Tuesday 23 June 2015

समय तू धीरे-धीरे चल...


कहा गया है कि समय किसी के लिए ठहरता नहीं, मगर जिस पृथ्वी के घूमने पर इसका अस्तित्व टिका है, वह इसे रोक भी लेती है... भले एक सेकंड के लिए ही सही! इधर हम अक्सर इसके जल्दी या फिर धीरे चलने की दुआ ही कर सकते हैं।
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लगता है कोई गा रहा था 'समय तू धीरे-धीरे चल..." और समय ने उसकी सुन ली। इस महीने समय अपनी रफ्तार जरा धीमी करने जा रहा है और अगला महीना पूरे एक सेकंड देरी से आने वाला है। 30 जून और 1 जुलाई की दरमियानी रात जब 11 बजकर 59 मिनट और 59 सेकंड होंगे, तो समय एक सेकंड रुककर आगे बढ़ेगा। दूसरे शब्दों में कहें, तो जून का वह आखिरी मिनट 61 सेकंड का होगा। यह मशक्कत हमारे उन वैज्ञानिकों की बदौलत होगी, जो मानव निर्मित घड़ियों को पृथ्वी के घूर्णन के हिसाब से सेट करने को तत्पर रहते हैं। हम बोलचाल में कह देते हैं कि पृथ्वी अपने अक्ष पर एक चक्कर घूमने में 24 घंटे लेती है, इसलिए दिन 24 घंटे का होता है। मगर पृथ्वी ठहरी अपनी मर्जी की मालिक। वह घड़ी देखकर नहीं चलती। लिहाजा, पथ्वी की गति के हिसाब से बिल्कुल सटीक समय बताने का दावा करने वाली एटॉमिक घड़ियां भी कभी-कभी झूठी पड़ जाती हैं। इन्हीं को फिर 'सच्चा" बनाने के लिए समय-समय पर एक 'लीप सेकंड" सृजित किया जाता है। ऐसा करने से ये घड़ियां फिर पृथ्वी की चाल से चाल मिलाने लगती हैं। यह लीप धनात्मक भी हो सकता है (जिसमें एक सेकंड बढ़ जाता है) और ऋणात्मक भी (जिसमें एक सेकंड घट जाता है)। वैसे 1972 में जब से 'समय सुधार" की यह विधि शुरू की गई, तब से सेकंड घटाने की जरूरत नहीं पड़ी है, जबकि 25 बार एक-एक सेकंड बढ़ाया जा चुका है।
कहा गया है कि समय किसी के लिए ठहरता नहीं, मगर जिस पृथ्वी के घूमने पर इसका अस्तित्व टिका है, वह इसे रोक भी लेती है... भले एक सेकंड के लिए ही सही! इधर हम अक्सर इसके जल्दी या फिर धीरे चलने की दुआ ही कर सकते हैं। जब कहीं पहुंचने या किसी से मिलने की बेताबी हो, तो ख्याल आता है कि काश समय पंख लगाकर उड़ जाए और जल्दी से हम अपने गंतव्य पर पहुंच जाएं या प्रिय से मुलाकात हो जाए। वहीं कई बार जी करता है कि समय थम जाए या आगे बढ़े भी तो धीमे-धीमे...। इसके उलट, यह भी सच है कि कई बार हमें समय वास्तव में सामान्य से धीमा या फिर तेज चलता महसूस होता है। यानी समय का हमारा आभास इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या कर रहे हैं, हमारे आसपास क्या हो रहा है...
यूं भी, समय कोई ऐसा 'तत्व" नहीं है जिसे आप-हम देख-छू सकें। यह एक अवधारणा ही है। हमने मान लिया है कि समय है, वह बीतता है...। उसके बीतने की गति को सेकंड, मिनट और घंटों की नाप में बांध डाला है हमने। यह नाप खास तौर पर विज्ञान की तरक्की में बड़ा काम आया है। आज हम घड़ी के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकते। जो समय से बंधा अनुशासित जीवन नहीं जीते, उन्हें भी कहीं--कहीं यह घड़ी पकड़ ही लेती है। फिर दिन, महीने, साल बताने वाला कैलेंडर भी तो घड़ी का ही विस्तार है... समय नापने का एक और पैमाना। मानव की शायद ही कोई और रचना हो, जिसने उसके जीवन को हमेशा के लिए उस कदर बदल डाला हो, जैसे 'समय" की अवधारणा ने बदला है।

खैर, हमने समय को रचा और खुद को व अपने जीवन को उसी की पटरियों पर दौड़ने के हिसाब से ढाल भी लिया। मगर न केवल धरती कभी-कभी इस समय की तयशुदा चाल से हटकर अपनी अलग चाल चल जाती है, बल्कि हमारा मन भी घड़ी के मापदंडों को नहीं मानता। अपने मापदंड खुद तय करता है। आपने भी गौर किया होगा कि जब आप किसी नई जगह पर जाने के लिए सफर करते हैं, तो यह सफर लंबा महसूस होता है मगर ठीक उसी रास्ते से होने वाला वापसी का सफर उसके मुकाबले कम समय लेता प्रतीत होता है। पहले भी वैज्ञानिकों ने इस 'भ्रम" का कारण जानने की कोशिश की है और अभी पिछले दिनों एक बार फिर जापान के कुछ वैज्ञानिकों ने इस पर शोध कर इसे अपने तरीके से समझने-समझाने की कोशिश की। कुल मिलाकर बात कुछ यूं है कि जाते समय नए स्थान पर पहुंचने की व्यग्रता के चलते हमारा ध्यान बार-बार समय पर जाता है कि 'और कितना टाइम है पहुंचने में!" इस कारण यह सफर लंबा महसूस होता है। वहीं वापसी में हम पिछले अनुभव के आधार पर यह सोचकर चलते हैं कि सफर में अधिक समय लगेगा। जब उतना समय नहीं लगता, तो हम सोचते हैं कि वापसी में रास्ता जल्दी कट गया। यानी है सब हमारा भ्रम ही। वैसे भी, इस 30 तारीख को मिलने वाला एक अतिरिक्त सेकंड सच होगा या भ्रम, इस बात पर ज्यादा माथा खपाने की जरूरत नहीं। यह कब बीत जाएगा, आपको पता भी नहीं चलेगा...।