Sunday 25 September 2016

चेहरे पर अध्यात्म के रंग

चेहरे से हमारी पहचान होती है और इस पर रंग पोतकर या चित्र उकेरकर हम एक तरह से अपनी पहचान बदल लेते हैं या कह लें कि एक नई पहचान प्राप्त कर लेते हैं। अलग-अलग कारणों से यह चित्रकारी करने की परंपरा अनेक देशों में रहती आई है और आज भी कायम है।
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अति प्राचीन गुफाओं की दीवारों पर उकेरी गई चित्रकारी इस बात की गवाह है कि इंसान में रंगों व रेखाओं से सृजनात्मक अभिव्यक्ति की ललक जन्मजात रही है। मगर यह अभिव्यक्ति शायद दीवारों से भी पहले खुद इंसान के शरीर पर प्रकट हुई, खास तौर से चेहरे पर। अधिकांश पुरातन संस्कृतियों में चेहरे पर चित्रकारी की परंपरा के प्रमाण मिलते हैं और आज भी अनेक आदिवासी समुदायों में यह परंपरा कायम है। कई शास्त्रीय अथवा लोक नृत्यों का भी यह अनिवार्य अंग है, जैसे कि दक्षिण भारत का कथकअली। ऐसा भी नहीं है कि यह केवल कलात्मक अभिरुचि का मामला हो। इस परंपरा के पीछे कई अन्य कारण भी रहे हैं, कभी धार्मिक, कभी रणनीतिक, तो कभी कुछ और। मसलन, शिकार करने के दौरान खुद को झाड़ियों में छुपाने के लिए चेहरे की यह चित्रकारी बड़े काम आती थी। इसी तरह जंगलों में होने वाले आदिकालीन युद्धों में यह छद्मावरण के रूप में कारगर थी। किसी खास तरह की चित्रकारी 'वर्दी" का काम भी करती थी, यानी व्यक्ति के सैनिक होने की पहचान उसके चेहरे पर अंकित रंगों व रेखाओं से होती थी। साथ ही, खुद पर डरावनी आकृतियां पोतकर वह दुश्मन को आक्रांत करने की मंशा भी रखता था। आज हमारे आधुनिक, शहरी मन को भले ही यह प्रयास भोला, बचकाना या हास्यास्पद लगे मगर इसके पीछे के मनोवैज्ञानिक पक्ष को खारिज नहीं किया जा सकता।
चेहरे से हमारी पहचान होती है और इस पर रंग पोतकर या चित्र उकेरकर हम एक तरह से अपनी पहचान बदल लेते हैं या कह लें कि एक नई पहचान प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार यह चित्रकारी एक आध्यात्मिक आयाम भी ले लेती है। दक्षिण अमेरिका में अमेजन के जंगलों के आदिवासी तो मानते हैं कि अपनी पहचान बदल लेने की यह शक्ति ही हमें पशुओं से अलग करती है!
अफ्रीका की अनेक जनजातियों में आज भी चेहरे व शरीर पर की जाने वाली चित्रकारी एक खास महत्व रखती है। स्त्रियों व पुरुषों के चेहरे अलग-अलग तरह से रंगे जाते हैं। कम उम्र के लड़कों के चेहरे पर अलग चित्रकारी की जाती है और वयस्क पुरुषों के चेहरे पर अलग। वृद्धों की चित्रकारी और अलग होती है। यह चित्रकारी सामाजिक दर्जा भी दर्शाती है। कई जगहों पर इस चित्रकारी से ही कुनबों-कबीलों की पहचान होती है। सूदान के एक समुदाय में तो इस कलाकारी में प्रयुक्त रंगों को लेकर सख्त नियम होते हैं। 'अनाधिकृत" रूप से कोई रंग अपने चेहरे पर पोतने पर आपको सजा भी दी जा सकती है। मसलन, काला रंग लगाने की अनुमति किशोरावस्था पार करने के बाद ही मिलती है। वहीं दक्षिण अफ्रीका के एक समुदाय में आध्यात्मिक गुरु अपना चेहरा सफेद पोतते हैं।
चेहरे पर पोते जाने वाले रंगों की भी अपनी-अपनी व्याख्या होती है। लाल रंग कहीं उत्सव और खुशी का प्रतीक है, तो कहीं क्रोध व युद्ध का। कहीं शोक व्यक्त करने के लिए चेहरे पर काला रंग लगाया जाता था, तो कहीं युद्ध में विजय के सूचक के रूप में। कुछ अमेरिकी आदिवासियों में योद्धा के चेहरे पर पोता गया पीला रंग यह दर्शाता था कि वह आर-पार की लड़ाई के लिए, यानी अपने प्राण न्योछावर करने के लिए तैयार है। कई समुदायों में यह विश्वास आम रहा है कि आंखों के ठीक नीचे हरा रंग लगाने से रात में अच्छा नजर आता है।

मेक्सिको में प्रति वर्ष मनाए जाने वाले दिवंगत आत्माओं के उत्सव में इस प्रकार की चित्रकारी का खास महत्व है। पहले इस उत्सव पर दिवंगत आत्माओं के सम्मान में खोपड़ियां प्रस्तुत करने का रिवाज हुआ करता था। ये खोपड़ियां मृत्यु और पुनर्जन्म की प्रतीक थीं। अब असल खोपड़ियों के स्थान पर प्रतीकात्मक खोपड़ियों से काम चलाया जाता है। कभी शकर से 'खोपड़ी" बनाई जाती है, कभी चेहरे पर खोपड़ी का मुखौटा लगा लिया जाता है या फिर चेहरे पर ही खोपड़ी की आकृति उकेर दी जाती है। लोग मानते हैं कि चेहरे पर इस तरह 'खोपड़ी" चित्रित करने से मृत्यु का भय जाता रहता है। साथ ही, आत्माओं को प्रिय माने जाने वाले गेंदे व अन्य फूलों की आकृति भी चेहरे पर बनाई जाती है। इस प्रकार लोग अपने दिवंगत पूर्वजों के करीब महसूस करते हैं। चेहरे की यह चित्रकारी एक तरह से उनकी व उनके पूर्वजों की पहचान को एकाकार कर देती है। 

Sunday 4 September 2016

क्या आप गरम दलिए में चहलकदमी करते हैं?

सदियों के ज्ञान का निचोड़ प्रस्तुत कर कोई बुद्धिमत्तापूर्ण बात बताने वाले विश्व भर के मुहावरे और लोकोक्तियां कई बार अपने अटपटेपन से गुदगुदाते भी हैं।
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लोकोक्तियों और मुहावरों में मानव मनोविज्ञान झलकता है, इंसानी तजुर्बों का निचोड़ सामने आता है, थोड़ा व्यंग्य व्यापता है और साथ ही सामने खड़ा होता है विभिन्ना संस्कृतियों का आईना। देशों, समाजों का रहन-सहन, आदतें, मूल्य और साथ ही उनका विनोदी पक्ष इन लोकोक्तियों व मुहावरों में अपना रंग दिखाता है। मगर बुद्धिमत्तापूर्ण बात कहने के साथ-साथ कई बार ये अपने अटपटेपन से गुदगुदाते भी हैं।
अब देखिए ना, लोग कपड़ों पर इस्तरी करते हैं, कभी-कभी इस्तरी का इस्तेमाल हथियार के रूप में करते हुए इसे किसी के सिर पर मार भी सकते हैं लेकिन यदि कोई कहे कि 'मेरे सिर पर इस्तरी मत करो" तो? बात आपको अटपटी लगेगी न? भला सिर पर इस्तरी कौन चलाता है! मगर आर्मेनिया में जब किसी को बहुत परेशान किया जा रहा हो, तो वह अपने सामने वाले से यही कहेगा कि मेरे सिर पर इस्तरी मत करो। चलिए अब बताइए, कोई आपको कद्दू दे, तो आप क्या करेंगे? सबसे पहले तो लंबा-चौड़ा, भारी-भरकम कद्दू उठाकर ले जाने की चिंता करेंगे। मगर यदि कोई आपको कद्दू दे और आपके हाथ कुछ न लगे तो...? स्पेन में जब कोई आपको ठुकरा दे या वादा करके मिलने न आए, तो कहा जाता है कि उसने आपको कद्दू दे दिया। उधर जर्मनी में यदि कोई कहे कि तुम्हारी आंखों पर टमाटर लगे हैं, तो वास्तव में वह आपको उलाहना दे रहा है कि आपको वह नहीं दिख रहा जिसे सब देख पा रहे हैं। यह 'तुम्हारी आंखों पर पट्टी बंधी है" कहने का ही जरा और मजेदार तरीका है।
अलग-अलग देशों के कुछ मुहावरों में कभी-कभी समानता भी नजर आती है और उनका अर्थ भी लगभग वही होता है। मसलन, हम कहते हैं, 'गई भैंस पानी में"। वहीं पुर्तगाल में कहा जाता है, 'गई गाय दलदल में"। इसी प्रकार हम कहते हैं, 'तिल का ताड़ बनाना", वहीं एस्टोनिया में कहते हैं, 'मच्छर का हाथी बना देना!" हम कहते हैं, 'आग लगने पर कुआं खोदना", तो जापानी कहते हैं, 'चोर पकड़कर रस्सी बनाने बैठना।" हम कहते हैं, 'गधे गुलाब जामुन खा रहे हैं", वहीं पोलैंड में कहा जाता है, 'गधे को केक मत खिलाओ।" है न मजेदार समानता?
अक्सर देशों, समाजों और समुदायों के पूर्वाग्रह उनके मुहावरों-लोकोक्तियों में प्रकट हो जाते हैं। अल्बेनिया वासियों की ग्रीस वासियों से पुरानी अदावत इस सलाहनुमा अल्बेनियाई लोकोक्ति में सामने आ जाती है कि 'किसी ग्रीक से हाथ मिलाने के बाद अपनी उंगलियां गिन लिया करो!" सर्बिया में जब कोई कहता है कि 'अंगरेज होने का ढोंग मत करो", तो वास्तव में वह यह कह रहा है कि 'ज्यादा भोले/ अनजान मत बनो!" रूस की जनता पोलैंड के लोगों के बारे में क्या सोचती है, यह इस रूसी लोकोक्ति में नजर आता है: 'एक रूसी बाल पोलैंड के आधे आदमी से ज्यादा वजनदार होता है!" कहिए, हुई न बड़बोलेपन की पराकाष्ठा?
कुछ मुहावरे सुनकर तो उनका आविष्कार करने वालों की कल्पनाशक्ति की दाद देने को मन करता है। जरा चेक गणराज्य के इस मुहावरे पर गौर कीजिए: 'गरम दलिए में चलहकदमी करना"। अब भला कोई दलिए में, वह भी गरम दलिए में चहलकदमी क्यों करेगा? चलहकदमी करने के लिए और कोई जगह नहीं मिली क्या? दरअसल किसी बात को घुमा-फिराकर कहने को गरम दलिए में चहलकदमी करना कहते हैं! उधर फ्रांस में बेहद महत्वाकांक्षी व्यक्ति के लिए कहा जाता है, 'वह तो अपने दांतों से फर्श खरोंचना चाहता है!"
किसी मामूली नुक्स को ठीक करने की सनक में बड़ा नुकसान कर बैठने के लिए जापान में कहा जाता है, 'सींग सीधे करके बैल की जान ले लेना"। कुछ ऐसी ही सलाह चीन में भी दी जाती है: 'दोस्त के माथे से मक्खी उड़ाने के लिए कुल्हाड़ी मत इस्तेमाल करो!" यानी नेकी करने के उत्साह में कहीं बदी न कर बैठो। इसी प्रकार छोटे-से काम के लिए बड़ा तामझाम करने पर थाइलैंड में कहते हैं, 'हाथी पर बैठकर टिड्डी का शिकार करना"

अगर आप किसी रूसी से पूछें कि कहां जा रहे हो और वह कहे, 'वहां, जहां ज़ार पैदल जाते हैं", तो आप जरूर चकरा जाएंगे। इसे यूं समझिए कि राजशाही के जमाने में रूसी सम्राट, जिसे ज़ार कहा जाता था, के खूब ठाठ थे, जैसे कि अधिकांश सम्राटों के हुआ करते थे। आम मान्यता थी कि उन्हें कहीं भी पैदल चलकर नहीं जाना पड़ता, हर जगह जाने के लिए शाही बग्घी मौजूद होती है। बस, एक जगह थी जहां ज़ार महोदय बग्घी से नहीं, पैदल चलकर जाते थे और वह था शौचालय। ... अब तो आप समझ गए ना, कि रूसी जब कहता है कि वह वहां जा रहा है जहां ज़ार पैदल जाते हैं, तो वह कहां जा रहा है...?