Sunday 26 July 2015

ओस में कैद चांदनी का 'मोती" हो जाना


चांदनी से भरी ओस की बूंद या देवी-देवताओं के आंसू या फिर ड्रैगन के दिमाग की उपज..! मोती की उत्पत्ति को लेकर प्रचलित तिलस्मी किस्से इसे जादुई गुणों के विश्वास को पुख्ता करते हैं।
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के आसिफ की क्लासिक फिल्म 'मुगले आजम" के एक दृश्य में शहजादे सलीम को महल में प्रवेश करते हुए दिखाया गया है, जिसमें उनकी राह में ढेरों मोती बिछाए जा रहे हैं। कहते हैं कि जब यह दृश्य (फिल्मी परंपराओं और व्यवहारिकता के तकाजे के अनुसार) नकली मोतियों के साथ शूट किया जा रहा था, तो निर्देशक के आसिफ को कुछ जंचा नहीं। उन्होंने पाया कि नकली मोती असली मोतियों की मानिंद जमीन पर नहीं गिर रहे, अलग तरह की आवाज कर रहे हैं और तो और टूट भी रहे हैं। बस, उन्होंने तय कर लिया कि असली मोती मंगाए जाएं और तब यह दृश्य फिल्माया जाए। जब निर्माता शापुरजी पल्लनजी ने उनकी फरमाइश सुनी, तो इतनी बड़ी मात्रा में असली मोती जुटाने के लिए पैसा देने से साफ इनकार कर दिया। आसिफ अड़ गए और आखिरकार निर्माता को झुकना पड़ा। आसिफ के शहजादे की राह में असली मोती ही बिछाए गए। तो इस प्रकार के आसिफ ने 'परफेक्शन" की अपनी तलाश के बीच मोतियों के मामले में अपनी पारखी नजर की बानगी प्रस्तुत की।
मानव की पारखी नजर ने मोती के महत्व को कई सहस्त्राब्दियों पहले पहचान लिया था। पाया गया है कि मिस्र में चौथी सहस्त्राब्दि ईसा पूर्व में मोतियों को सजावटी वस्तु के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था। पहली बार मोती से किसी मनुष्य का साक्षात्कार कैसे हुआ होगा, यह कहना मुश्किल है। बहुत संभव है कि समुद्र के किनारे भोजन की तलाश करते हुए उसकी नजर इस पर पड़ी हो और इस चमचमाते अजूबे ने उसे मंत्रमुग्ध कर दिया हो। बस, तभी से यह मनुष्य का पसंदीदा रत्न बन गया हो।
हां, मोती कहां से और कैसे आया, इस बारे में जरूर कई तरह के किस्से कहे जाते आए हैं। अधिकांश जगहों पर इसका संबंध चांद से जोड़ा गया है। अरब, ग्रीस और रोम के लोग मानते थे कि मोती तब बनता है, जब चांदनी से भरी ओस की बूंदें समुद्र में आ गिरती हैं और सीपियों द्वारा उन्हें निगल लिया जाता है। यही मोती के रूप में सामने आती हैं। फारस (ईरान) के लोग तो यहां तक मानते थे कि किसी मोती में पाई जाने वाली खामी के लिए ओस बरसते समय आसमान में चमकती बिजली जिम्मेदार होती है! एक अन्य किंवदंति है कि चांद जब समुद्र में स्नान करने के लिए आता है, तो सीपियां उसकी रोशनी से आकर्षित हो सतह पर आ जाती हैं और उसके द्वारा छोड़ी गई ओस की बूंदों का सेवन कर लेती हैं। यही बाद में मोती के रूप में सामने आती हैं। चीन के लोग मानते थे कि मोती की उत्पत्ति ड्रैगन के मस्तिष्क में होती है और आसमान में जब ड्रैगनों की लड़ाई होती है, तो ये मोती नीचे समुद्र में आ गिरते हैं। कुछ जगहों पर मोतियों को देवताओं के आंसू के रूप में भी देखा जाता है। एक धारणा यह भी है कि स्वर्ग से निष्कासित आदम और हौवा के आंसुओं से एक झील बन गई थी और इसी झील से दुनिया के सारे मोतियों की उत्पत्ति हुई।
भारतीय पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि भगवान कृष्ण ने समुद्र में गोता लगाकर पहले-पहल मोती पाया था, जिसे उन्होंने अपनी पुत्री के विवाह पर उसे भेंट किया। आज भी अनेक संस्कृतियों में विवाह के अवसर पर दुल्हन का मोतियों के आभूषण पहनना शुभ माना जाता है। कहते हैं कि इससे सुखी वैवाहिक जीवन सुनिश्चित होता है और दूल्हा हमेशा दुल्हन के प्रति वफादार रहता है। दरअसल चांद तथा देवी-देवताओं से संबंध जुड़ने के कारण अधिकांश देशों-संस्कृतियों में मोतियों को कई प्रकार के तिलस्मी गुणों से युक्त माना जाने लगा। युद्ध पर जाते योद्धा शक्ति के स्रोत और सुरक्षा कवच के तौर पर मोतियों की माला धारण करते थे। यही नहीं, इनमें अनेक बीमारियों को दूर करने की क्षमता होती है, ऐसा विश्वास भी सदियों से चला आया है।

मोती की खासियत यह है कि यह एकमात्र रत्न है, जो किसी जीवित प्राणी से पाया जाता है। प्राकृतिक रूप से मिलने वाले मोती अपनी दुर्लभता के कारण हमेशा से अत्यधिक महंगे रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि ये केवल राजे-महाराजों और अन्य श्रेष्ठि वर्ग के लोगों की ही पहुंच में रहे। एक रोमन जनरल के बारे में तो कहा जाता है कि उसने अपनी मां की एक जोड़ी मोती की बालियां बेचकर एक पूरे युद्ध के खर्च की व्यवस्था कर ली थी! अब कृत्रिम रूप से तैयार मोतियों ने अपना साम्राज्य खासा फैला दिया है। ... भले ही आसिफ साहब ने अपने 'शहजादे" के लिए इस साम्राज्य को ठुकरा दिया हो...! 

Sunday 19 July 2015

भूल गया सब कुछ...

हमारा वजूद हमारी यादों के टेके पर खड़ा है। यादें नहीं हैं, तो हम नहीं हैं। हाड़-मांस का पुतला एक जैविक 'वस्तु" मात्र होता है। उसे जिला देती हैं यादें। ऐसे में यह सोचना ही बड़ा विस्मयकारी लगता है कि किसी की याददाश्त चली जाए, तो उस पर क्या बीतती है। शायद एक कोरी स्लेट पर उभरते अनजान हरफों जैसा कुछ...
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पिछले दिनों एक ऐसे व्यक्ति के बारे में खबर आई, जिसे 90 मिनट से ज्यादा कुछ याद नहीं रहता! ब्रिटेन का यह नागरिक रूट कनाल ट्रीटमेंट के लिए दांतों के डॉक्टर के पास गया था और उसके बाद से उसे सिर्फ वही घटनाएं याद रहती हैं, जो बीते 90 मिनट में घटी हों। यही नहीं, रोज सुबह उठने पर उसे लगता है कि यह वही दिन है जब उसे डेंटिस्ट के यहां जाना है। यह क्रम बीते दस साल से जारी है! वह अपनी पहचान नहीं भूलता और न ही उसके व्यक्तित्व में कोई बदलाव आया है। बस, उसका दिमाग 90 मिनट के पिंजरे का चक्कर लगाकर रोज सुबह वापस उस दिन पर जा पहुंचता है, जब वह अपनी दाढ़ का इलाज कराने गया था। अभी तक डॉक्टर उसकी बीमारी का इलाज नहीं खोज पाए हैं, हालांकि वे कहते हैं कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि डेंटिस्ट द्वारा किए गए इलाज की वजह से उसकी यह हालत हुई...
किस्सा बड़ा दिलचस्प लगता है। आम तौर पर ऐसे किस्से फिल्मों में देखने को मिलते हैं। मसलन, 'गजनी" के नायक की याददाश्त हर 15 मिनट बाद चली जाती है। याददाश्त जाने (और वापस आने) के किस्सों की फिल्म जगत में भरमार रही है। किसी दुर्घटना या हमले में सिर पर चोट लगी और याददाश्त चली गई। फिर कहानी के अंत के आसपास दोबारा सिर के उसी हिस्से पर वैसी ही चोट लगी, और लो! आ गई याददाश्त मानो कुछ दिन के सैर-सपाटे पर गई थी...। हॉलीवुड की फिल्मों के लिए भी यह कई दशकों से पसंदीदा विषय रहा है। दरअसल, याददाश्त का चला जाना ऐसा विषय है, जो कहानीकारों को मुग्ध कर ही देता है। कारण यह कि हमारा वजूद हमारी यादों के टेके पर ही खड़ा है। यादें नहीं हैं, तो हम नहीं हैं। हाड़-मांस का पुतला एक जैविक 'वस्तु" मात्र होता है। उसे जिला देती हैं यादें। पल भर पहले की यादों से लेकर बरसों-दशकों पहले की यादें, अच्छी और बुरी यादें, प्यार और नफरत की यादें, नसीहतों और अनुभवों की यादें...। ऐसे में यह सोचना ही बड़ा विस्मयकारी लगता है कि किसी की याददाश्त चली जाए, तो उस पर क्या बीतती है। शायद एक कोरी स्लेट पर उभरते अनजान हरफों जैसा कुछ...। कहने की जरूरत नहीं कि किस्से-कहानियों और फिल्मों में स्मृतिलोप के ये किस्से जिस नाटकीय तरीके से पेश किए जाते हैं, उनका हकीकत से रिश्ता कम ही होता है। मगर ब्रिटेन के उक्त नागरिक के साथ जो घटा है, वह दर्शाता है कि कभी-कभी वास्तविकता भी नाटकीयता के मामले में पीछे नहीं रहती।
हकीकत और नाटकीय कल्पनाओं के बीच झूलती याददाश्त हमारी जनश्रुतियों और आख्यानों में भी खास जगह बना गई है। दुष्यंत की याद में डूबी शकुंतला ने अनजाने में दुर्वासा ऋषि की उपेक्षा की, तो क्रुद्ध ऋषि ने श्राप दे डाला कि जिसकी याद में तू डूबी है, वही तुझे भूल जाएगा। अपने श्राप की कठोरता का आभास होने पर यह भी जोड़ा कि उसके द्वारा दी गई कोई निशानी दिखाने पर उसे सब कुछ याद आ जाएगा...। उधर दुष्यंत शकुंतला और उससे किया गया गंधर्व विवाह भूल बैठा और उसकी दी हुई अंगूठी खोने की वजह से शकुंतला बेबस हो गई। बरसों बाद एक मछुआरे के माध्यम से अंगूठी सामने आने पर दुष्यंत को सब कुछ याद आया...
यूनानी पौराणिक मान्यताओं के अनुसार परलोक की पांच नदियों में से एक नदी लीथी भी है, जिसका पानी पीने वाले की सारी स्मृति चली जाती है। आत्माओं के लिए यहां का पानी पीकर अपने इस जन्म की सारी यादों को मिटा देना अनिवार्य है, ताकि वे नया जन्म ले सकें। यूनान में स्मृतिलोप की देवी का नाम भी लीथी है। इसके अलावा वहां स्मृतिलोप के आसन का भी उल्लेख आता है, जिस पर बैठने वाले की सारी स्मृति जाती रहती है।

हां, असल जीवन में स्मृतियों को जाना किसी तिलस्मी नदी या आसन का मोहताज नहीं होता। बढ़ती उम्र का प्रवाह कब याददाश्त को थोड़ा-थोड़ा कुरेदकर मिटाता चलता है, पता ही नहीं चल पाता...।