Monday 23 July 2012

डॉक्टर गुड़िया, जो झगड़े भी बुहार दे!



यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि दुनिया की पहली गुड़िया किसी बच्चे के खेलने के लिए बनाई गई थी या किसी अन्य उपयोग के लिए। कुछ इतिहासविदों का मत है कि पहली-पहली गुड़ियाएँ संभवत: जादू-टोने के लिए या धार्मिक अनुष्ठानों के लिए बनाई गई होंगी।
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ऐसा शायद ही कोई बच्चा हो जो किसी खिलौने से खेला हो। यहाँ खिलौने से तात्पर्य बाजार में मिलने वाले ब्रांडेड या अन्य खिलौनों से ही नहीं है। खिलौना तो हर वह चीज है जो किसी बच्चे का मन रमा जाए। किसी निर्माण स्थल पर श्रमिकों के नन्हें बच्चों को आपने कंकर-पत्थर से खेलने में मस्त जरूर देखा होगा। यह फितरत किसी भी वर्ग के बच्चों में देखी जा सकती है क्योंकि बच्चे भला कौन-सा वर्ग, कौन-सी श्रेणी मानते या जानते हैं? मर्चेंट नेवी में कार्यरत एक सज्जन अपनी विदेश यात्राओं से लौटने पर अपने बच्चे के लिए दुनिया भर से महँगे से महँगे खिलौने लेकर आते थे। ये सब खिलौने अपने नन्हे आका द्वारा एक बार उलट-पलट किए जाने के बाद एक तरफ धर दिए जाते क्योंकि नन्हे नवाब के प्रिय खिलौने तो किचन में सजी कटोरियाँ-चम्मचें थीं! वह घंटों उन्हीं से खेलने में मस्त रहता। एक साधन-संपन्न मध्यम वर्गीय घर की बच्ची हमेशा बगल में कोई चीज दबाए दिखती थी। एक दिन पास जाने पर देखा कि वह टैल्कम पावडर का पुराना खाली डिब्बा था, जो उस बच्ची को किसी गुड़िया से ज्यादा प्यारा था और जिससे कभी-कभी वह उसी तरह बात भी कर लिया करती थी जैसे अन्य बच्चियाँ अपनी गुड़िया से करती हैं! कहना होगा कि खिलौने का चयन करते वक्त नन्हे बच्चे किसी अमूर्त चित्रकार की-सी दृष्टि रखते हैं।
बच्चों का जो खिलौना देश और काल की सीमाओं को लांघते हुए सबसे ज्यादा व्याप्त हुआ है, वह शायद गुड़िया ही है। हाँ, यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि दुनिया की पहली गुड़िया किसी बच्चे के खेलने के लिए बनाई गई थी या किसी अन्य उपयोग के लिए। कुछ इतिहासविदों का मत है कि पहली-पहली गुड़ियाएँ संभवत: जादू-टोने के लिए या धार्मिक अनुष्ठानों के लिए बनाई गई होंगी। वैसे कुछ साल पहले इटली में 4000 साल पुरानी गुड़िया का सिर मिला था, जिसके बारे में पुरातत्वविदों का कहना था कि यह खिलौने के रूप में ही बनाई गई थी। मिस्र में 2000 ईसा पूर्व की कब्रों में शव के साथ गुड़ियाएँ भी दफन पाई गई हैं। रोम और यूनान में बच्चों की कब्रों में गुड़िया भी दफन करने का रिवाज था। इन दो प्राचीन सभ्यताओं में गुड़ियाएँ खेलने एवं धार्मिक अनुष्ठान दोनों के ही काम आती थीं। जब लड़की को लगे कि अब उसकी गुड़ियाओं से खेलने की उम्र नहीं रही, तो वह अपनी गुड़ियाएँ अपनी आराध्य देवी को समर्पित कर देती थी।
उस काल की गुड़ियाएँ लकड़ी, कपड़े, मिट्टी या फिर पशुओं की हड्डी से बनाई जाती थीं। कुछ अधिक परिष्कृत गुड़ियाएँ हाथी दाँत या मोम से भी बनाई जाती थीं। करीब 600 ईसापूर्व के आसपास हिलने वाले हाथ-पैर वाली गुड़ियाएँ बनने लगी थीं। साथ ही गुड़िया को पहनाने के कपड़े भी अलग से बनने शुरू हो गए थे।
गुड़ियाएँ बढ़ते बच्चों के विकास की एक अहम् जरूरत को पूरा करती हैं। वे बच्चों को किसी के साथ अपनत्व भरा रिश्ता बनाना, उसकी देखभाल करना, अलग-अलग भूमिकाएँ निभाना सिखाती हैं। गुड़ियाओं से खेलना किसी रचनात्मक कर्म से कम नहीं होता। मनोवैज्ञानिक गुड़ियाओं से खेलने को मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा मानते हैं। यहाँ तक कि मनोरोगों के उपचार में कभी-कभी गुड़ियाओं का सहारा लिया जाता है, बच्चों में ही नहीं, बड़ों में भी। यह भी देखा गया है कि भूकंप, सुनामी आदि प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित बच्चों, खास तौर पर अपने निकटजन को खो चुके बच्चों को जब गुड़ियाएँ दी गईं, तो उन्हें भावनात्मक संबल मिला और उस त्रासदी से उबरने में उन्हें मदद मिली। यह भी पाया गया कि फैक्टरी निर्मित गुड़ियाओं के मुकाबले हाथ से बनी गुड़ियाओं ने ऐसे बच्चों को अधिक सुकून दिया। हाथ से गुड़िया बनाते वक्त उसमें उड़ेला गया प्रेम और अपनत्व शायद उससे खेलने वाले बच्चे तक पहुँच जाता है। यह बात फैक्टरियों की गड़गड़ाती, बेदिल मशीनों से निर्मित गुड़ियाओं में कहाँ!
बात ताज्जुब की है लेकिन जहाँ गुड़ियाएँ सकारात्मक भावनाएँ उभारती हैं, वहीं मनुष्य के भीतर की घृणित नकारात्मक भावनाएँ भी कई बार इनसे सामने जाती हैं। नन्हे बच्चे तो चलो, कभी यूँ ही गुड़िया के साथ थोड़ी ढिशूम-ढिशूम कर लेते हैं (बहन पर रहा गुस्सा उसकी गुड़िया पर उतारने वाले भाई तो आपने देखे ही होंगे)! मगर कई बार अधिक बड़े बच्चे या विकृत मानसिकता वाले वयस्क भी अपनी कुंठाओं को निरीह, निर्जीव गुड़ियाओं पर हिंसक रूप से प्रकट करते हैं। ऐन लिटल नामक अमेरिकी महिला ने ऐसी हिंसा की शिकार गुड़ियाओं को 'आश्रय" देना जैसे अपना मिशन बना लिया है। वे जब भी सड़क किनारे फेंकी गई गुड़िया देखती हैं, तो उसे उठाकर अपने घर ले आने से स्वयं को रोक नहीं पातीं। उनका कहना है कि आज तक उन्होंने किसी 'गुड्डे" को यूँ लावारिस छोड़ा गया या तोड़ा-मरोड़ा गया नहीं देखा है। हिंसा की शिकार गुड़ियाएँ ही होती हैं। लोग यूँ ही इन्हें सड़क किनारे नहीं फेंक जाते, अक्सर इनके बाल नोचकर निकाल दिए गए होते हैं, हाथ-पैर तोड़ दिए गए होते हैं, कपड़े फाड़ दिए गए होते हैं। ऐन का मानना है कि कहीं--कहीं यह हमारे समाज में स्त्रियों के विरुद्ध व्याप्त हिंसा का ही प्रतिबिंब है। वे इस बात से भी विचलित हैं कि लोग यूँ तोड़-मरोड़कर फेंकी गई गुड़ियाओं को लेकर संवेदनशील नहीं हैं और इन्हें साधारण कचरे का हिस्सा मानकर अपनी राह चल देते हैं। वे इसे स्त्री विरोधी हिंसा को समाज द्वारा दी गई मौन सहमति का ही विस्तार मानती हैं। ऐन के विचार आपको कुछ अतिवादी लग सकते हैं मगर ये एक बार सोचने को विवश तो करते हैं।
खैर, ठेठ पूर्वी योरपीय देशों की संस्कृति में तो गुड़ियाएँ बड़े ही अनूठे तरीके से शामिल हैं। यहाँ एक खास किस्म की 'उर्वरता गुड़िया" शादी के समय दुल्हन को अनिवार्य रूप से भेंट की जाती थी, इस मंगलकामना के साथ कि जल्द ही नव-दंपत्ति के घर किलकारियाँ गूँजें। बिना सुई या कैंची का इस्तेमाल किए बनाई गई अभिमंत्रित 'उर्वरता गुड़िया" शुभ मानी जाती है। कुछ अन्य किस्म की गुड़ियाएँ भी वहाँ खास उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल की जाती रही हैं। मान लीजिए किसी महिला का अपने पति से झगड़ा होता रहता है, तो वह एक खास तरह की गुड़िया बनाकर उससे अपने घर में झाड़ू लगाएगी...! ऐसा कर वह प्रतीकात्मक रूप से अपने घर से सारे झगड़े बुहारकर बाहर कर देगी, ताकि घर में सुख-शांति रहे! ऐसे ही अन्य उपायों के लिए भी अभिमंत्रित गुड़ियाएँ बनाने की परंपरा पूर्वी योरप के देशों में रही है। तो कौन कहता है कि गुड्डे-गुड़ियाएँ बच्चों का खेल मात्र हैं...?