Sunday 13 December 2015

शुभ-अशुभ के बीच सम-विषम

हम अंकों को गिनती का साधन मात्र मानने से संतुष्ट नहीं होते, इन्हें अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ, दैवी-दानवी के संदर्भ में भी देखना चाहते हैं। यही कारण है कि विभिन्ना अंकों को लेकर तरह-तरह की मान्यताएं बनती और चलती आई हैं। इस मामले में, खास तौर पर अंकों की 'समता" और 'विषमता" को हमने बहुत गंभीरता से लिया है।
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सम-विषम संख्याओं की इन दिनों बड़ी चर्चा है। दिल्ली की हवा को इन संख्याओं पर आधारित फॉर्मूला किस हद तक साफ कर पाता है, यह तो बाद में पता चलेगा, मगर इतना तो हम कह ही सकते हैं कि संख्याओं का यह विभाजन लगभग तभी से हमें मुग्ध करता आया है, जब से यह अस्तित्व में आया। कहने को इन दोनों प्रकार की संख्याओं में अंतर मात्र इतना है कि सम संख्याएं दो समान हिस्सों में बांटी जा सकती हैं, जबकि विषम संख्याएं इस प्रकार नहीं बांटी जा सकतीं। मगर मानव के मानस में संख्याओं का यह विभाजन कहीं अधिक गहरे पैठा हुआ है। हमने सम और विषम अंकों में कई अर्थ तलाशे हैं। उनके साथ गुण-अवगुण नत्थी कर दिए हैं। उन्हें ताकत और कमजोरी से जोड़ा है। हम अंकों को गिनती का साधन मात्र मानने से संतुष्ट नहीं होते, इन्हें अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ, दैवी-दानवी के संदर्भ में भी देखना चाहते हैं। यही कारण है कि विभिन्ना अंकों को लेकर तमाम देशों-संस्कृतियों में तरह-तरह की मान्यताएं बनती और चलती आई हैं। इस मामले में, खास तौर पर अंकों की 'समता" और 'विषमता" को हमने बहुत गंभीरता से लिया है।
मोटे तौर पर, अधिकांश समाजों में विषम संख्याओं को शुभ और सम संख्याओं को अशुभ माना गया है। इसका कोई सर्वमान्य, तार्किक कारण रेखांकित करना मुश्किल है। संभवत: दो समान हिस्सों में बंट जाना ही सम संख्याओं की कमजोरी के रूप में देखा गया और इन्हें गैर-भरोसेमंद तथा प्रकारांतर से अशुभ माना गया। दूसरी ओर, इस तरह विभाजित न होना विषम संख्याओं की ताकत माना गया और उन्हें बलशाली तथा शुभ कहा गया। संभवत: ग्रीक मूल का एक विचार यह भी रहा है कि चूंकि '1" प्रारंभिक अंक है, इसलिए यह सभी अंकों का जनक हुआ। इस नाते इसे दिव्य भी माना जा सकता है। यानी जिस प्रकार ईश्वर सारे संसार का जनक है, उसी प्रकार '1" सारे अंकों का जनक होने के नाते अंकों का 'ईश्वर" हुआ। '1" की यह दिव्यता शेष विषम अंकों पर भी कृपा बरसा गई। वहीं चूंकि '1" के ठीक बाद '2" आता है, सो इसे ठीक विपरीत गुणों वाला और शैतान के तुल्य माना गया। साथ ही, अन्य सम अंकों को भी इस शैतानियत का भागी बना डाला गया।

चीन में विषम संख्याओं को आसमानी और सम संख्याओं को जमीनी माना गया है। लिंगभेद करते हुए विषम संख्याओं को नर और सम संख्याओं को मादा भी कहा गया है। जापान में विषम संख्याओं को अहम माना गया है। वहां किसी बच्चे की उम्र का तीसरा, पांचवां और सातवां पड़ाव महत्वपूर्ण माना जाता है। वहां 3 साल के लड़के-लड़कियों, 5 साल के लड़कों और 7 साल की लड़कियों को उनके विकास का उत्सव मनाने के लिए मंदिर ले जाया जाता है। वहीं जापानी मान्यताओं में सम संख्याओं को कतई अच्छा नहीं माना जाता। '2" का संबंध बंटवारे से और '4" का संबंध मृत्यु से है। यही कारण है कि वहां अस्पतालों में किसी वॉर्ड को 4 नंबर देने से बचा जाता है, ठीक उस तरह जैसे पश्चिम में 13 नंबर से बचा जाता है! रूस में भी सम संख्या को मृत्यु से जोड़कर देखा जाता है। लोग शवयात्रा में सम संख्या में फूल लेकर पहुंचते हैं, जबकि खुशी के अवसरों पर हमेशा किसी को विषम संख्या में फूल भेंट किए जाते हैं। इंग्लैंड में तो एक समय ऐसा भी आया, जब विषम संख्याओं के प्रति भक्ति चिकित्सा के क्षेत्र में भी जा पहुंची। तब चिकित्सक अपने मरीजों को 3, 5, 7, 9 आदि दिनों के लिए दवाएं देते थे! नुस्खे भी 'विषम" ही होते थे, जैसे फलां चीज के 3 दाने या अलां चीज की 5 बूंदें। गोया 'विषम" ही हर मर्ज की दवा हो...! 

Sunday 15 November 2015

आंसू, जो हिला दें जमीन-आसमान...!

आंसुओं से मनुष्य जीवन का ऐसा नाता है कि यह संभव ही नहीं था कि जनश्रुतियों और पौराणिक कथाओं में इनका उल्लेख न आए।
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बताते हैं कि कई सदियों पहले एक आदमी सागर किनारे सील का शिकार करने गया। एक जगह उसे कई सारी सील रेत पर बैठी दिखी, तो वह खुश हो गया कि आज उसे, उसकी पत्नी और बेटे को भरपेट भोजन मिलेगा। वह सावधानी से आगे बढ़ने लगा लेकिन सीलों को उसके आने की भनक लग गई और वे एक-एक कर फुर्ती से पानी में प्रवेश करने लगीं। मगर एक सील रेत पर ही बैठी रही। आदमी ने सोचा, 'यह एक सील भी हमारे परिवार की भूख मिटाने के लिए पर्याप्त है। शायद इसकी किस्मत में हमारा भोजन बनना ही लिखा है, इसीलिए यह पानी में नहीं जा रही।" मगर पास जाकर जैसे ही वह उस सील पर झपटा, वह पलक झपकते ही पानी में समा गई। पहुंच के भीतर दिख रही दावत हाथ से निकल जाने पर आदमी स्तब्ध रह गया। जब वह अपनी स्तब्धता से बाहर आया, तो उसने अपने भीतर एक विचित्र भाव उमड़ते महसूस किया, जो उसने पहले कभी नहीं महसूसा था। उसके मुंह से सिसकियों की अजीब-सी आवाज आ रही थी। तभी उसने पाया कि उसकी आंखों से पानी जैसा कुछ झड़ रहा है। उसने अपनी आंखों को छुआ और उस पानी को चखा। वह खारा था...। कहते हैं यही मनुष्य की पहली रुलाई थी।
उत्तरी अमेरिका के इनुइट आदिवासियों में रुलाई और आंसुओं की उत्पत्ति से जुड़ी यह कथा कल्पना की भोली-सी उड़ान ही लगती है, जैसी कि जनश्रुतियां अक्सर होती हैं। मगर गौर करें, तो यह विचार आता है कि भावनाओं के चरम पर पहुंचकर आंसू बहाने का पहला मानवीय अनुभव शायद ऐसा ही कुछ रहा होगा। किसी उम्मीद पर तुषारापात जब दिल तोड़ देने की हद तक तीव्रता से महसूस हो, तो भावनाओं का बांध फूट पड़ना लाजिमी है। उदरपूर्ति का भी एक भावनात्मक पक्ष होता है और आदिम मानव के लिए तो शायद अपनी व अपनों की भूख शांत करना उतनी ही बड़ी भावनात्मक जरूरत थी, जितनी कि भौतिक। कुल जमा यह कि बचपन को छोड़ दें, तो मनुष्य ने अपने पहले-पहले आंसू भोजन के हाथ से निकल जाने पर बहाए होंगे, यह बहुत मुमकिन है। वैसे, आंसुओं से मनुष्य जीवन का ऐसा नाता है कि यह संभव ही नहीं था कि जनश्रुतियों और पौराणिक कथाओं में इनका उल्लेख न आए।
भारत में रुद्राक्ष को भगवान शिव के आंसू माना जाता है। इसी प्रकार मिस्र में मधुमक्खियों को सूर्य देवता के आंसू कहा जाता है। अमेरिका में ज्वालामुखी के लावा में पाए जाने वाले ऑब्सीडियन नामक काले कांच-नुमा पदार्थ को अपाची आंसू भी कहा जाता है। बताते हैं कि एक बार अमेरिकी सेना के हाथों अपनी हार को निश्चित मान अपाची योद्धाओं ने पहाड़ से कूदकर अपनी जान दे दी थी। उनके परिजनों के आंसू जमीन पर गिरकर ऑब्सीडियन बन गए।
ग्रीक मिथकों में नायबी नामक रानी के बारे में बताया जाता है, जिसके सात बेटे और सात बेटियां थीं। एक दिन उसने देवराज ज़्युस की पत्नी लीटो के समक्ष कह दिया कि 14 बच्चों की मां होने के नाते मैं तुमसे श्रेष्ठ हुई क्योंकि तुम्हारे तो 2 ही बच्चे हैं। जब लीटो के पुत्र अपोलो और पुत्री आर्टेमिस को यह पता चला, तो उन्होंने अपनी मां के अपमान का बदला लेने की ठानी। उन्होंने नायबी के सामने ही उसके सारे बच्चों को एक-एक कर कत्ल कर दिया। बच्चों को खोने पर नायबी के पति एम्फियॉन ने आत्महत्या कर ली। इस प्रकार नायबी के पूरे परिवार का सफाया हो गया। उसके ऊपर जैसे पहाड़ टूट पड़ा। उसके विलाप का कोई अंत न था। आखिरकार वह देवराज ज़्युस के पास गई और उनसे अपनी पीड़ा से मुक्ति के लिए गुहार लगाई। ज़्युस को उस पर दया आ गई और उन्होंने उसे पत्थर बना दिया, जिससे वह भावनाओं से मुक्त हो और उसकी रुलाई का अंत हो। मगर कहते हैं कि पत्थर बनने के बाद भी नायबी के आंसुओं का बहना नहीं रुका। ये आज भी बह रहे हैं। सिपलस पर्वत पर स्थित एक चट्टान, जिससे पानी की धार बहती है, का आकार एक महिला के चेहरे-सा जान पड़ता है।

आंसुओं से जुड़ी एक कथा का संबंध चीन की दीवार से भी है। इस दीवार के निर्माण कार्य में लगाए गए लाखों मजदूरों में मेंग जियांग नू नामक महिला का पति भी था। जब कई महीनों तक पति की कोई खबर नहीं मिली, तो वह उसे ढूंढते हुए बर्फीले उत्तरी इलाके में जा पहुंची, जहां दीवार का निर्माण कार्य चल रहा था। बहुत तलाशने पर उसे पता चला कि उसका पति थकान से चल बसा है और दीवार के नीचे ही दफन है। जिस स्थान पर वह दफन था, वहां जाकर मेंग ने कई दिन और कई रात तक विलाप किया। अंतत: ईश्वर द्रवित हो गए और आसमान में भयंकर बादल उमड़ पड़े। देखते ही देखते ऐसा भयावह बर्फीला तूफान आया, जैसा पहले कभी नहीं आया था। तूफान के कारण नवनिर्मित दीवार का वह हिस्सा ढह गया, जिसके नीचे मेंग का पति दफन था और उसका शव प्रकट हो गया। चारों ओर खबर फैल गई कि एक स्त्री के आंसुओं ने दीवार ढहा दी। जब सम्राट तक यह खबर पहुंची, तो वह स्वयं उस स्त्री के दर्शन करने चला आया। मेंग को देखते ही वह उसके सौंदर्य पर मोहित हो गया और उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया। मेंग ने कुछ सोचकर उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया मगर तीन शर्तें रख दीं। शर्तें ये थीं कि उसके पति का शव श्रेष्ठ लकड़ी से बने ताबूत में रखा जाए, उसे राजकीय सम्मान के साथ दफनाया जाए और स्वयं सम्राट व उसके सारे सैनिक मातम करें। सम्राट ने उसकी तीनों शर्तें मान लीं। जब मेंग के पति का पूरे सम्मान के साथ अंतिम संस्कार हो गया, तो उसने पहाड़ से कूदकर अपनी जान दे दी...। लोगों ने मेंग की स्मृति में एक मंदिर बनाया, जो आज भी मौजूद है। 

Monday 12 October 2015

चहुं ओर 'नौ" की महिमा


दस में एक कम होते हुए भी नौ की संख्या किसी से कमतर नहीं है। विभिन्न देशों-धर्मों में इस आंकड़े को सहस्त्राब्दियों से खास माना जाता रहा है...
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नवरात्रि का पर्व शुरू होने जा रहा है। देवी की आराधना में डूबी नौ रातें। शक्ति के नौ रूपों को पूजने की नौ रातें। यहां एक उल्लेखनीय बात यह है कि 9 का आंकड़ा कई मायनों में महत्वपूर्ण माना गया है। मसलन, हिंदू मान्यतानुसार चार युगों की लंबाई देखें, तो सत्युग 17,28,000 वर्ष का, त्रेतायुग 12,96,000 वर्ष का, द्वापरयुग 8,64,000 वर्ष का तथा कलयुग 4,32,000 वर्ष का होता है। अगर आप गौर करें, तो पाएंगे कि इन सभी संख्याओं में मौजूद अंकों का जोड़ 9 आता है। इसी प्रकार पुराणों की संख्या 18 है और उपनिषदों की 108। इन दोनों संख्याओं में भी अंकों का जोड़ 9 बैठता है। नवग्रह, नवरस, नवरतन... नौ का आंकड़ा हर कहीं व्याप्त है।
चीन में नौ का संबंध ड्रैगन से है, जिसे जादुई शक्तियों का प्रतीक माना जाता है। यही नहीं, ड्रैगन के नौ रूप, नौ गुण और नौ संतानें मानी गई हैं। वैसे भी चीन में नौ का आंकड़ा शुभ माना गया है क्योंकि चीनी भाषा में इसके लिए जो शब्द है, उसकी ध्वनि 'शाश्वत" के लिए प्रयुक्त चीनी शब्द से मिलती-जुलती है। इसके विपरीत जापान में यह आंकड़ा अशुभ माना गया है क्योंकि वहां की भाषा में इसकी ध्वनि 'पीड़ा" से मिलती-जुलती है। चीनी वर्ष के नौवें माह का नौवां दिन चुंग युंग उत्सव के रूप में मनाया जाता है। एक प्राचीन कथा के अनुसार इसी दिन हुआन जिंग नामक योद्धा ने एक खौफनाक राक्षस का वध कर समस्त लोगों को बचाया था। राक्षस से लोहा लेने से पहले उसने लोगों को सुरक्षा के लिए किसी ऊंचे स्थान पर चले जाने को कहा था। उसी विजय की याद में यह उत्सव मनाया जाता है। इस दिन लोग आसपास की किसी पहाड़ी पर जाते हैं।
प्राचीन स्कैंडिनेवियाई आख्यानों के अनुसार ब्रह्माण्ड में नौ लोक हैं। स्कैंडिनेवियाई देशों में ही शिशु का नामकरण जन्म के नौवें दिन करने का रिवाज रहा है। एक विशेष समारोह में शिशु को उसके पिता की गोद में रखा जाता है और उसके ऊपर पानी के छींटे डालकर उसका नामकरण किया जाता है। इसके बाद ही वह शिशु उस घर का सदस्य माना जाता है। इस प्रथा का एक खास महत्व है। पुरातन काल में उन देशों में अनचाहे शिशुओं की हत्या करना अवैध नहीं माना गया था। मगर नौवें दिन नामकरण होने तथा परिवार के सदस्य के रूप में मान्यता मिलने के बाद उसे मारना कानूनन हत्या की श्रेणी में आ जाता! उधर स्वीडन में एक समय अपसला के मंदिर में नौ साल में एक बार भव्य बलि उत्सव मनाया जाता था। दूर-दूर से लोग इसमें शामिल होने आते। इसमें मनुष्य सहित हर प्रजाति के प्राणी के नौ-नौ नरों की बलि दी जाती थी। इसके बाद नौ दिनों तक दावतों का दौर चलता था।
ग्रीस में नौ प्रेरक शक्तियों के रूप में नौ देवियों को माना गया है। ये क्रमश: महाकाव्य, इतिहास, गीत-काव्य, संगीत, दुखांत कथाओं, धार्मिक काव्य, नृत्य, हास्य तथा खगोलशास्त्र की देवियां हैं। यही नहीं, माना गया है कि अन्ना की ग्रीक देवी डिमीटर की बेटी कोरी को जब मृत्युलोक के देवता हेडीज ने अगुवा कर लिया, तो डिमीटर नौ दिन और नौ रातों तक उसे तलाशती फिरीं। वहीं रात्रि की देवी लैटो ने नौ दिन की प्रसव पीड़ा के बाद जुड़वां बच्चों को जन्म दिया था। ग्रीस और रोम में किसी परिवार में मृत्यु होने पर नौ दिन तक शोक रखने के बाद भोज के आयोजन के साथ शोक-मुक्ति की जाती थी। यह भी मान्यता थी कि स्वर्गलोक से पृथ्वीलोक आने में नौ दिन लगते हैं और पृथ्वीलोक से पाताल लोक जाने में भी इतना ही समय लगता है।
नौ के आंकड़े का ईसाई धर्म में भी विशेष महत्व है। माना जाता है कि सलीब पर चढ़ाए जाने के नौ घंटे बाद ईसा ने प्राण त्यागे थे। अपने पुनरुत्थान के बाद उन्होंने नौ बार अपने अनुयायियों को दर्शन दिए। साथ ही कहा जाता है कि स्वर्गारोहण करने से पहले ईसा ने अपने दूतों से कहा था कि वे अगले नौ दिनों तक यरूशलम में ही रहें और पवित्र आत्मा के अवतरण की प्रतीक्षा करें। उनके दूतों ने प्रार्थनाएं करते हुए ये दिन गुजारे। तब से ईसाई धर्म में किसी विशेष मंतव्य के लिए नौ दिन की गहन प्रार्थना (नोवेना) का खास महत्व हो गया।

तो कहिए, है ना 'नौ" की महिमा अपरंपार..! 

Wednesday 30 September 2015

द्वार के आर-पार

दरवाजा किसी भवन या कमरे में प्रवेश ही नियंत्रित नहीं करता, एक संसार को दूसरे संसार से जोड़ता या विभाजित भी करता है। इसका यह गुण इसे एक खास तिलस्म प्रदान करता है। द्वार किसी राज को राज बनाए रखने वाले प्रहरी की भूमिका भी निभाते हैं। ऐसे में बंद द्वार किसी रहस्य, किसी तिलस्म का प्रतीक बन बैठे, तो क्या आश्चर्य? खास तौर से तब, जब इसके उस पार के संसार को कभी देखा न गया हो...
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कभी गौर किया है कि एक दिन में आप कितने दरवाजों के आर-पार आते-जाते हैं? नहीं न? गौर करेंगे भी क्यों, दरवाजों से निकलना है ही इतनी 'रुटीन" गतिविधि कि हम इसे बस यूं ही कर जाते हैं। मगर दरवाजे इस रुटीन से आगे भी बहुत कुछ हैं। कहने को ये एक बंद दायरे में आने-जाने का मार्ग हैं, सुरक्षा का उपाय हैं, एक हद तक कलात्मकता का प्रदर्शन करने का जरिया भी हैं। मगर दरवाजों का प्रतीकात्मक और बिंबात्मक महत्व इससे कहीं बढ़कर है। बंद द्वार किसी रहस्य पर पड़े पर्दे के सदृश्य भी होेता है। आपको नहीं पता होता कि इसे खोलते ही उस पार कौन-सा संसार आपका इंतजार कर रहा होगा। क्योंकि यह एक भवन या कमरे में प्रवेश ही नियंत्रित नहीं करता, एक संसार को दूसरे संसार से जोड़ता या विभाजित भी करता है। इसका यह गुण इसे एक खास तिलस्म प्रदान करता है। फिर, यह भी सच है कि द्वार केवल सुरक्षा और निजता की रक्षा ही नहीं करते, ये किसी राज को राज बनाए रखने वाले प्रहरी की भूमिका भी निभाते हैं। ऐसे में बंद द्वार किसी रहस्य, किसी तिलस्म का प्रतीक बन बैठे, तो क्या आश्चर्य? खास तौर से तब, जब इसके उस पार के संसार को कभी देखा न गया हो...
खुला द्वार एक अवसर प्रदान करता है... नए संसार में प्रवेश करने, उसे जानने-समझने, उसे फतह करने का। वहीं बंद द्वार प्रगति की राह में बाधा बनकर खड़ा रहता है। वह आपको चुनौती देता है उसे खोलने और आगे बढ़ जाने की। इस मायने में हर बंद द्वार एक अवसर भी होता है और चुनौती भी। खुला द्वार स्वागत का संदेश देता है। कहा भी जाता है न, 'तुम्हारे लिए मेरे घर के द्वार सदा खुले हैं।" वहीं 'मेरे लिए तो सारे दरवाजे बंद हो चुके हैं" घोर निराशा को अभिव्यक्त करता है। उस स्थिति को, जिसमें कोई राह न दिख रही हो।
प्राचीन मिस्र में कब्र पर उकेरे गए दरवाजे के चित्र 'इस" लोक और 'उस" लोक के बीच संवाद के सूचक हुआ करते थे। ग्रीस में दो सिर वाले देवता जेनस को आरंभ और पारगमन का देवता माना जाता था। प्रकारांतर से वे द्वारों के देवता भी थे। आखिर द्वार को पार करने से ही तो नए सफर, नए अध्यायों का आरंभ होता है। जेनस अपने दो चेहरों से अतीत और भविष्य की ओर देखते हैं। द्वार के भी तो इस ओर अतीत तथा उस ओर भविष्य की राह होती है। अतीत और भविष्य के बीच खड़े जेनस संक्रमण-काल के प्रतीक हैं। वैसे ही, जैसे जीवन के सफर में एक द्वार अतीत और भविष्य के मध्य संक्रमण का प्रतीक है।
चीन में द्वारपाल देवताओं, जिन्हें मेनशेन कहा जाता है, की तस्वीरें मंदिरों, घरों, दुकानों आदि के दरवाजों पर उकेरने की परंपरा रही है। माना जाता है कि ये बुरी शक्तियों को द्वार से प्रवेश करने से रोकते हैं। खास बात यह कि ये द्वारपाल देवता एक समान नहीं होते। अलग-अलग कालखंडों में और अलग-अलग जगहों पर भिन्ना-भिन्ना देवताओं को दरवाजों पर तैनात किया जाता रहा है। समान बात यह है कि इन्हें हमेशा एक-दूसरे की ओर मुंह किए ही दर्शाया जाता है। इन्हें एक-दूसरे को पीठ किए दर्शाना अशुभ माना गया है। यह परंपरा कैसे शुरू हुई, इस बात को लेकर अनेक किस्से चले आए हैं। इन्हीं में से एक के अनुसार सातवीं सदी में ताई जोंग नामक सम्राट बुरी तरह बीमार पड़ गए थे। माना गया कि उन्हें बुरी आत्माओं ने जकड़ रखा था। तब उनकी सेना के दो जनरल राजमहल के मुख्य द्वार पर पहरा देने लगे। इधर सम्राट को स्वास्थ्य लाभ होने लगा और शीघ्र ही वे पूरी तरह स्वस्थ हो गए। उन्हें विश्वास हो गया कि द्वार पर खड़े उनके सेनापतियों के कारण ही बुरी आत्माएं उन्हें छोड़कर चली गईं। सम्राट ने फरमान जारी कर दिया कि इन दोनों के चित्र स्थायी रूप से राजमहल के मुख्य द्वार पर लगाए जाएं और इन्हें द्वारपाल देवता कहा जाए। देखते-देखते आम लोग भी अपने दरवाजों पर द्वारपाल देवता तैनात करने लगे। हर साल नव वर्ष के अवसर पर द्वारपाल देवताओं के इन चित्रों को नए सिरे से रंगा जाता है या पुराने चित्र हटाकर नए चित्र लगाए जाते हैं।
दरवाजों को लेकर अलग-अलग स्थानों पर भांति-भांति के अंधविश्वास भी चले आ रहे हैं। कुछ भोले-से, तो कुछ अटपटे-से। मसलन, यह विश्वास अनेक स्थानों पर प्रचलित है कि पहली बार किसी घर में प्रवेश पिछले दरवाजे से नहीं करना चाहिए। आयरलैंड में आप जिस दरवाजे से भीतर आए, उसी दरवाजे से बाहर जाना शुभ माना जाता है। तुर्की में लोग कहते हैं कि रात के वक्त किसी दरवाजे के पीछे बैठना अशुभ होता है। यदि आपने ऐसा किया, तो आप पर कोई लांछन लग जाएगा!

है ना साधारण-से दरवाजों का संसार दिलचस्प? तो अब जब आप किसी दरवाजे को पार करें, तब इसे कोई मामूली गतिविधि न समझें। इसके मायने 'मामूली" से कहीं बढ़कर हैं...। 

Sunday 20 September 2015

जब कोई तारा टूटे

अगर कोई तारा टूटता हुआ दिखे, तो आप क्या करते हैं? कोई वर मांगते हैं या फिर किसी दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं? आपको शायद यकीन न हो मगर कुछ लोग तो इसे देखकर मृत्यु की छानबीन तक करने लगते हैं...!
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आसमान के तारों को मनुष्य ने हमेशा अपने से ऊंचे मुकाम पर देखा है। भौतिक या वास्तविक रूप से ही नहीं, प्रतीकात्मक रूप से भी। रात के अंधियारे में अपनी रोशनी का तिलस्म बिखेरते सितारे देवताओं की बस्ती होने का भ्रम भी सिरजते आए हैं। ऐसे चमत्कारी, तिलस्मी, अलौकिक शक्ति से भरे तारों का 'टूटना" और आसमान से 'गिर पड़ना" कल्पना से परे लगता है मगर जब आंखें प्रत्यक्ष रूप से ऐसा होते देखें, तो इसे कैसे नकारा जाए! किसी 'टूटते" तारे के दर्शन ने पहले-पहल इंसान को किस कदर भ्रम और भय से भर दिया होगा, आज के विज्ञान के युग में इसकी कल्पना करना भी कठिन है। तो इंसान ने तारों के इस पतन की विवेचना करने की कोशिश की। इसके पीछे के कारणों को जानना चाहा और इस 'जानने" के फेर में कुछ ऐसे विश्वास गढ़े, जो सदियों तक आस्था के आसमान पर टिमटिमाते रहे।
टूटते-गिरते तारों को लेकर ऐसा ही एक विश्वास पश्चिम में जन्मा लेकिन भारत में भी हममें से कई बचपन से ही उससे वाकिफ रहे हैं। वह यह कि अगर कोई तारा टूटता हुआ नजर आए, तो तुरंत कोई 'विश" मांग लो। जो मांगोंगे, वह मिलेगा। किसी किस्म की टूट-फूट या पतन/ह्रास पर अपनी इच्छाओं की पूर्ति की कामना करना अटपटा तो लगता है लेकिन यह सदियों से चला आया जन-विश्वास है। कहते हैं कि इसकी उत्पत्ति दूसरी सदी में तब हुई, जब ग्रीक खगोलविद टोलेमी ने अपना अनोखा सिद्धांत पेश किया। उन्होंने कहा कि आसमान में अपनी अलग दुनिया में विराजे देवता कभी-कभी उत्सुकता या फिर बोरियत के चलते हम मनुष्यों के संसार यानी पृथ्वी पर निगाह डाल देते हैं। इस दौरान दोनों लोकों के बीच का झरोखा कुछ पल के लिए खुल जाने की वजह से वहां के कुछ तारे गिरकर धरती की ओर आने लगते हैं। चूंकि यही वह वक्त होता है, जब देवताओं की नजरें हमारे लोक पर और हम पर इनायत होती हैं, सो इस क्षण में मांगी जाने वाली मुराद उन तक पहुंचने और पूरी होने की संभावना बढ़ जाती है..! कहिए, हुई ना मासूम कल्पनाशक्ति की गगनचुंबी उड़ान?
सच तो यह है कि ये कथित टूटते तारे 'उल्काएं" हैं। यानी अंतरिक्ष में सफर करते ऐसे पिंड, जो पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश कर जाने पर घर्षण के मारे जल उठते हैं। हमें जीवन देने वाला वातावरण इन आसमानी पिंडों की मौत का कारण बन बैठता है। ... और मरते-मरते ये जिंदा कर जाते हैं कई मिथकों को।
मध्य योरप में लोग यह मानते आए हैं कि धरती पर मौजूद प्रत्येक मनुष्य के नाम का एक तारा आकाश में विद्यमान है। जब भी धरती पर कोई मृत्यु को प्राप्त होता है, तब आसमान में उसका तारा टूटकर गिरता है। सो टूटता तारा देखकर वे उस अनजान दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं। जर्मनी के स्वाबिया नामक इलाके में टूटता तारा दिखना आने वाले वर्ष के शुभ होने का संकेत समझा जाता था। मगर चूंकि अति हर चीज की बुरी होती है, सो यह भी कहा जाता था कि अगर आपने एक ही रात में तीन तारों को टूटते हुए देख लिया, तो आपकी मृत्यु निश्चित है! स्विट्जरलैंड के लोग उल्काओं में साक्षात ईश्वर की शक्ति विद्यमान होना मानते थे। वहीं जापानी लोगों में यह आस्था रही है कि अगर कोई तारा टूटकर आपकी ओर आता दिखाई दे, तो अपने किमोनो के कॉलर खोल दें ताकि उसका शुभत्व आपके भीतर समा जाए...!
प्राचीन काल में मेसोपोटामिया और उत्तरी योरप के लोग उल्काओं को आकाश से अवतरित होती शैतानी शक्तियों के रूप में देखते थे। वहीं मध्य-पूर्व में इन्हें स्वर्ग से पतित/ निष्कासित देवदूत समझा जाता था। उत्तरी अमेरिका की एक जनजाति में पाहोकाटा नामक आदमी की कहानी प्रचलित रही है, जिसे जंगली जानवर खा गए थे। उसकी आत्मा स्वर्ग पहुंची, तो देवताओं ने उसे फिर जीवित कर दिया और उल्का के रूप में वापस धरती पर भेज दिया। इस प्रकार उल्काएं मृत्यु के बाद पुनर्जीवन की प्रतीक बन गईं।

पूर्वी योरप के देश बेलारूस में टूटते तारे को लेकर कुछ ज्यादा ही विस्तृत विवेचना की गई है। यहां तक कि उसके गिरने के अंदाज से इस बात के कयास लगाए जाते हैं कि वह जिसकी मौत का सूचक है, उसकी मृत्यु कैसी रही होगी। जैसे यह कि यदि तारा सीधे-सीधे गिर रहा है, तो सामान्य मृत्यु हुई है। मगर यदि वह बिखरते हुए गिर रहा है, तो मामला हत्या का है! वहीं अगर तारा टूटकर कभी इधर तो कभी उधर जाता हुआ दिख रहा है, तो जरूर किसी ने आत्महत्या की है...। मजेदार बात यह है कि बेलारूस में ही कहीं-कहीं टूटते तारे को मृत्यु के बजाय जन्म का सूचक भी माना गया है। इसके अनुसार, अगर कोई तारा टूटता है, तो इसका यह मतलब है कि कहीं किसी नाजायज संतान ने जन्म लिया है..! 

Saturday 15 August 2015

मंगल पर पहुंचा धरती का केकड़ा

केकड़े को हमने धरती पर देखा, तारामंडल में स्थापित किया और अब मंगल पर भी उसके दर्शन कर लिए!
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मंगल ग्रह पर जीवन होने को लेकर जब-तब किसी-न-किसी अफवाह, कयास आदि का दौर चलता रहता है। इसी के चलते बीते दिनों एक 'मंगलवासी केकड़ा" खूब चर्चा में रहा। हुआ यूं कि नासा द्वारा खींचे गए मंगल ग्रह के एक चित्र में किसी को एक चट्टान पर केकड़े जैसी आकृति नजर आई। देखते ही देखते सोशल मीडिया पर यह बात जंगल में आग की तरह फैल गई और ढेरों लोगों ने चित्र देखकर पुष्टि की कि उन्हें भी इसमें केकड़ा दिखाई दे रहा है। हालांकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट कर दिया है कि यह किसी भी वस्तु या स्थान में जानी-पहचानी आकृतियों को देखने की दिमाग की फितरत का मामला है। मसलन, बादलों में अक्सर हम पशु-पक्षियों आदि की आकृति देखते हैं।
तो मंगल पर फिलहाल कोई केकड़ा नहीं पाया गया है मगर यह दिलचस्प प्राणी मानव अवचेतन में और जनश्रुतियों में सदियों से पाया जाता रहा है। अपने दस पैर लेकर आड़ा चलने वाला केकड़ा देखने वाले के मन में कौतुहल पैदा करता ही है। उसका ठोस खोल और धारदार पंजे उसकी 'शख्सियत" को उभारते हैं। हमारी फितरत है कि जो जितना 'अलग" दिखता या बर्ताव करता है, उसे हम उतना ही किसी दैवी या शैतानी ताकत से जोड़कर देखने लगते हैं।
ग्रीक और रोमन पौराणिक कथाओं के अनुसार हरक्यूलिस ने जब नौ सिर वाले विशाल जल-सर्प हायड्रा से युद्ध किया था, तब हायड्रा की मदद के लिए देवी हेरा ने एक विशाल केकड़े को भेजा। केकड़े ने हरक्यूलिस को पांव में काटा लेकिन इससे हरक्यूलिस का कुछ नहीं बिगड़ा। उल्टे, अति शक्तिशाली हरक्यूलिस ने केकड़े को एक लात मारकर ही उसका काम तमाम कर डाला। केकड़ा शहीद हो गया लेकिन देवी हेरा ने उसके बलिदान से प्रभावित होकर उसे आसमान में स्थापित कर दिया, जहां वह कर्क तारामंडल के रूप में आज भी मौजूद है। ग्रीस की ही एक अन्य कथा कहती है कि जब टायफॉन नामक दैत्य ने ओलिंपस पर्वत के देवताओं पर हमला कर दिया, तो वे सब भागकर छुप गए। देवताओं के राजा पोसायडन ने भागने से पहले समुद्री परियों की रखवाली का जिम्मा क्रियोस नामक विशाल केकड़े को सौंपा, जिसे उन्होंने अमरत्व का वरदान दे रखा था। ये समुद्री परियां पोसायडन की ही बेटियां मानी जाती थीं। क्रियोस पूरी जिम्मेदारी से उनकी रखवाली करने लगा। वह उन्हें अपनी नजर से ओझल नहीं होने देता था। मगर एक दिन कुछ परियां उसकी नजर बचाकर दूर भ्रमण को निकल गईं। जब क्रियोस को पता चला, तो उसने समुद्रफेनी वामारी को परियों को वापस लाने के लिए भेजा क्योंकि वह स्वयं बाकी परियों को छोड़कर नहीं जा सकता था। वामारी ने परियों को ढूंढ तो निकाला लेकिन उन्हें वापस लाने के बजाय वह उन्हें खा गया। फिर लौटकर क्रियोस से कहा कि मुझे परियां कहीं नहीं मिलीं। क्रियोस समझ गया कि वामारी झूठ बोल रहा है। उसने वामारी पर हमला कर दिया। भीषण युद्ध हुआ, जिसमें जीत क्रियोस की हुई। मगर युद्ध में वह बुरी तरह घायल हो चुका था। उसके घाव भरने की कोई संभावना नहीं थी मगर अमरत्व के वरदान के चलते वह मर भी नहीं सकता था। तब पोसायडन ने उसे आसमान में तारामंडल के रूप में स्थापित कर, अमर रहते हुए, दर्द से मुक्त कर दिया।
केकड़े को अपना खोल कैसे प्राप्त हुआ, इस बारे में ट्रिनिडाड-टोबैगो में बड़ी मजेदार कहानी सुनाई जाती है। इसके अनुसार एक धनवान राक्षसी ने अपने यहां एक बकरी, एक मोर, एक बत्तख और एक केकड़ा पाल रखा था। दुनिया मंे केवल ये चार प्राणी ही राक्षसी का असली नाम जानते थे। राक्षसी ने गांव की लड़कियों के लिए प्रस्ताव रखा कि अगर तुम एक सप्ताह तक मेरी दासी बनकर काम करो और मेरा सही नाम बता दो, तो मैं अपनी आधी दौलत तुम्हें दे दूंगी। यदि नहीं बता पाई, तो सारी जिंदगी मेरी दासी बनकर ही रहना पड़ेगा। एक के बाद एक कई लड़कियों ने अपनी किस्मत आजमाई लेकिन सब नाकाम रहीं। राक्षसी अपनी किस्मत पर रोती इन लड़कियों के आंसू एक मर्तबान में भर लेती। एक दिन मकड़ी ने दौलत के लालच में लड़की का रूप धारण किया और राक्षसी के यहां पहुंच गई। उसके यहां काम करते हुए मकड़ी ने केकड़े से प्यार का नाटक शुरू किया। मूर्ख केकड़ा उसे दिल दे बैठा और एक दिन जब मकड़ी ने मालकिन का नाम पूछा तो केकड़े ने उसे बता दिया। फिर मकड़ी ने राक्षसी से शर्त जीतकर उसकी आधी दौलत झटक ली। कुपित राक्षसी को जब पता चला कि केकड़े ने उसे धोखा दिया है, तो उसने लड़कियों के आंसुओं से भरा मर्तबान केकड़े पर उड़ेल दिया। केकड़े पर गिरते ही आंसू जम गए और उसका खोल बन गए।

केकड़ों को लेकर कई तरह के अंधविश्वास भी प्रचलित हैं। मसलन यह कि अगर समुद्रतट पर टहलते हुए आपको केकड़ा नजर आता है, तो यह किसी झगड़े की पूर्व सूचना है। या यह कि अगर केकड़ा किसी नाविक का पैर जकड़ ले, तो इसका मतलब यह कि उस नाविक का जहाज डूब सकता है। स्कॉटलैंड के नाविकों में तो सफर के दौरान केकड़े का जिक्र करने की ही मनाही है। जापान में एक खास प्रजाति के केकड़ों को हीकी समुराई की आत्मा माना जाता है क्योंकि इनके खोल पर बनी आकृति समुराई योद्धा की शक्ल से मिलती-जुलती है। तो केकड़े में योद्धा नजर आए या मंगल पर केकड़ा, यह प्राणी मनुष्य की चेतना पर छाया हुआ तो है...! 

Sunday 26 July 2015

ओस में कैद चांदनी का 'मोती" हो जाना


चांदनी से भरी ओस की बूंद या देवी-देवताओं के आंसू या फिर ड्रैगन के दिमाग की उपज..! मोती की उत्पत्ति को लेकर प्रचलित तिलस्मी किस्से इसे जादुई गुणों के विश्वास को पुख्ता करते हैं।
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के आसिफ की क्लासिक फिल्म 'मुगले आजम" के एक दृश्य में शहजादे सलीम को महल में प्रवेश करते हुए दिखाया गया है, जिसमें उनकी राह में ढेरों मोती बिछाए जा रहे हैं। कहते हैं कि जब यह दृश्य (फिल्मी परंपराओं और व्यवहारिकता के तकाजे के अनुसार) नकली मोतियों के साथ शूट किया जा रहा था, तो निर्देशक के आसिफ को कुछ जंचा नहीं। उन्होंने पाया कि नकली मोती असली मोतियों की मानिंद जमीन पर नहीं गिर रहे, अलग तरह की आवाज कर रहे हैं और तो और टूट भी रहे हैं। बस, उन्होंने तय कर लिया कि असली मोती मंगाए जाएं और तब यह दृश्य फिल्माया जाए। जब निर्माता शापुरजी पल्लनजी ने उनकी फरमाइश सुनी, तो इतनी बड़ी मात्रा में असली मोती जुटाने के लिए पैसा देने से साफ इनकार कर दिया। आसिफ अड़ गए और आखिरकार निर्माता को झुकना पड़ा। आसिफ के शहजादे की राह में असली मोती ही बिछाए गए। तो इस प्रकार के आसिफ ने 'परफेक्शन" की अपनी तलाश के बीच मोतियों के मामले में अपनी पारखी नजर की बानगी प्रस्तुत की।
मानव की पारखी नजर ने मोती के महत्व को कई सहस्त्राब्दियों पहले पहचान लिया था। पाया गया है कि मिस्र में चौथी सहस्त्राब्दि ईसा पूर्व में मोतियों को सजावटी वस्तु के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था। पहली बार मोती से किसी मनुष्य का साक्षात्कार कैसे हुआ होगा, यह कहना मुश्किल है। बहुत संभव है कि समुद्र के किनारे भोजन की तलाश करते हुए उसकी नजर इस पर पड़ी हो और इस चमचमाते अजूबे ने उसे मंत्रमुग्ध कर दिया हो। बस, तभी से यह मनुष्य का पसंदीदा रत्न बन गया हो।
हां, मोती कहां से और कैसे आया, इस बारे में जरूर कई तरह के किस्से कहे जाते आए हैं। अधिकांश जगहों पर इसका संबंध चांद से जोड़ा गया है। अरब, ग्रीस और रोम के लोग मानते थे कि मोती तब बनता है, जब चांदनी से भरी ओस की बूंदें समुद्र में आ गिरती हैं और सीपियों द्वारा उन्हें निगल लिया जाता है। यही मोती के रूप में सामने आती हैं। फारस (ईरान) के लोग तो यहां तक मानते थे कि किसी मोती में पाई जाने वाली खामी के लिए ओस बरसते समय आसमान में चमकती बिजली जिम्मेदार होती है! एक अन्य किंवदंति है कि चांद जब समुद्र में स्नान करने के लिए आता है, तो सीपियां उसकी रोशनी से आकर्षित हो सतह पर आ जाती हैं और उसके द्वारा छोड़ी गई ओस की बूंदों का सेवन कर लेती हैं। यही बाद में मोती के रूप में सामने आती हैं। चीन के लोग मानते थे कि मोती की उत्पत्ति ड्रैगन के मस्तिष्क में होती है और आसमान में जब ड्रैगनों की लड़ाई होती है, तो ये मोती नीचे समुद्र में आ गिरते हैं। कुछ जगहों पर मोतियों को देवताओं के आंसू के रूप में भी देखा जाता है। एक धारणा यह भी है कि स्वर्ग से निष्कासित आदम और हौवा के आंसुओं से एक झील बन गई थी और इसी झील से दुनिया के सारे मोतियों की उत्पत्ति हुई।
भारतीय पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि भगवान कृष्ण ने समुद्र में गोता लगाकर पहले-पहल मोती पाया था, जिसे उन्होंने अपनी पुत्री के विवाह पर उसे भेंट किया। आज भी अनेक संस्कृतियों में विवाह के अवसर पर दुल्हन का मोतियों के आभूषण पहनना शुभ माना जाता है। कहते हैं कि इससे सुखी वैवाहिक जीवन सुनिश्चित होता है और दूल्हा हमेशा दुल्हन के प्रति वफादार रहता है। दरअसल चांद तथा देवी-देवताओं से संबंध जुड़ने के कारण अधिकांश देशों-संस्कृतियों में मोतियों को कई प्रकार के तिलस्मी गुणों से युक्त माना जाने लगा। युद्ध पर जाते योद्धा शक्ति के स्रोत और सुरक्षा कवच के तौर पर मोतियों की माला धारण करते थे। यही नहीं, इनमें अनेक बीमारियों को दूर करने की क्षमता होती है, ऐसा विश्वास भी सदियों से चला आया है।

मोती की खासियत यह है कि यह एकमात्र रत्न है, जो किसी जीवित प्राणी से पाया जाता है। प्राकृतिक रूप से मिलने वाले मोती अपनी दुर्लभता के कारण हमेशा से अत्यधिक महंगे रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि ये केवल राजे-महाराजों और अन्य श्रेष्ठि वर्ग के लोगों की ही पहुंच में रहे। एक रोमन जनरल के बारे में तो कहा जाता है कि उसने अपनी मां की एक जोड़ी मोती की बालियां बेचकर एक पूरे युद्ध के खर्च की व्यवस्था कर ली थी! अब कृत्रिम रूप से तैयार मोतियों ने अपना साम्राज्य खासा फैला दिया है। ... भले ही आसिफ साहब ने अपने 'शहजादे" के लिए इस साम्राज्य को ठुकरा दिया हो...!