Thursday 15 November 2012

इतिहास और भूगोल की मसालेदार कहानी

एक जमाना था जब इन्हीं मसालों ने इतिहास की धारा बदली थी, साम्राज्य बनाए और तोड़े थे, भूगोल को नया आकार दिया था।

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चित्रा बनर्जी दिवाकरुणी के उपन्यास ' मिस्ट्रेस ऑफ स्पाइसेज" की नायिका मसालों की जादुई शक्तियों को जानती है। वह अपनी दुकान पर आने वाले ग्राहकों की समस्याओं को दूर करने हेतु सही मसाला चुनकर अपनी प्रार्थना के बल पर उसमें छिपी शक्तियों को बाहर लाती है। उपन्यास फंतासी के माध्यम से अपनी बात कहता है मगर मसालों में छिपी शक्तियाँ कोई फंतासी नहीं। आज हम मसालों को भोजन का अनिवार्य अंग भर मानते हैं। आयुर्वेद के जानकार इनमें मौजूद औषधीय गुणों के बारे में बताएँगे। मगर एक जमाना था जब इन्हीं मसालों ने इतिहास की धारा बदली थी, साम्राज्य बनाए और तोड़े थे, भूगोल को नया आकार दिया था।
भारत में तो आदि काल से ही स्थानीय तौर पर उगने वाले मसालों का प्रयोग पाक कला तथा चिकित्सा में होता आया था लेकिन वो कहते हैं ना घर का जोगी जोगड़ा..., सो इसी तर्ज पर इनकी असल ताकत से भारत अनजान था। यही हाल दक्षिण दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य मसाला उत्पादक देशों का था। मसालों ने अपना जलवा दिखाया तब जब इनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली। प्राचीन काल में मेसोपोटामिया, मिस्र आदि देशों से व्यापारी जिन बेशकीमती वस्तुओं का सौदा करने भारत आते थे, उनमें रेशम, ढाके की मलमल आदि के अलावा मसाले भी शामिल थे। इनका उपयोग खाने के अलावा सौंदर्य प्रसाधन के तौर पर तथा शवों को सुरक्षित रखने के लिए भी किया जाता था। कहा तो यह भी जाता है कि मिस्र के प्रसिद्ध पिरामिड बनाने वाले मजदूरों के भोजन में खास मसाले शामिल किए जाते थे, जिससे उन्हें ताकत मिले। पश्चिम एशिया में तो मान्यता थी कि देवताओं ने सृष्टि की रचना करने से पूर्व वाली रात तिल से बनी मदिरा का सेवन किया था! रोम और यूनान के साम्राज्य स्थापित होने पर वहाँ से भी भारतीय मसालों की माँग आने लगी। लंबे समय तक भारतीय मसालों के व्यापार पर अरबों का वर्चस्व रहा। रोमन साम्राज्य को जब यह निर्भरता रास नहीं आई, तो उन्होंने अरब पर कब्जा करने के लिए युद्ध कर डाला और मुँह की खाई।
मध्ययुगीन योरप में मसाले कीमत के मामले में सोने और हीरे-जवाहरात को टक्कर देते थे। कहते हैं कि तब एक पौंड अदरक एक भेड़ के बराबर और एक पौंड जावित्री तीन भेड़ों या आधी गाय के बराबर मानी जाती थी। एक बोरी काली मिर्च तो एक इंसान के जीवन के बराबर कीमत रखती थी! लौंग, दालचीनी, जायफल आदि के प्रति भी अरब योरपीय देशों में गजब की दीवानगी थी। एक समय ऐसा भी था जब योरप में एक पौंड जायफल की कीमत सात मोटे-ताजे बैलों के बराबर थी! जाहिर-सी बात है कि इतने महँगे मसाले कोई आम आदमी की रसोई में तो पहुँच नहीं सकते थे। ये पहुँचते थे रईसों के यहाँ, जहाँ ये जितना खाद्य सामग्री के रूप में प्रयुक्त होते थे, उतना ही स्टेटस सिम्बल के तौर पर भी। धनी वर्ग इन मसालों के बल पर घर आए मेहमानों पर रौब झाड़ता था। ये दुर्लभ मसाले सुदूर भारत में कैसे पाए जाते हैं और इन्हें पाने के लिए क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं, इसे लेकर तरह-तरह की बेसिर-पैर की कहानियाँ गढ़ी जाती थीं।
खैर, स्टेटस दिखाना और रौब झाड़ना एक बात थी मगर इन मसालों की लगातार आसमान बेधती कीमतों से योरप का श्रेष्ठि वर्ग भी परेशान था। राजे-महाराजे भी इस महँगाई से पीड़ित थे। चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी आते-आते इन्होंने तय किया कि किसी भी तरह भारत पहुँचने का सीधा रास्ता तलाशा जाए और अरब बिचौलियों से मुक्ति पाई जाए। तब तक नौकायन की तकनीक भी काफी विकसित हो चुकी थी। क्रिस्टोफर कोलंबस, वास्को गामा, फर्डिनेंड मैगलेन जैसे जाँबाज जहाज लेकर निकल पड़े भारत अन्य मसाला उत्पादक देशों तक पहुँचने का मार्ग तलाशने। कोलंबस महाशय ने तो रास्ता भटकने का सार्वकालिक रेकॉर्ड बना डाला और जा पहुँचे अमेरिका! भारतीय मसाले तो हाथ लगे, उत्तर-और दक्षिण अमेरिका के रूप में दो-दो नए महाद्वीपों से दुनिया रूबरू हुई। यदि मसालों का लालच होता, तो जाने ये महाद्वीप और कितनी सदियों तक दुनिया की नजरों से छिपे रहते!
अलबत्ता वास्को गामा ने गलती नहीं की और भारत ही पहुँचा। वह पुर्तगाल से चार जहाजों को लेकर अफ्रीका का चक्कर लगाता हुआ भारत आया और इसी रास्ते से लौटा। इस यात्रा में कुल दो साल लगे और कुल 24,000 मील का सफर तय किया गया। वापसी तक चार में से दो ही जहाज साबुत बचे थे। इस यात्रा पर जितना खर्चा हुआ, वास्को द्वारा भारत से लाए गए मसालों की कीमत उससे साठ गुना बैठी! यानी हर लिहाज से फायदे का सौदा। कहा जाता है कि लौटने से पहले वास्को ने कालिकट के शासक से काली मिर्च का एक पौधा अपने साथ पुर्तगाल ले जाने की अनुमति माँगी, ताकि उसे वहाँ उगाया जा सके। सारे दरबारी इस गुस्ताखी पर आग-बबूला हो गए लेकिन शासक ने बड़े ठंडे दिमाग से जवाब दिया,'पौधा चाहो तो ले जाओ लेकिन तुम हमारी मानसूनी बारिश कभी नहीं ले जा सकोगे।"
मसाला व्यापार पर अरबों के एकाधिकार के दिन अब लद गए। आने वाली तीन सदियों में विभिन्न योरपीय देशों में एशियाई मसालों के भंडारों तक पहुँचने की होड़ लग गई। पुर्तगाल, स्पेन, इंग्लैंड, फ्रांस, हॉलैंड आदि ने इस दौरान मसालों को लेकर आपस में अनेक युद्ध लड़े। इंग्लैंड और हॉलैंड के बीच इंडोनेशिया के जायफल को लेकर भीषण युद्ध हुए। यहाँ रन नामक एक छोटा-सा द्वीप जायफल के वृक्षों से भरा हुआ था। सत्रहवीं सदी में इस पर दोनों की नजरें लगी हुई थीं। अंतत: इंग्लैंड और हॉलैंड ने एक अनोखा समझौता किया। इसके तहत इंग्लैंड ने रन हॉलैंड के हवाले कर दिया और बदले में हॉलैंड ने अमेरिका के पूर्वी तट पर स्थित द्वीप इंग्लैंड के हवाले किया, जो आज न्यूयॉर्क का प्रतिष्ठित इलाका मैनहेटन है। कुल मिलाकर ऐसे युद्धों का परिणाम रहा भारत अन्य कई देशों का उपनिवेशीकरण।
अब ये बातें बड़ी अटपटी लगती हैं कि बड़े-बड़े शक्तिशाली देश मसालों को लेकर आपस में लड़ें, कि आर्थिक और विदेश नीतियाँ मसालों के इर्द-गिर्द तय की जाएँ। हमारे जीवन में मसालों का महत्व अब भी अपनी जगह कायम है, मसालों का व्यापार अब भी होता है लेकिन दुनिया बदलने की मसालों की क्षमता अब अतीत का हिस्सा बन चुकी है। इस क्षेत्र में वे अपनी भूमिका निभा चुके हैं। आज की भाषा में कहें तो अपनी 'एक्सपायरी डेट' पार कर चुके हैं।