीरा नामक चुड़ैल आपकी छाती पर आ बैठेगी! दुबली-पतली, छोटे कद की पीसादीरा की नाक लंबी व आंखें लाल हैं। उसके लंबे, पीले नाखून, नुकीले दांत व हरे रंग का मुंह उसे और भी डरावना बनाते हैं। जब वह किसी की छाती पर आ बैठती है, तो व्यक्ति हड़बड़ाकर जाग जाता है और उसे देखकर सन्ना रह जाता है। वह चाहते हुए भी न हाथ-पांव हिला सकता है और न ही कुछ बोल पाता है। उसका दम घुटने लगता है। ऐसे में या तो पीसादीरा तब तक डटी रह सकती है, जब तक व्यक्ति दम घुटने से मर न जाए या फिर वह अचानक उठकर जा सकती है, जिसके बाद व्यक्ति धीरे-धीरे पूरी तरह जागृत अवस्था में आएगा और उसे इस पूरे मामले की बहुत धुंधली-सी याद ही रहेगी।
चलते-चलते जापान में प्रचलित एक मजेदार धारणा के बारे में भी जान लें। वहां कहा जाता है कि अगर रात को आपको देर तक नींद नहीं आ रही, तो समझ जाइए कि आप किसी के सपने में जाग रहे हैं..!

Sunday 28 October 2018

जब तोप से दागे गए पनीर के गोले!


पनीर को कभी दैवीय देन माना गया था। इसका उपयोग भोजन के अलावा युद्ध में भी हुआ है और शादी को न्योतों में भी। यहां तक कि बैंकिंग में भी इसका उपयोग है!
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क्रोएशिया के तटीय इलाके में हाल ही में 7,200 वर्ष पुराने मिट्टी के बर्तनों में पनीर के अंश पाए गए हैं। इसे अब तक विश्व में कहीं भी पाया गया पनीर का सबसे पुराना नमूना माना जा रहा है। साथ ही, इससे पता चला है कि पनीर का इतिहास जितना पुराना माना जाता आया है, उससे कहीं अधिक पुराना है। इस प्रकार यह दुग्ध उत्पाद मनुष्यों के सबसे पुराने आहारों में से एक कहा जा सकता है। खास तौर पर ठंडे देशों में इसकी लोकप्रियता का लंबा इतिहास मिलता है। ग्रीक पौराणिक कथाओं में तो कहा गया है कि सूर्य, प्रकाश, संगीत व काव्य के देवता अपोलो तथा राजकुमारी सायरीनी के पुत्र एरिस्टियस ने मनुष्यों को पनीर बनाने की कला दी थी। जाहिर है, 'दैवीय देन" होने के नाते इसका ग्रीक समाज में खास स्थान रहा। ... या फिर यह भी कह सकते हैं कि इसके खास स्थान को देखते हुए इसे दैवीय देन का दर्जा दिया गया। बताया तो यह भी जाता है कि प्राचीन ग्रीस में देवताओं को भोग के रूप में, अन्य पदार्थों के अलावा पनीर अर्पित किया जाता था।
मजेदार बात यह है कि पनीर का उपयोग हमेशा केवल खाद्य पदार्थ के रूप में ही होता आया हो, ऐसा भी नहीं है। इसके कुछ अन्य उपयोग बड़े ही दिलचस्प रहे हैं। मसलन, 1865 में ब्राजील और उरुग्वे के बीच युद्ध चल रहा था। दोनों देशों की नौसेनाएं एक-दूसरे पर बारूद के गोले बरसा रही थीं। अचानक उरुग्वे के जंगी जहाज के कमांडर को बताया गया कि जहाज पर गोले खत्म हो गए हैं। अब दुश्मन सेना का मुकाबला कैसे किया जाए? कमांडर ने दिमाग लगाया और तय किया कि बारूद के गोले खत्म हो गए हैं, तो किसी अन्य वस्तु को गोलों के रूप में दागा जाए। तलाश की गई कि जहाज पर ऐसी कौन-कौन-सी वस्तुएं हैं, जिनका ऐसा उपयोग किया जा सकता है। जब उन्हें बताया गया कि जहाज की रसोई में बासी व सख्त हो चुका पनीर मौजूद है, तो कमांडर ने आदेश दिया कि इस पनीर के ही गोले बनाए जाएं और इन्हें तोपों में भरकर दागा जाए। इसे खेल मत समझिए, यह तरकीब कारगर भी रही। पहले दो गोले तो निशाना चूक गए लेकिन तीसरा गोला दुश्मन जहाज के मस्तूल से टकराकर बिखर गया और इसके दो नुकीले, सख्त टुकड़ों ने दो दुश्मन सैनिकों के प्राण हर लिए!
पनीर को घातक हथियार के रूप में इस्तेमाल किए जाने की एक मिसाल एक आइरिश पौराणिक कथा में भी मिलती है। इसमें मेव नामक रानी का जिक्र है, जिसके पिता ने उसकी शादी कोंकोबार नामक राजा से कर दी थी। मगर मेव की अपने पति से नहीं निभी और वह उसे छोड़ गई। तब मेव के पिता ने अपनी ही एक अन्य पुत्री एथिन को कोंकोबार से ब्याह दिया। मगर क्रूर मेव ने अपनी ही बहन को मार डाला, जिससे एथिन का पुत्र फरबेड मां की ममता से वंचित हो गया। बरसों बाद, जब फरबेड युवा हो चुका था, तो उसने अपनी मौसी से मां की हत्या का प्रतिशोध लिया। मेव प्रतिदिन एक झील पर नहाने जाया करती थी। फरबेड ने एक खास गुलेल तैयार की और झाड़ियों के पीछे से उस दूरी पर पत्थर मारने का अभ्यास करने लगा, जहां मेव नहाया करती थी। उसका निशाना अचूक हो चला था और आखिर उसने अपने प्रतिशोध को पूर्णता देने कर ठान ली। मगर उस दिन मेव नियत समय से कुछ पहले ही झील पर नहाने पहुंच गई। फरबेड के पास पत्थर नहीं था मगर हाथ में पनीर था, जिसे वह खा रहा था। सो उसने कठोर पनीर के उस टुकड़े को ही गुलेल पर लगाकर निशाना साधा। पनीर सीधे मेव के सिर पर लगा और वह वहीं ढेर हो गई।
ऐसा नहीं है कि पनीर का उपयोग हिंसक कार्यों में ही होता हो। प्राचीन ग्रीस में शादी के निमंत्रण के साथ पनीर से बनी मिठाइयां भेजने के रिवाज के प्रमाण मिले हैं। यही नहीं, इटली में क्रेडिटो एमिलियानो नामक बैंक है, जो इस मायने में अनूठा है कि वह उस इलाके में बनने वाले बेशकीमती पनीर को गिरवी रखने के बदले ऋण देता है! इस पनीर को खास वातावरण में सुरक्षित रखने की जरूरत होती है, जिसके लिए बैंक ने विशेष वेयरहाउस बना रखा है।

क्यों लंबी हुई शुतुरमुर्ग की गर्दन?


शुतुरमुर्ग ने भले ही कभी उड़ान न भरी हो, मगर उसके आकार व अन्य विचित्रताओं ने मनुष्य की कल्पनाओं से खूब उड़ानें भरवाई हैं। इसे लेकर व्याप्त धारणाएं व किस्से बड़े रोचक हैं।
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कुछ मिथक इस कदर जनमानस में पैठ कर जाते हैं कि हम इन्हें निर्विवाद तथ्य मान लेते हैं। ऐसा ही एक मिथक शुतुरमुर्ग से जुड़ा है। वह यह कि किसी खतरे या अप्रिय स्थिति को देखकर शुतुरमुर्ग अपना सिर जमीन में गाड़ देता है। वह सोचता है कि इससे आसन्ना खतरा या अप्रिय स्थिति टल जाएगी। इसी के चलते, कड़वी हकीकत से मुंह फेरने वाले व्यक्ति को शुतुरमुर्ग प्रवृत्ति का कहा जाता है। जबकि तथ्य यह है कि शुतुरमुर्ग ऐसा कुछ करता ही नहीं। दरअसल, मादा शुतुरमुर्ग अपने अंडे घोंसले में देने के बजाए जमीन में बनाए गए गड्ढों में देती है। वह दिन में कई बार इन अंडों को उलटती-पलटती है। इस दौरान, देखने वाले को भ्रम हो सकता है कि वह अपना सिर जमीन में गाड़ रही है। वैसे भी, शुतुरमुर्ग का सिर काफी छोटा होता है, सो यदि वह सिर झुकाए खड़ा हो, तो यह भ्रम होना मुश्किल नहीं है कि उसका सिर जमीन के अंदर है।
शुतुरमुर्ग की खासियत यह है कि यह सबसे बड़ा जीवित पक्षी है और उड़ने से लाचार है। इस कारण अफ्रीकी मूल का होते हुए भी यह दुनिया भर में प्रसिद्ध है। साथ ही कई तरह के मिथकों और असत्य धारणाओं का विषय भी। कहते हैं कि प्रसिद्ध ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने शुतुरमुर्ग के विशाल आकार को देखते हुए इसे पक्षी मानने से ही इनकार कर दिया था। उनका मानना था कि यह आधा पक्षी व आधा पशु है! मध्य-पूर्व की प्राचीन संस्कृति में लोग इसे दुष्ट प्राणी मानते थे। वे इसका संबंध सृष्टि से पहले व्याप्त रहे अंधकार व अस्त-व्यस्तता की देवी तियामत से जोड़ते थे। वहीं प्राचीन मिस्र में इसका खासा धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व था। इसका संबंध सत्य व न्याय की देवी मात से जोड़ा जाता था। इसीलिए इसके पंख को भी सत्य का प्रतीक माना गया। बाद के दौर में शुतुरमुर्ग के पंख कई संस्कृतियों में श्रेष्ठि वर्ग के श्र्ाृंगार का हिस्सा बने।
शुतुरमुर्ग की लंबी गर्दन को लेकर अफ्रीका में एक मजेदार लोककथा चली आई है। इसके अनुसार, बहुत पहले शुतुरमुर्ग की गर्दन छोटी हुआ करती थी। एक बार नर शुतुरमुर्ग ने अंडे सेने में मादा का हाथ बंटाने का प्रस्ताव रखा। तय हुआ कि दिन में मादा यह जिम्मेदारी निभाएगी और रात में नर। मगर एक रात अचानक अपनी पत्नी की खिलखिलाहट भरी हंसी सुनकर शुतुरमुर्ग के कान खड़े हो गए। उसने सिर उठाकर देखा तो पाया कि उसकी पत्नी एक अन्य सजीले नर शुतुरमुर्ग के साथ चांदनी रात में, दीमक के टीलों के बीच लुका-छिपी खेल रही है! जाहिर है, इस बेवफाई पर उसका पारा चढ़ गया मगर वह अंडों को छोड़कर नहीं जा सकता था। सो वहीं बैठा-बैठा, अपनी गर्दन लंबी कर-करके देखने की कोशिश करता रहा कि दीमक के टीलों के बीच क्या चल रहा है। सारी रात यूं ही बीत गई। सुबह जब बेवफा मादा अंडों के पास लौटी, तो गुस्से में आग-बबूला हो रहा शुतुरमुर्ग उठ खड़ा हुआ। अचानक उसे अपनी गर्दन में कुछ अजीब-सा लगा। जब उसने अपने पैरों की ओर देखा, तो पाया कि वे उसके सिर से बहुत दूर हो गए हैं। तब उसे समझ में आया कि रात भर गर्दन तानकर पत्नी की हरकतों पर नजर रखने के चलते उसकी गर्दन इतनी लंबी हो गई है। बस, तभी से शुतुरमुर्गों की गर्दन लंबी रहने लगी।

Sunday 9 September 2018

पत्थर पर दर्ज चेतावनियां


पुरातन शिलालेख केवल राजे-महाराजों के गुणगान या नियम-कायदे गिनाने तक सीमित नहीं थे। कहीं-कहीं ये प्राकृतिक आपदा से बचाने वाले संकेतकों का भी काम करते आए हैं।
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हाल ही में योरप में पड़ी भीषण गर्मी के चलते जब कई नदियों का जलस्तर काफी नीचे चला गया, तो कुछ अनोखे पुरातन शिलालेख प्रकट हुए। इन पर लिखी इबारत एक प्रकार से लोगों को आगाह करती है कि अब सूखे का खतरा मंडरा रहा है। दरअसल यह अतीत में पड़े सूखे के दौरान पत्थरों पर दर्ज चेतावनियां हैं। जिस प्रकार आज हम नदियों में 'खतरे का निशान" पाते हैं, जिसके ऊपर पानी आने से बाढ़ का खतरा होता है, उसी प्रकार ये शिलालेख जताते थे कि इस स्तर के नीचे पानी जाने से सूखे का खतरा रहेगा। यह तब की बात है, जब योरपीय समाज बस इतना अन्ना उगा लेता था कि जीवन निर्वाह हो जाए। ऐसे में सूखा पड़ने पर जीवन संकट में पड़ जाता था। इसलिए उस दौर के लोग आने वाली पीढ़ियों के लिए सूखे की पूर्व चेतावनी के तौर पर ये शिलालेख छोड़ गए। इन्हें सूखे के पत्थर या भूख के पत्थर भी कहा जाता है क्योंकि इनके प्रकट होने पर भूख का खतरा मंडराने लगता था।
इन शिलालेखों पर चेतावनी अलग-अलग अंदाज में लिखी गई है। मसलन, जर्मनी व चेक गणराज्य की सीमा पर पाए गए ऐसे ही एक शिलालेख पर लिखा है, 'जब तुम मुझे देखो, तो रोओ।" संदेश स्पष्ट है कि जब नदी का पानी इतना नीचे चला जाए कि यह शिलालेख दिखने लगे, तो संकट आसन्ना है। ऐसे कुछ शिलालेखों पर वे सन् भी अंकित हैं, जब-जब जल स्तर नीचे गया और ये प्रकट हुए थे। कुछ पर लिखने वालों के हस्ताक्षर भी हैं। आज योरप इतना संपन्ना हो चुका है कि एकाध साल के सूखे से उसकी अर्थव्यवस्था पर भले ही थोड़ा फर्क पड़े लेकिन जीवन-मृत्यु का मामला नहीं बनता। इसलिए अब जब भी ये शिलालेख प्रकट होते हैं, तो एक प्रकार से पर्यटकों के लिए आकर्षण भर रहते हैं। ये जताते हैं कि बीते दौर में पत्थरों पर दर्ज शब्द केवल किसी राजा का महिमागान ही नहीं करते थे या राजसी अथवा धार्मिक नियम-कायदों की सूची ही नहीं दर्शाते थे। ये आम जन की जीवन रक्षा के लिए महत्वपूर्ण संकेतक का काम भी करते थे। साथ ही अतीत में आई प्राकृतिक विपदा के स्मारक भी बनते थे।
उधर जापान में समुद्रतट से लगे इलाकों में जगह-जगह पर सुनामी संबंधी चेतावनियां देने वाले शिलालेख खड़े मिलते हैं। इन पर कुछ इस प्रकार की इबारत लिखी होती है- 'भीषण सुनामियों को याद करो। इस बिंदु से निचले स्तर पर अपने मकान मत बनाओ।" जापान भूकंप प्रवण क्षेत्र है और कभी-कभी इन भूकंपों के कारण यहां सुनामी भी आती है। ऐसे में समुद्र की कातिल लहरों से बचने के लिए ऊंचाई वाले स्थान पर चले जाना ही बचाव का उपाय होता है। समझदारी इसी में है कि एक निश्चित स्तर से अधिक ऊंचाई पर ही लोग बसें। ये 'सुनामी पत्थर" बताते हैं कि अमुक ऊंचाई से नीचे सुनामी का खतरा रहेगा, इसलिए इसके नीचे बसाहट न हो।
पत्थर पर दर्ज ये चेतावनियां सदियों पुरानी हैं मगर आज भी अपनी जगह पर मुस्तैदी से डटी हैं। ये जीवन की नश्वरता व प्रकृति के सर्वशक्तिमान होने का आभास लगातार कराती हैं। साथ ही पूर्वजों में मौजूद, आने वाली पीढ़ियों के कुशलक्षेम की चिंता को भी दर्शाती हैं।

Sunday 2 September 2018

खरगोश ने सिखाया सिंह को दहाड़ना!


सिंह को न सिर्फ जंगल के राजा का खिताब मिला है, बल्कि कई राजवंशों ने इसे अपना प्रतीक भी बनाया है। मगर क्या यह संभव है कि उसकी दहाड़ के पीछे नन्हे-से खरगोश की करामात है...?
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खूंखार शिकारी पशुओं के प्रति भय व 'परिस्थितिजन्य" सम्मान का भाव होना स्वाभाविक ही है। प्राणी जगत के शेष सदस्यों के साथ ही मनुष्यों ने भी यह भय व सम्मान पाला है। इन्हीं शिकारी पशुओं में शामिल है सिंह या बब्बर शेर, जिसे अनेक संस्कृतियों में जंगल के राजा का खिताब दिया गया है। शारीरिक बल के अलावा जो चीज सिंह को अन्य पशुओं से अलग करती है, वह है इसके चेहरे के आसपास लहराते बाल। ये इसकी शख्सियत को एक अनूठी 'गरिमा" देते हैं और आपको चेतावनी देते हैं कि आप इन जनाब को हल्के में कतई न लें।
मानव ने सिंह को हल्के में तो नहीं ही लिया। तमाम प्राचीन संस्कृतियों ने इसे भौतिक ताकत व राजनीतिक सत्ता के प्रतीक के रूप में अपनाया। कहीं यह राजसत्ता का प्रतीकचिह्न बना, तो कहीं इसे शासक के रक्षक के तौर पर प्रतिष्ठित किया गया। यहां तक कि कहीं-कहीं तो राजा को ही सिंह के रूप में चित्रित भी किया गया। मंदिरों, मठों, राजमहलों आदि के प्रवेश द्वारों पर सिंहों की मूर्तियां लगी होना आम बात थी। दिलचस्प बात यह है कि प्रतीक के रूप में सिंह चीन जैसे देश में भी स्थापित हैं, जो मूल रूप से सिंहों का निवास स्थल है ही नहीं। माना जाता है कि भारत से गए बौद्ध भिक्षुओं के माध्यम से चीनियों का सिंह से परिचय हुआ और फिर उन्होंने इस अनदेखे पशु को अपनी लोक संस्कृति में शामिल कर लिया।
सिंह की वास्तविक ताकत के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए जब मनुष्य संतुष्ट नहीं हुआ, तो उसे कुछ काल्पनिक या कहें मिथकीय ताकत भी बख्श डाली। इसी का उदाहरण है ग्रीक पौराणिक कथाओं में आने वाला नेमियन सिंह। कहा जाता है कि ग्रीस के नेमिया क्षेत्र में इस सिंह का जबर्दस्त खौफ व्याप्त था। यह टायफॉन नामक राक्षस व एचिडना नामक सर्प कन्या की संतान था। उसे यह वरदान प्राप्त था कि उसकी चमड़ी को मनुष्यों का कोई भी अस्त्र-शस्त्र बेध नहीं सकता। इस प्रकार वह अपराजेय था और पूरे नेमिया में अपना आतंक फैलाए रहता था। आखिरकार हर्कुलिस नामक योद्धा को उसे मारने के लिए भेजा गया। हर्कुलिस ने सिंह के, उसकी गुफा में जाने का इंतजार किया। फिर गुफा के दो में से एक द्वार को बंद कर दिया और दूसरे द्वार से खुद गुफा में जा पहुंचा। अंधेरे में उसने अपने विराट बाहुबल से सिंह का गला घोंटकर उसे मौत के घाट उतार दिया।
अफ्रीकी देश अंगोला में सिंह के बारे में बड़ी ही मजेदार कथा चली आई है। इसके अनुसार, पहले सिंह दहाड़ा नहीं करता था। वह बहुत ही धीमी आवाज निकालता था, जिससे उसके शिकारों को उसके आने की भनक ही नहीं लगती थी। एक दिन जंगल के सारे पशुओं ने कुछ ऐसा करना तय किया, जिससे सिंह जोरदार आवाज निकाला करे और उसकी आमद का पता चलते ही सब अपनी रक्षा में मुस्तैद हो सकें। खरगोश ने यह जिम्मा अपने सिर लिया। उसने सिंह से जाकर कहा कि महाराज, बुरी खबर है। आपके भाई गंभीर बीमार हैं और आपसे मिलने की ख्वाहिश रखते हैं। यह सुनते ही सिंह व्यथित हो गया और उसने खरगोश से कहा कि मुझे ले चलो मेरे भाई के पास। अब खरगोश भाई के पास ले जाने के बहाने सिंह को जंगल-जंगल घुमाता रहा। आखिर सिंह थककर चूर हो गया और कुछ देर आराम करने के लिए घास पर लेट गया। उसे नींद लग गई, तो खरगोश ने पास ही मधुमक्खी का छत्ता तलाश लिया। मधुमक्खियां बाहर गई थीं, सो खरगोश ने छत्ते से सारी शहद लूट ली और रास्ते में कुछ बूंदे छिड़कते हुए आकर सोते सिंह के पंजों पर शहद लगा दी। फिर वह जाकर झाड़ियों में छुप गया। शाम को जब मधुमक्खियां लौटीं और शहद को गायब पाया, तो वे आग-बबूला हो गईं। इधर-उधर तलाशने पर उन्हें सोते सिंह के पंजों पर शहद नजर आ गई। सो उसे ही शहद चोर समझते हुए मधुमक्खी सेना ने सिंह पर हमला कर दिया। हड़बड़ाकर जागा सिंह मधुमक्खियों के डंक से तड़प उठा और देखते ही देखते उसकी हल्की कराहें गगनभेदी दहाड़ों में बदल गई। बस, तभी से सिंह दहाड़ रहा है और उसकी दहाड़ से सारे प्राणी आगाह हो जाते हैं।

Sunday 26 August 2018

क्या आपने माफी मांगी...?

गलती के लिए माफी मांगने की लंबी रही है। कहीं इसके लिए स्पष्ट तौर-तरीके निर्धारित हैं, तो कहीं बिना सोचे-समझे और बिना गलती किए माफी मांगने की आदत भी है!
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इंसान से गलती हो ही जाती है और सभ्यता का तकाजा है कि वह अपनी गलती के लिए क्षमा मांग ले। पुणे के पास स्थित पिंपरी चिंचवड़ के एक युवा ने पिछले दिनों इसी का पालन किया। गर्लफ्रैंड के साथ झगड़ा हो जाने के बाद उसे अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने गर्लफ्रैंड से माफी मांगने का फैसला किया। इसके लिए उसने जो तरीका अपनाया, वह बड़ा नाटकीय रहा। उसकी गर्लफ्रैंड के जिस रास्ते से निकलने की संभावना थी, उस रास्ते पर उसने 'आई एम सॉरी" लिखे 300 से ज्यादा बैनर लगवा दिए। रात के अंधेरे में दर्ज किए गए इस माफीनामे को सुबह जब पूरे शहर ने देखा, तो चारों ओर इसकी चर्चा चल पड़ी। किसी ने प्रेमी की दिलेरी की तारीफ की, तो किसी ने इसे सार्वजनिक स्थल का दुरुपयोग माना। हां, पुलिस को माफीनामे का यह तरीका रास नहीं आया।
माफी मांगने को हमारे यहां व कई अन्य संस्कृतियों में भी बड़प्पन की निशानी माना गया है। क्षमायाचना के माध्यम से हम अपराध बोध से मुक्त होकर नई शुरुआत कर सकते हैं। यह उस व्यक्ति का विश्वास फिर से हासिल करने का साधन भी बन सकता है, जिसके साथ हमने गलत किया है। क्षमा मांगने व किसी को क्षमा करने की कई यादगार मिसालें हमारे इतिहास व परंपराओं में दर्ज हैं। जैन धर्म में हर वर्ष मनाए जाने वाले क्षमा पर्व का खास स्थान है।
जापान में माफी मांगना शिष्टाचार का अनिवार्य अंग माना जाता है। वहां के लोगों के व्यवहार में क्षमायाचना का भाव इस कदर झलकता है कि कई विदेशियों को यह अनूठा, यहां तक कि अटपटा भी लगता है। खास बात यह है कि जापान में माफी मांगना किसी गलत काम की स्वीकारोक्ति नहीं, बल्कि शिष्टाचार व विनम्रता का संकेत माना जाता है और विनम्रता जापानी संस्कृति में बेहद महत्वपूर्ण गुण माना गया है। इसीलिए वहां की भाषा में क्षमायाचना के लिए कई अलग-अलग शब्द निर्धारित हैं। सामने वाले की उम्र, उससे आपके परिचय के स्तर और घटनाक्रम की परिस्थिति के हिसाब से तय होता है कि आपको माफी मांगने के लिए कौन-से शब्द या शब्दों का उपयोग करना है। इसके साथ ही शारीरिक मुद्रा का भी अहम स्थान होता है। यूं तो जापानी एक-दूसरे के अभिवादन में भी थोड़ा झुकते हैं लेकिन माफी मांगने के लिए अधिक झुका जाता है व अधिक देर के लिए झुका जाता है।
जापान की ही तरह, पड़ोसी चीन के गुआंगझाऊ क्षेत्र में भी माफी मांगने के लिए कई शब्द व वाक्यांश निर्धारित हैं। अपनी गलती के लिए आप कितनी ग्लानि महसूस कर रहे हैं, इसके आधार पर तय होता है कि आप किन शब्दों में माफी मांगेंगे। इनमें 'क्षमा करना" से लेकर 'मुझसे गलती हो गई, मुझे सजा दो" तक शामिल है।
ब्रिटिश लोगों की भी ख्याति बात-बात पर क्षमायाचना के लिए रही है। 'सॉरी" कहना किस कदर उनके अवचेतन में रच-बस गया है, यह कुछ समय पहले मानवशास्त्री केट फॉक्स द्वारा किए गए एक प्रयोग से सामने आया। केट कई शहरों-कस्बों में घूम-घूमकर राह चलते लोगों से जान-बूझकर टकराती गईं। उन्होंने पाया कि लगभग 80 प्रतिशत लोगों ने टकराने के लिए 'सॉरी" कहा, इसके बावजूद कि दोष केट का था, न कि उनका! इनमें से बड़ी संख्या में लोग बिना कुछ सोचे 'सॉरी" बोल रहे थे या फिर अपनी ही धुन में 'सॉरी" बोलते हुए निकल रहे थे। यानी जिनमें वास्तव में क्षमा का भाव नहीं था, वे भी आदतन यह शब्द बोल रहे थे।
हां, ब्रिटेन ने सदियों तक भारत समेत दुनिया के अनेक देशों पर जो अत्याचार किए, उसके लिए आधिकारिक क्षमायाचना का अब भी उसके तमाम पूर्व उपनिवेशों को इंतजार है। इन्हीं में से एक उपनिवेश ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने जरूर वहां के मूल निवासियों पर किए गए जुल्मों के लिए आधिकारिक रूप से माफी मांगी है और इसी की स्मृति स्वरूप वहां अब हर साल 26 मई को राष्ट्रीय क्षमा दिवस मनाया जाता है।

Sunday 19 August 2018

दांतों से नियंत्रित होता भाग्य!


दांत का टूटकर गिरना हमारे लिए खास घटना रहता आया है। कारण है दांतों में रूहानी ताकत व जादुई शक्तियां होने का विश्वास। इससे उपजे हैं दांत संबंधी अनेक रिवाज और मिथक।
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एक समय था, जब योरप के लोग दृढ़ता से मानते थे कि यदि हमारा एक भी दांत किसी डायन या जादूगरनी के हाथ लग जाए, तो वह इसके माध्यम से हमारे भाग्य को नियंत्रित कर सकती है। इसलिए टूटे हुए दांतों का क्या किया जाए, यह एक अहम प्रश्न था। यह प्रश्न तब और भी अहम हो जाता था, जब बच्चे दूध के दांत गिरने के दौर से गुजर रहे होते। इसलिए इन दांतों को 'ठिकाने लगाने" के कुछ खास तरीके ईजाद किए गए। कहीं दांतों को जमीन में गाड़ दिया जाता, तो कहीं आसमान में उछाल दिया जाता। मध्ययुगीन इंग्लैंड में बच्चे के दांत को जला दिया जाता था। लोगों का विश्वास था कि यदि टूटकर शरीर से अलग हुए दांत का ठीक से निपटारा न किया गया, तो मृत्यु के बाद उसकी आत्मा दांत की तलाश में अनंतकाल तक भटकती रहेगी!
चूहे, गिलहरी आदि जैसे जीवों की ख्याति उनके मजबूत दांतों के लिए है। इसलिए इंसानी दांतों संबंधी कई मिथक भी किसी--किसी तरह इनसे जुड़े हैं। कुछ पश्चिमी देशों में टूटे हुए दांत को चूहे को 'खिलाने" का रिवाज था। लोग मानते थे कि यदि बच्चे का दूध का दांत किसी चूहे या गिलहरी को खिला दिया जाए, तो बच्चे को आने वाला स्थायी दांत खूब मजबूत व टिकाऊ होता है। माना जाता है कि टूटे दांत के बदले बच्चे को पैसे या कोई तोहफा देने की परंपरा स्कैंडिनेवियाई देशों से शुरू हुई। बाद में यह परंपरा अलग-अलग रूपों में कई अन्य देशों में फैली। दांत टूटने पर माता-पिता उसे बच्चे के तकिए के नीचे रख देते। फिर जब बच्चा सो जाता, तो तकिए के नीचे से दांत को हटाकर कुछ पैसे या तोहफा रख देते। बच्चे के जागने पर उससे कहा जाता कि यह टूटे दांत के एवज में दंत परी या चूहा या फिर कोई और छोड़ गया है। अर्जेंटीना में तो दांत ले जाने वाले चूहे का खास खयाल रखा जाता है। दांत को बच्चे के सिरहाने रखा जाता है और पास में पानी का ग्लास भी रखा जाता है ताकि जब चूहा दांत लेने आए, तो पहले अपनी प्यास बुझाए, फिर दांत लेकर अपने सफर पर आगे बढ़े! जागने पर बच्चा पाता है कि ग्लास में पानी की जगह रुपए रखे हैं, जो चूहा उनके लिए छोड़ गया है।
दांतों को शरीर के सबसे मजबूत अंगों में माना जाता आया है। कई लोगों के बीच तो यह धारणा भी रही है कि दांत अनश्वर होते हैं। इसके चलते दांत को माला में पिरोकर पहनने का रिवाज भी पनपा। युद्ध में अपनी रक्षा की खातिर सैनिक इस तरह की दांतों वाली माला या तावीज पहनकर जाते! दांतों में भौतिक ताकत ही नहीं, रूहानी ताकत के भी होने का विश्वास अनेक संस्कृतियों में व्याप्त था। दक्षिण अमेरिका की माया सभ्यता के लोग अपने दांतों की रूहानी ताकत बढ़ाने के लिए इनमें फिरोजा व जेड जैसे रत्न जड़ते थे।
कहीं-कहीं दांतों की जमावट के आधार पर भविष्य दर्शन का भी दावा किया जाता है। नॉर्वे में ऐसी मान्यता है कि यदि आपके दांत एक-दूसरे से दूर-दूर हैं, तो आप दूर देशों की यात्राएं करेंगे। वहीं, यदि आपके दांत एक-दूसरे के बहुत पास-पास हैं, तो आप हमेशा अपने घर व प्रियजनों के करीब रहेंगे। यदि आपके दांत एक-दूसरे के ऊपर चढ़ रहे हों, तो आप कंजूस निकलेंगे। यह तो हुई नॉर्वे के लोगों की मान्यता। हांग कांग के लोग मानते हैं कि यूं एक-दूसरे पर चढ़ रहे दांतों वाले लोग झगड़ालू होते हैं!

Sunday 8 July 2018

जब नाच उठा सूखे का भय और बह निकली नदी


बारिश कराने के लिए कोई नृत्य करता है, तो कोई देवताओं को दावत देता है। हर हाल में बरसात पाकर रहने के लिए हमारे पूर्वजों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है...
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उत्तर अमेरिका के एक समुदाय में प्रचलित जनश्रुति के मुताबिक, एक बार ऐसा सूखा पड़ा कि कई महीनों तक बारिश ही नहीं हुई। मैदान सूख गए, नदी सूख गई, पशु मरने लगे। लोग आसमान ताकते रहते लेकिन कोई राहत नहीं मिलती। धीरे-धीरे पूरे इलाके में 'भय" का राज होने लगा। हर किसी पर यह हावी होने लगा। फैलते-फैलते चारों ओर भय फैल गया। बस, गांव के बाहरी छोर पर वह स्थान इससे बचा रह गया, जहां बच्चे खेलते थे और बुजुर्ग गपियाते थे। जब भय वहां जा पहुंचा, तो बच्चों ने उसे आश्चर्य से देखते हुए बुजुर्गों से पूछा कि यह कौन आया है? बुजुर्गों ने बताया कि यह भय है। जब बच्चों ने पूछा कि क्या यह हमारे साथ खेलने आया है, तो बुजुर्ग बोले, 'यह तो खेलना भूल चुका है।"
बच्चों ने सोचा कि कुछ ऐसा किया जाए कि भय को फिर से खेलना आ जाए। तय हुआ कि वे नृत्य करेंगे, तो शायद भय फिर से खेलने लगे। बच्चों ने नृत्य करना शुरू किया। बुजुर्ग भी गीत गाते हुए उनका साथ देने लगे। जब इनके नृत्य व गीत की आवाज आसपास के गांवों तक पहुंची, तो लोग देखने आए कि क्या माजरा है। देखते ही देखते वे भी नृत्य में शामिल हो गए। इस प्रकार नृत्य का सिलसिला चलता रहा। आखिरकार भय भी खुद को रोक न सका और सबके साथ थिरकने लगा। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे और होंठों पर हंसी लौट आई। उसके साथ-साथ नृत्य करने वाले लोगों के भी आंसू बहने लगे। तभी हवा वहां आई और सारा नजारा देखकर न सिर्फ दूर-दूर से पशु-पक्षियों को बुला लाई, बल्कि खुद भी नृत्य में शामिल हो गई। सभी नाचे जा रहे थे और आंसू बहाए जा रहे थे। इन सबके आंसू धरती पर पड़ते गए और देखते ही देखते सूखी नदी फिर पानी से भर गई।
यह कहानी उत्तर अमेरिका के आदिवासी समुदायों में प्रचलित रही उस परंपरा से जोड़ी जाती है, जिसमें वर्षा का आह्वान करने के लिए विशेष नृत्य किया जाता है। दरअसल, जीवन के लिए वर्षा का महत्व तो मनुष्य काफी पहले ही जान चुका था लेकिन लंबे समय तक वह इससे अवगत नहीं था कि मौसम चक्र कैसे चलता है और बारिश कैसे होती है। सो जीवनदायी बरसात जब रूठी हुई लगे तो उसे मनाने के भांति-भांति के टोटके तलाशे गए। ऐसे ढेरों टोटके हमारे देश में अब भी अपनाए जाते देखे जा सकते हैं। अन्य देशों-संस्कृतियों में भी बारिश कराने के लिए विभिन्ना प्रकार के उपाय किए जाते रहे हैं। दक्षिण अमेरिका की माया सभ्यता में वर्षा के देवता चाक को प्रसन्ना करने के लिए आलीशान दावत का आयोजन किया जाता था। वहीं कई स्थानों पर इसके लिए बलि देने का चलन भी रहा है। कई देशों में ऐसे जादूगर/ ओझा होते थे, जो वर्षा करा सकने का दावा करते थे। समाज में इनका विशेष स्थान हुआ करता था। कुछ अफ्रीकी देशों में तो बारिश कराना खानदानी पेशा भी हुआ करता था!
थाइलैंड में एक अजीबोगरीब परंपरा रही है, जिस पर पशु क्रूरता के खिलाफ लड़ने वालों को आपत्ति भी हो सकती है। वहां जब लंबे समय तक बारिश नहीं होती है, तो एक बिल्ली को टोकरी में रखकर गांव भर में उसका जुलूस निकाला जाता है। जिन-जिन घरों के सामने से जुलूस निकलता है, वहां से बिल्ली पर पानी फेंका जाता है। लोग मानते हैं कि पानी पड़ने से चिढ़कर/ घबराकर बिल्ली जो 'म्याऊं-म्याऊं" करती है, उससे बारिश होने लगती है!

Sunday 1 July 2018

जिसके बिना अधूरा है देवताओं का अस्तित्व


सोने को सदा चुनौती देती आई चांदी की कीमत उसकी प्रतीकात्मकता व धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व में निहित है। इसके बिना तो देवी-देवताओं का अस्तित्व भी अधूरा माना गया है।
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अफगानिस्तान की एक बड़ी प्यारी-सी लोककथा है। एक गरीब किसान जी-तोड़ मेहनत करने के बाद भी तंगहाली से मुक्त नहीं हो पा रहा था। वह कल्पना किया करता था कि काश किसी दिन उसका घर धन-दौलत से भर जाए! एक दिन वह खेत में काम कर रहा था कि अचानक कंटीली झाड़ियों में उसके कपड़े फंसकर फट गए। उसने यह सोचकर झाड़ी उखाड़ना शुरू की कि कहीं दोबारा इसकी वजह से किसी के कपड़े न फट जाएं। जब झाड़ियों की जड़ों के साथ कुछ मिट्टी भी उखड़ आई, तो उसने देखा कि नीचे एक बड़ा-सा मर्तबान दफन है। मर्तबान निकालकर व खोलकर देखा, तो वह दंग रह गया। उसमें चांदी के सिक्के भरे पड़े थे। उसने सोचा, 'मैंने धन-दौलत चाही तो थी लेकिन अपने घर में। मैं कैसे मान लूं कि यह दौलत मेरे ही लिए है!" यह सोचकर वह मर्तबान वापस वहीं गाड़कर घर चला आया। बीवी को बताया, तो वह आग-बबूला हो गई कि कैसा अहमक है, हाथ लगी दौलत को घर लाने से इनकार कर रहा है! रात को वह पड़ोसी के पास गई और उसे खेत में दफन खजाने के बारे में बताते हुए कहा कि मेरा शौहर तो उसे ला नहीं रहा, तुम जाकर ले आओ और आधा खजाना मेरे साथ बांट लो।
पड़ोसी तुरंत खेत की ओर लपका। उसे वह मर्तबान मिल भी गया मगर जैसे ही उसने उसे खोलकर देखा, तो पाया कि वह जहरीले सांपों से भरा है। उसने तुरंत मर्तबान का ढक्कन लगा दिया और सोचने लगा कि पड़ोसन मेरी जान की दुश्मन है, तभी मुझे इस लालच में फंसाया। उसे सबक सिखाने के इरादे से वह मर्तबान उठा लाया और किसान के घर की छत पर चढ़कर उसकी चिमनी में मर्तबान खाली कर दिया। वह यह सोचकर संतुष्ट था कि जहरीले सांप किसान पति-पत्नी का काम तमाम कर देंगे। मगर अगली सुबह जब किसान की नींद खुली, तो उसने देखा कि उसका घर चांदी के सिक्कों से भर गया है- ठीक वैसे ही, जैसे कि उसने इच्छा की थी...
गौर करें, एक भोले, गरीब किसान को मालामाल होते दिखाने के लिए यहां सोना नहीं, चांदी को माध्यम बताया गया है। धातु जगत में धन-दौलत की चरम सीमा का प्रतीक होना सोने का एकाधिकार नहीं, इसमें चांदी की भी भागीदारी है। वैसे सोने के साम्राज्य के आगे चांदी की सल्तनत भी हमेशा पूरे ठस्से से खड़ी रहती ही आई है। प्राचीन मिस्र में तो कहा गया था कि देवी-देवताओं के शरीर का मांस सोने का और अस्थियां चांदी की होती हैं। यानी देवी-देवताओं के अस्तित्व के लिए भी सोने के साथ-साथ चांदी का होना अनिवार्य है।
अपने रंग-रूप के कारण अनेक स्थानों पर चांदी का संबंध चंद्रमा से जोड़ा गया। साथ ही, यह कई चीजों की प्रतीक भी रही है। इसका उपयोग आभूषण बनाने व सिक्के ढालने में तो होता ही रहा है मगर इसका वास्तविक मूल्य इससे कहीं बढ़कर होता आया है। वजह है, इससे जुड़ी प्रतीकात्मकता और धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व। अनेक स्थानों पर इसे प्रेम, सत्यनिष्ठा, विश्वास व बुद्धिमत्ता के प्रतीक के तौर पर किसी को भेंट करने की परंपरा रही है। लिथुएनिया में विवाह में आने वाले मेहमान चांदी के सिक्के लेकर आते हैं। जब नृत्य शुरू होता है, तो सभी मेहमान अपने-अपने सिक्के नृत्य स्थल पर बिखेर देते हैं। बाद में इन सिक्कों को एक पात्र में इकट्ठा कर दिया जाता है और इनमें एक खास सिक्का मिला दिया जाता है, जिस पर वर-वधु के नामों के पहले अक्षर दर्ज होते हैं। अब मेहमानों से कहा जाता है कि वे बारी-बारी से पात्र में से एक सिक्का निकालें। जिस मेहमान के हाथ वर-वधु के नाम वाला विशेष सिक्का आता है, उसे वर या वधु के साथ नृत्य करने का मौका मिलता है।