Sunday 25 February 2018

अमरत्व के फल की तलाश में भटकता इंसान


कोई आड़ू में, तो कोई सेब में और कोई समुद्र की गहराई में उगे पौधे में अमर होने का वरदान तलाशता है। मगर क्या अमर होने की चाह जीवन को ही व्यर्थ नहीं बना देती? जिस जीवन का अंत नहीं, उसे जीने में कैसा रस?
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अमरत्व के प्रति आसक्ति शायद तभी से शुरू हो गई थी, जब से इंसान को जीवन और मृत्यु का भान हुआ। मृत्यु को पराजित करने के जुनून ने उसे अपनी कल्पनाओं के घोड़े बेलगाम दौड़ाने व अपनी खोजी वृत्ति को भरपूर आजमाने का मौका दिया। तमाम प्राचीन आख्यानों में किसी--किसी ऐसे नुस्खे का उल्लेख मिला है, जिससे अमरत्व की प्राप्ति होती हो। अमूमन अमरत्व के इस नुस्खे पर केवल देवताओं का अधिकार बताया गया है। साथ ही, मनुष्यों द्वारा उसे हासिल करने के प्रयासों के दिलचस्प किस्से भी सुनाए जाते आए हैं।
चीन में अमरत्व का राज खास प्रकार के आड़ू (पीच) में माना गया है। पश्चिमी चीन में प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार, शी वांगमू (पश्चिम की राजमाता) कुनलुन पहाड़ों के बीच स्थित हरित कुंड के किनारे रहती थीं। उनके पास सृजन व संहार की शक्तियां थीं। जीवन, मृत्यु, रोग व उपचार उनकी इच्छा से संचालित होते थे। उन्होंने अपने बाग में तिलस्मी आड़ू के 3600 पेड़ लगा रखे थे। इन पेड़ों पर हर 3000, 6000 या 9000 वर्ष बाद फल पकते थे। हर 500 साल में एक बार शी वांगमू देवताओं को इन फलों की दावत के लिए आमंत्रित करती थीं। इनके सेवन से ही देवताओं का अमरत्व कायम रहता था। एक बार ऐसी ही एक दावत में वानर राज सुन वुकांग आ धमके और तिलस्मी फल चुराकर खा लिया। इससे उन्हें भी अमरत्व प्राप्त हो गया। अब देवता इस गुस्ताखी के लिए वानर राज को चाहकर भी मृत्युदंड नहीं दे सकते थे!
चीन से हजारों मील दूर उत्तरी योरप के मिथकों में तिलस्मी आड़ू की जगह स्वर्णिम सेब को अमरत्व का स्रोत कहा गया है। यहां इन सेबों की रखवाली का जिम्मा वसंत व उर्वरता की देवी इडुना पर था। एक बार चालबाज देवता लोकी ने इडुना का स्वर्णिम सेबों सहित अपहरण कर उन्हें राक्षस थियासी को सौंप दिया। स्वर्णिम सेबों की नियमित खुराक न मिलने के कारण देवताओं का चिर यौवन जाता रहा। बड़ी मुश्किल से उन्होंने लोकी पर दबाव बनाकर इडुना व सेबों को वापस प्राप्त किया, तब जाकर उनका अमरत्व कायम रह पाया।
सुमेरिया में सम्राट गिलगमेश के किस्से प्रचलित हैं। इनमें एक किस्सा बताता है कि अपने मित्र एंडीकू की मृत्यु से व्यथित गिलगमेश को स्वयं की मृत्यु की चिंता सताने लगती है। वह उतनापिश्तिम नामक व्यक्ति की तलाश में निकल पड़ता है, जिसे अमरत्व का वरदान प्राप्त है। उससे मिलने पर गिलगमेश उसे उसके अमरत्व का राज पूछता है। इस पर उतनापिश्तिम हंसकर उसे समझाता है कि अमरत्व की तलाश करने का मतलब है जीवन को व्यर्थ गंवाना। उतनापिश्तिम व उसके परिवार को अमरत्व विशिष्ट परिस्थितियों में प्राप्त हुआ था, क्योंकि उसने प्रलय के बाद पृथ्वी पर जीवन सुनिश्चित करने के लिए ईश्वर के आदेश पर एक विशेष नौका बनाई थी व उसमें विभिन्न् प्रजातियों के एक-एक जोड़े पशु-पक्षी को स्थान दिया था। उधर उतनापिश्तिम की पत्नी गिलगमेश को बता देती है कि समुद्र के तल में एक खास पौधा उगता है, जिसका सेवन करने से अमरत्व पाया जा सकता है। गिलगमेश समुद्र की गहराई में जाकर पौधा ले आता है और तय करता है कि वह अपने राज्य लौटकर किसी बुजुर्ग पर इसे आजमाकर देखेगा, फिर स्वयं इसका सेवन करेगा। मगर रास्ते में एक सांप उस पौधे को चुरा ले जाता है। हारकर गिलगमेश अपनी नश्वरता को स्वीकार कर लेता है। ठीक भी है। जीवन का रोमांच तो इसकी नश्वरता में ही है। अगर आप इसके खत्म न होने के प्रति आश्वस्त हो गए, तो फिर इसमें स्पंदन ही कहां बचेगा...?

Sunday 18 February 2018

उत्सव के चिराग तले छिपी पहेलियां


पहेलियां केवल मनोरंजन या टाइम-पास का जरिया ही नहीं, इनका लंबा व समृद्ध इतिहास रहा है। खुशी के उत्सव से लेकर मातम के मौकों तक पर ये खास स्थान रखती हैं।
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मानव इस बात का दंभ भरता है कि वह संसार का सबसे बुद्धिमान प्राणी है। पता नहीं शेष प्राणियों की इस बारे में क्या राय है मगर चलो, मान लेते हैं कि यही सच है क्योंकि शेष प्राणियों की राय जानने का फिलहाल हमारे पास कोई माध्यम नहीं है। अब जब बुद्धि भी है और उसकी तीक्ष्णता का आभास भी, तो इस बुद्धि के इर्द-गिर्द खेल रचने का कर्म भी होना ही था। सो मानव पहेलियां रच बैठा। दिमागी कसरत का यह अनूठा खेल न जाने कितनी सदियों से चला आया है। यहां बात सिर्फ घुमा-फिराकर कोई सवाल पूछने तक सीमित नहीं है। कहीं पहेलियों में साहित्य की नफासत है, तो कहीं खांटी गंवई प्रज्ञा और कहीं दार्शनिक गूढ़ता भी।
पहेली किसी एक देश या समाज या संस्कृति की मिल्कियत नहीं। संसार की पहली पहेली कहां, कब और किसके द्वारा रची गई, यह भी दावे से नहीं कहा जा सकता। वैसे ठोस रूप में संरक्षित सबसे पुरानी पहेलियां मेसोपोटामिया (वर्तमान में इराक) की प्राचीन सुमेरियाई सभ्यता से संबंधित बताई जाती हैं। ये 25 पहेलियां 2350 ईसा पूर्व के एक फलक पर दर्ज हैं। इनमें से संभवत: सबसे मशहूर पहेली कुछ इस प्रकार है- 'एक घर है, जिसमें लोग दृष्टिहीन प्रवेश करते हैं और दृष्टिवान होकर निकलते हैं। क्या है वह?" इसका उत्तर है 'विद्यालय"
संसार भर के प्राचीन साहित्य में पहेलियां किसी--किसी रूप में प्रकट होती हैं। मसलन, महाभारत में यक्ष प्रश्न। ऋग्वेद में भी पहेलियों का समावेश है। मध्यकालीन अरबी-फारसी संस्कृति में भी पहेलियोें की प्रचुरता पाई जाती है। योरप के पुरातन साहित्य में भी ये शामिल हैं। हां, प्राचीन चीनी साहित्य में यह कम ही पाई जाती हैं क्योंकि इन्हें स्तरीय साहित्य का हिस्सा नहीं माना जाता था। हालांकि पहेलियों का अस्तित्व वहां भी रहा है। मसलन यह कि 'क्या है वह चीज, जो धोने पर गंदी हो जाती है और न धोने पर स्वच्छ रहती है?" (पानी)। या फिर, 'जब इस्तेमाल करो तो फेंक देते हो और जब इस्तेमाल न करना हो तो वापस ले आते हो!" (जहाज का लंगर)
पहेलियां लोक संस्कृति का भी अभिन्न् हिस्सा रही हैं। कितनी ही लोक कथाओं में हमें इनकी झलक मिलती है। इसके अलावा, ये पर्वों आदि में भी शामिल की जाती हैं। मसलन, चीन में वसंत ऋतु में मनाए जाने वाले लैंटर्न फेस्टिवल या दीप उत्सव में पहेलियों की परंपरा का भी समावेश है। लोेग अपने घरों के बाहर जो चिराग टांगते हैं, उन पर एक कागज नत्थी कर उस पर कोई पहेली लिख देते हैं। घर के सामने से गुजरने वाले लोग, खासकर बच्चे इन पहेलियों को हल करने की कोशिश करते हैं। अगर किसी को हल सूझ जाए तो वह पर्ची हटाकर, द्वार खटखटाकर गृहस्वामी को पर्ची पकड़ाते हुए हल बता सकता है। अगर उसने सही हल बताया, तो उसे गृहस्वामी की ओर से कोई उपहार दिया जाता है।
जहां चीन में खुशी के उत्सव में पहेलियों को शामिल किया गया है, वहीं फिलिपीन्स में गमी के मौके पर पहेलियां बुझाई जाती हैं! वहां के कुछ ग्रामीण इलाकों में यह रिवाज है कि किसी की मृत्यु होने पर मित्र, रिश्तेदार आदि जब उसे अंतिम बिदाई देने आते हैं, तो आपस में पहेलियां भी बुझाते हैं। तो वाकई अजीब है पहेलियों की पहेली, जो खुशी और गम दोनों ही में दिमागी कसरत करवाने आ धमकती हैं।