Thursday 29 December 2016

राहों में बिखरे किस्से

इतिहास की राहें और राहों का इतिहास अनेकानेक दिलचस्प किस्सों से भरा पड़ा है...
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कभी सोचा है, यदि सड़कें न होतीं तो जीवन कैसा होता? कैसे होता सफर, कैसे होता पर्यटन, कैसे होता व्यापार और कैसे निभती सामाजिकता? सीमाओं तक किस प्रकार पहुंचते सैनिक और रोगी कैसे पहुंचते चिकित्सक के पास? कह सकते हैं कि सड़कें न होतीं तो सभ्यता भी न होती। कच्चे रास्तों ने जब पक्की सड़कों का रूप लेना शुरू किया, तो मनुष्य ने अपने विकासक्रम में एक लंबी छलांग लगाई। पहिए के आविष्कार की सार्थकता सिद्ध करने के लिए सड़कें जरूरी थीं।
सड़कें बनीं, तो लंबे-लंबे सफर शुरु हुए। ऐसा नहीं है कि इससे पहले सफर नहीं होते थे। होते थे, मगर सड़कों ने उन्हें गति दी, व्यवस्थित और सुगम बनाया। लंबे सफर की संभावनाओं के रोमांच के साथ ही इंसान के मन में अनजान राहों की अनिश्चितताओं का भय भी व्याप्त हुआ। तब उसने अपनी सुरक्षा के लिए और अपने सफर के उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी दिव्य शक्ति का आह्वान करना जरूरी समझा। प्राचीन रोम में जहां एबियोना जाते सफर की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली देवी के रूप में पूजी जाती थीं, वहीं एडियोना वापसी के सफर की देवी मानी जाती थीं। देश कोई भी हो, प्राचीन मार्गों के किनारों पर अक्सर किसी आराध्य के छोटे-बड़े देवालय बनाए जाते थे। इनकी उपस्थिति मात्र से और इनके समक्ष शीष नवाने से सफर के दौरान किसी परा शक्ति का सुरक्षा कवच प्राप्त होने का आभास होता था। यूनान में प्रकाश के देवता अपोलो को सुरक्षित यात्रा के लिए प्रसन्ना किया जाता था। इसका एक कारण तो यह था कि यात्रा दिन के प्रकाश में की जाती थी और दूसरा कारण यह कि सूर्य के रथ का सारथी होने के नाते अपोलो स्वयं एक दिव्य यात्री थे। सफर के लिए अच्छा मौसम अनिवार्य था, सो कई जगहों पर सुरक्षित सफर के लिए मौसम के देवताओं का आह्वान करने के प्रमाण भी मिलते हैं। यूनान में सफर के दौरान अच्छे मौसम के लिए आर्टिमिस देवी से प्रार्थना की जाती, तो मध्य पूर्व में बालशामिन देवता से। जापान में लोग रास्ते में भूत-पिशाचों से रक्षा के लिए याचीमाता हिमी और याचीमाता हिको नामक देवियों से आग्रह करते थे। मेसोपोटामिया के लोग मानते थे कि हासामेलिस देवता उन्हें अदृश्यता का चोगा ओढ़ाकर उनकी यात्रा सुरक्षित पूरी कराते हैं।
सड़कें बनीं, तो यात्राओं को दिशा मिली मगर जहां दो राहें आकर एक-दूसरे से मिल, आगे बढ़ जातीं, वहां भ्रम का जिन्ना उठ खड़ा होता। अब इस राह चलें या उस राह? दायें मुड़ें या बायें या फिर सीधे ही चलते जाएं? चौराहों और तिराहों ने आदि काल के यात्रियों को काफी आक्रांत किया। इतना, कि इनसे पार लगाने के लिए उन्हें किसी पृथक आराध्य की जरूरत महसूस हुई। रोम में तो तिराहों पर रक्षा करने के लिए एक पृथक देवी थीं, ट्रिविया। माना जाता था कि इनके तीन सिर हैं, जिनकी मदद से वे एक ही समय में तीन दिशाओं में देख सकती हैं। 'ट्रिविया" का शाब्दिक अर्थ ही 'तीन राहें" होता है। तिराहों पर ट्रिविया देवी की मूर्ति स्थापित की जाती थी, जहां यात्री उन्हें चढ़ावा चढ़ाते थे। यूनान में हेकटी देवी भी इसी तरह तिराहों की देवी के रूप में पूजी जाती थीं। उन्हें प्रसन्ना करने के लिए यात्री अपने भोजन का एक हिस्सा चढ़ावे के तौर पर तिराहे पर छोड़ जाते थे। अक्सर तिराहों पर एक खंभा खड़ा कर उस पर तीन दिशाओं में तीन मुखौटे लटका दिए जाते थे। ये देवी हेकटी के प्रतीक होते और इनके जरिये देवी का आह्वान किया जाता कि वे यात्रियों को सही राह चुनने में मदद करें।

जहां दो राहें आपस में मिलती हैं, उस स्थान को दो लोकों के मिलन-स्थल के रूप में भी देखा गया। ऐसी मान्यताएं रही हैं कि इस स्थान पर परालौकिक गतिविधियां होती हैं। इसलिए चौराहों पर तरह-तरह के टोने-टोटके करने के रिवाज अनेक संस्कृतियों में मिलते हैं। मध्य योरप के बोमरवॉल्ड पर्वतों में बसने वाली जनजातियों में यह विश्वास था कि 30 अप्रैल की रात को चौराहों पर चुड़ैलों की सभा होती है। सो इस रात जांबाज युवा चौराहों पर जाकर कोड़े फटकारते थे, जिससे ये चुड़ैलें भाग खड़ी हों। इसी प्रकार 23 जून को सेंट जॉन्स ईव के मौके पर चौराहों पर अलाव जलाकर दुष्टात्माओं को भगाने का यत्न किया जाता। एक समय इंग्लैंड में मृत्युदंड प्राप्त अपराधियों तथा आत्महत्या करने वाले लोगों को चौराहों पर दफनाया जाता था। इसके पीछे मान्यता यह थी कि इस तरह मरने वालों की आत्मा बेचैन रहती है और लोगों को परेशान करने के लिए आ सकती है। चौराहे पर दफन करने से आत्मा चकरा जाती है कि किस ओर जाए! इस प्रकार यह लोगों को परेशान करने के लिए बस्ती में नहीं आ पाती...। सन् 1823 में इसी प्रकार एक चौराहे पर हो रहे अंतिम संस्कार में जुटी भीड़ के कारण सम्राट जॉर्ज चतुर्थ का काफिला थम गया और वे विलंब से महल पहुंच सके। इस पर नाराज सम्राट ने ब्रिटिश संसद से आग्रह किया कि वह कानून बनाकर चौराहों पर दफन के इस रिवाज को समाप्त कराए। तब जाकर यह परंपरा बंद हुई। सच, इतिहास की राहें और राहों का इतिहास ऐसे ही अनेकानेक दिलचस्प किस्सों से भरा पड़ा है। 

Sunday 4 December 2016

प्रकाश का प्राथमिक चमत्कार

हमारी पांच इंद्रियों में से केवल दृष्टि ही प्रकाश पर निर्भर है। इसके बावजूद यदि प्रकाश को बोध का, ज्ञान का प्रतीक कहा जाता है, तो स्पष्ट है कि हमारे पूर्वजों ने आरंभ से ही इसे अन्य संवेदों से ऊपर, एक खास दर्जा दिया है।
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प्रख्यात वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन के इस सिद्धांत को चुनौती दी जा रही है कि प्रकाश की गति हमेशा एक समान रहती है। बताया जा रहा है कि जल्द ही परीक्षण करके देखा जाएगा कि यह बात सही है या नहीं। चूंकि आधुनिक भौतिकशास्त्र बहुत हद तक प्रकाश की गति के स्थिर होने की मान्यता पर टिका हुआ है, इसलिए यदि यह मान्यता गलत साबित हो गई, तो विज्ञान के कई कथानकों का पुनर्लेखन करने की नौबत आ सकती है। खैर, परीक्षण का जो नतीजा आए सो आए, इस बहाने जरा इस बात पर भी गौर कर लिया जाए कि हमारे जीवन, हमारे अस्तित्व, हमारी संस्कृति और सभ्यता में प्रकाश का कैसा महत्व रहता आया है।
प्रकाश के प्रति मनुष्य मंे एक नैसर्गिक आकर्षण होता है। भोर की पहली किरण उसे उमंग से भर देती है। काले बादलों को चीरकर आती सूर्यकिरण उसे आशा का संदेश देती है। अंधकार उसे अनिश्चितता और भ्रम के भंवर में झोंकता है, वहीं प्रकाश उसे आश्वस्ती और ज्ञान का संबल देता है। सच तो यह है कि अंधकार के बीच से फूटते प्रकाश का नजारा मानव द्वारा अनुभूत सबसे प्राथमिक चमत्कार है। इस चमत्कार के पीछे किसी देवी शक्ति की भूमिका होने की बात मनुष्य के मन में आते देर नहीं लगी। ग्रीक आख्यानों के अनुसार, देवराज ज़्युस ने जब अपनी पुत्री आर्टिमिस से पूछा कि वह अपने तीसरे जन्मदिन पर क्या उपहार चाहेगी, तो आर्टिमिस ने जो छह उपहार मांगे, उनमें से एक था संसार में प्रकाश लाने की जिम्मेदारी। ज़्युस ने सहर्ष यह जिम्मेदारी आर्टिमिस को सौंप दी। इसलिए वन व शिकार की देवी के साथ-साथ उन्हें प्रकाश की देवी भी माना गया। दूसरी ओर चीन में माना जाता आया है कि जुन-दी नामक देवी सूर्य व चंद्रमा को आकाश में उठाए हुए हैं। इस प्रकार, रात हो या दिन, वे ही हम तक प्रकाश को पहुंचाती हैं। उनकी ही आभा ध्रुव तारे के रूप में भटके हुए राहगीरों को राह दिखाती है।
प्रकाश बोध का प्रतीक है। हमारी पांच इंद्रियों में से केवल दृष्टि ही प्रकाश पर निर्भर है। सुनने, सूंघने, स्वाद लेने या स्पर्श करने के लिए प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं होती। इसके बावजूद यदि प्रकाश को बोध का, ज्ञान का प्रतीक कहा जाता है, तो स्पष्ट है कि हमारे पूर्वजों ने आरंभ से ही इसे अन्य संवेदों से ऊपर, एक खास दर्जा दिया है। अनेक प्राचीन सभ्यताओं ने प्रकाश के प्रकट होने के साथ सृष्टि का आरंभ होना माना है। ऑस्ट्रेलिया के आदिवासियों का मानना है कि प्रकाश की किरण ही आत्मा को जागृत करती है। हमारे यहां भी आत्मा को प्रकाश माना गया है। शरीर जहां नश्वर है, वहीं आत्मा अखंड ज्योत है।

प्रकाश को पूजा भी गया है और आज भी अधिकांश धर्म-संस्कृतियों की पूजा पद्धतियों में प्रकाश की भूमिका अपरिहार्य है। कहीं दीयों के रूप में, तो कहीं मोमबत्तियों के रूप में यह पूजन विधियों में शामिल है। यहां तक कि प्रकाश का उत्सव भी विविध रूपों में अनेक स्थानों पर मनाया जाता है। भारत में दिवाली है, तो इसराइल में हनुका, जापान में ओबोन और थाईलैंड में यी पेंग व लोई क्रथोंग है। सच तो यह है कि मनुष्य ने प्रकाश के साथ अपने रिश्ते को ही एक उत्सव का रूप दे दिया है। जब तक मनुष्य है, यह संसार है, तब तक यह उत्सव जारी रहेगा। ...भौतिकशास्त्र के सिद्धांत भले ही आते-जाते रहें...! 

Sunday 27 November 2016

बया के घोंसले में बटेर मेहमान

बायस्कोप:
पंछियों में घोंसला बनाने की सहज वृत्ति होती है मगर संसार के पहले पंछी ने पहला घोंसला भला कैसे बनाया होगा? उसके पास इसके लिए सहज-वृत्ति कहां से आई होगी?
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क्या आप मकान बना सकते हैं? बिना इंजीनियरिंग सीखे, बिना किसी प्रशिक्षण के? नहीं न? मगर पंछी तो ऐसा कर लेते हैं! विभिन्ना प्रजातियों के पक्षी अपनी-अपनी तरह के घोंसले बनाते हैं और मजेदार बात यह है कि वक्त आने पर हर पंछी ठीक अपनी प्रजाति की 'परंपरा" के अनुरूप घोंसला बना डालता है। बिना कहीं से 'घोंसला निर्माण कला" सीखे, बिना विज्ञान की कोई डिग्री लिए! अब आप इसे सहज-वृत्ति कह लें या कुछ और मगर है यह प्रकृति का करिश्मा ही। प्रकृति के ये करिश्मे कला और विज्ञान की लाजवाब मिसाल होते हैं। एक सवाल मन मंे आता है कि संसार के पहले पंछी ने पहला घोंसला भला कैसे बनाया होगा! उसके पास इसके लिए सहज-वृत्ति कहां से आई होगी? इस सवाल का जवाब शायद ही कभी मिल पाए। खैर, तथ्यात्मक जानकारी की कमी की पूर्ति हमारी कल्पनाएं बखूबी कर लेती हैं। पक्षियों के घोंसलों के निर्माण, उनकी विशेषताओं, उनसे जुड़े शुभ-अशुभ आदि को लेकर मनुष्य ने खूब चिंतन किया है और इस चिंतन, इन कल्पनाओं के निष्कर्ष बड़े दिलचस्प रहे हैं।
एक इंडोनेशियाई लोकथा में बया और बटेर तथा उनके घोंसलों के बहाने यह बताया गया है कि जो एक के लिए अच्छा है, जरूरी नहीं कि वह दूसरे के लिए भी भला हो। बया और बटेर में इस बात को लेकर बहस हो गई कि किसका घोंसला बेहतर है। दोनों अपने-अपने घोंसले को दूसरे से अच्छा बताने लगीं। तय हुआ कि दोनों बारी-बारी से एक-दूसरे के घर में मेहमान बनेंगी और देखेंगी कि दूसरे का घोंसला कैसा है। पहली रात बटेर बया की मेहमान बनी। बया तो फुर्र से उड़कर पेड़ पर बने अपने घोंसले में पहुंच गई लेकिन बटेर को पेड़ चढ़कर वहां तक पहुंचने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ी। रात को तेज तूफान के साथ बारिश होने लगी। पेड़ की डालियां हवा में इस कदर लहराने लगीं, कि बटेर बुरी तरह डर गई। उसे लगा कि घोंसला अब गिरा कि तब गिरा। मगर बया चैन से सोती रही। दूसरी रात बया बटेर की मेहमान बनी। बटेर ने उसे गर्व से बताया कि मेरा घर तो जमीन पर गिरे एक पेड़ के अंदर है, वहां आंधी-तूफान का कोई डर नहीं। बया को ऐसे घर में सोना अटपटा लगा। रात को तेज बारिश होने लगी। पानी बढ़ते-बढ़ते घोंसले तक आने लगा। बया घबरा गई और बोली कि मैं भीग गई, तो क्या होगा। बटेर ने कहा, कोई बात नहीं, भीगोगी तो सूख भी जाओगी। उस रात बया सो नहीं पाई। अगली सुबह दोनों ने एक-दूसरे के घोंसले की बुराई की मगर फिर उन्हें एहसास हुआ कि वे दोनों अलग हैं, इसलिए उनकी जरूरतें और उनके घोंसले भी अलग हैं। ऐसे में यह बात बेमानी है कि किसका घोंसला बेहतर है।
योरप में एक बड़ी ही मजेदार धारणा चली आई है। वह यह कि अगर आपके सिर से झड़े बालों को कोई पक्षी ले जाए और उनका उपयोग अपना घोंसला बनाने में करे, तो आपके सिर में तब तक दर्द होता रहेगा, जब तक कि आप उस घोंसले को नष्ट न कर दें। वैसे आम तौर पर पक्षियों के घोंसलों को नुकसान पहुंचाना अच्छा नहीं ही माना जाता। प्राचीन मिस्र में कौए का बड़ा मान था और उससे जुड़ी गतिविधियों के आधार पर भविष्यवाणियां तक की जाती थीं। एक मान्यता यह थी कि अगर कहीं कौए का घोंसला नष्ट हो जाए, तो तीन दिन के भीतर उस जगह के आसपास आगजनी की घटना हो सकती है।
गौरैयाएं हमारे यहां कम होती चली गई हैं मगर पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह धारणा चली आई है कि घर में गौरैया का घोंसला बनाना शुभ होता है। इससे भले ही थोड़ी परेशानी हो, फिर भी गृहस्वामी घोंसला हटाता नहीं। इसी प्रकार पश्चिम में ब्लैकबर्ड को यूं तो अशकुनी माना जाता है लेकिन यदि वह आपके घर में घोंसला बना ले, तो इसे शुभ कहा जाता है। ब्लूबर्ड भी यदि आपके द्वार के पास घोंसला बनाए, तो शुभ माना जाता है लेकिन यदि वह अगले साल फिर उसी स्थान पर घोंसला बनाने न आए, तो यह अशुभ कहा जाता है! ऐसी भी मान्यता है कि घर में अबाबील द्वारा घोंसला बनाया जाए, तो उस घर में रहने वालों को हर काम में सफलता और भरपूर खुशहाली मिलती है।

अनेक देशों में धनेश पक्षी का घर की छत पर घोंसला बनाना शुभ समझा जाता है। खास तौर से स्वीडन में, जहां धनेश को पवित्र माना गया है। कारण यह कि जब ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया था, जब एक धनेश ने जोर-जोर से पुकारकर अपनी पीड़ा व्यक्त की थी। वहीं जर्मनी में कहा जाता है कि यदि आपके क्रिसमस ट्री में घोंसला बना हो, तो आपके परिवार को धन, अच्छे स्वास्थ्य तथा भरपूर खुशियों की प्राप्ति होगी।

Sunday 6 November 2016

प्रेम का मीठा-कड़वा तोहफा

कहते हैं प्रेम की तड़प ने बादाम के पेड़ को जन्म दिया। प्रेम ने ही इस पेड़ को माध्यम बनाकर एक अवसादग्रस्त राजकुमारी का दुख दूर किया। जीवन की ही तरह कुछ मीठे और कुछ कड़वे बादाम कई तरह से हमारे लिए प्रेरक हैं।
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एथेन्स के राजा डेमोफोन को थ्रेस नामक राज्य से गुजरते हुए वहां की राजकुमारी फीलिस से प्रेम हो गया। दोनों ने शादी भी कर ली। मगर राजा का फर्ज उसे पुकार रहा था। उसे युद्ध पर जाना था। वह फीलिस से यह वादा करके गया कि वह शीघ्र ही लौटेगा और फीलिस को अपने साथ अपने देश ले जाएगा। समय बीतता गया, फीलिस बेसब्री से अपने पति का इंतजार करती रही। वह रोज समुद्र तट पर जाकर दूर, क्षितिज की ओर ताकती रहती कि कब डेमोफोन का जहाज आता हुआ दिखे। आखिर उसका सब्र जवाब दे गया। उसे यकीन हो गया कि डेमोफोन ने उसे भुला दिया है और अब वह कभी नहीं लौटेगा। अपने असहनीय दुख से छुटकारा पाने के लिए उसने खुदकुशी कर ली। यह देख देवता इतने द्रवित हो गए कि उन्होंने फीलिस को एक वृक्ष का रूप दे दिया ताकि वह सदा जीती रहे। उधर डेमोफोन आखिरकार लौटा और जब उसे फीलिस की मृत्यु की खबर बताई गई, तो उसका दिल टूट गया। यह पता चलने पर कि फीलिस अब भी एक वृक्ष के रूप में मौजूद है, वह उस वृक्ष के पास गया और उसे आलिंगनबद्ध कर लिया। उसका आलिंगन पाते ही वृक्ष पर फूल खिल उठे। प्रेम, प्रतीक्षा और प्रतिबद्धता का प्रतीक बने उस वृक्ष को आज हम बादाम के पेड़ के रूप में जानते हैं।
अब जिस पेड़ की उत्पत्ति की कहानी ही इतनी रूमानी और चमत्कारिक हो, उसके गुणों और उपयोगों तथा उससे जुड़ी दंतकथाओं का भी दिलचस्प होना लाजिमी है। बादाम का कई संस्कृतियों में विशेष महत्व रहता आया है। यहूदी संस्कृति में इसका खास धार्मिक और पौराणिक महत्व है। कहा जाता है कि यहूदी धर्म के संस्थापक मोजेस (मूसा) के भाई ऐरन अपने हाथ में जो दंड लेकर चलते थे, उसमें चमत्कारिक शक्तियां थीं। यह दंड बादाम के पेड़ की लकड़ी से ही बना था। इसकी एक ओर मीठे और दूसरी ओर कड़वे बादाम उगते थे। यदि लोग ईश्वर के कहे अनुसार चलते, तो दंड पर मीठे बादाम के फल पकते और यदि वे ईश्वर के आदेश का उल्लंघन करते, तो दंड पर कड़वे बादाम उग आते। आज भी यहूदी लोग खास पर्वों पर बादाम की टहनियां लेकर अपने धर्मस्थल सिनेगॉग में जाते हैं। यहूदियों के लिए बादाम के पेड़ का महत्व इसलिए भी है कि इसराइल में साल की पहली-पहली बहार इसी पेड़ पर आती है।
इटली, ग्रीस से लेकर मध्य पूर्व के देशों तक में विवाह समारोहों में मीठे बादाम परोसे जाने का रिवाज चला आया है। बादाम के ऊपर शकर का रंग-बिरंगा आवरण चढ़ाकर ये मीठे बादाम तैयार किए जाते हैं। इसके पीछे भावना यह है कि ताजा बादामों का स्वाद कुछ मीठा और कुछ कड़वा होता है। इस लिहाज से ये जीवन के प्रतीक होते हैं क्योंकि हमारे जीवन में भी तो कुछ मीठा और कुछ कड़वा रहता है। इस मीठे-कड़वे बादाम पर शकर का आवरण चढ़ाकर यह कामना की जाती है कि नवविवाहितों का जीवन कड़वा कम और मीठा अधिक रहेगा। कुछ जगहों पर दूल्हा-दुल्हन को पांच बादाम भेंट किए जाते हैं, जो पांच नेमतों के सूचक होते हैं। ये हैं स्वास्थ्य, धन, प्रसन्नाता, उर्वरता तथा दीर्घायु। कहीं-कहीं शादी में आए मेहमानों को भी इसी प्रकार पांच बादाम भेंट किए जाते हैं।

पुर्तगाल के दक्षिणी इलाके में बादाम के पेड़ प्रचुरता से पाए जाते हैं। यहां इतने पेड़ कैसे आए? इसके पीछे एक बड़ी ही मार्मिक कहानी बताई जाती है। बहुत पहले इस इलाके में इब्न अलमुनसिम नामक राजकुमार हुआ करता था। उसे ठेठ उत्तरी योरप की राजकुमार गिल्डा से प्रेम हो गया। दोनों विवाह बंधन में बंध गए। शुरुआती समय तो अच्छा बीता लेकिन फिर गिल्डा को उसके देश की याद सताने लगी। खास तौर पर वहां के बर्फ से ढंके पेड़ और मैदान देखने के लिए वह तरस गई। घर की याद में वह इस कदर अवसादग्रस्त हो गई, कि बीमार पड़ती चली गई। उसका दुख देखकर इब्न अलमुनसिम भी बेहद दुखी था। वह पत्नी का दुख दूर करने की कोई युक्ति खोजने लगा। एक दिन उसे युक्ति मिल ही गई। उसने आदेश दिया कि राजमहल की दीवारों से लेकर दूर, जहां तक नजर जाए, वहां तक बादाम के हजारों पौधे लगाए जाएं। जब पेड़ उग आए और उन पर बहार आ गई, तो राजकुमार ने राजमहल की सारी खिड़कियां खुलवा दीं और अपनी बीमार पत्नी को ले जाकर बाहर का नजारा दिखाया। सफेद फूलों से आच्छादित पेड़ों का नजारा ठीक ऐसा था मानो दूर-दूर तक चारों ओर बर्फ की चादर ढंकी हो। यह देखकर गिल्डा का दिल खुशी से झूम उठा। देखते ही देखते वह स्वस्थ हो गई। इसके बाद हर साल जाड़े में जब बादाम पर बहार आती, तो अपने मायके-सा 'हिमाच्छादित" दृश्य देखकर गिल्डा खुश हो जाती। उसका सारा दुख जाता रहा और जीवन खुशियों से भर गया।

Sunday 9 October 2016

'स्टेटस' दर्शाते अजूबे!

सड़ा फल जिसे खाया न जाए, जूते जिन्हें पहनकर चला न जाए काले पड़ चुके दांत...। ये सब कभी--कभी नकचढ़े लोगों की शान दर्शाने वाले 'स्टेटस सिंबल' रहे हैं!
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समाज में समानता भले कितनी ही वांछनीय क्यों न हो, असलियत यही है कि हमारा समाज हमेशा से अलग-अलग वर्गों में विभाजित रहा है और आगे भी ऐसा ही रहेगा। श्रेणियों में बंटे इस समाज में अपना 'दर्जा" उन्नात करना लगभग हर व्यक्ति का ध्येय रहता आया है। और जब दर्जा मायने रखता है, तो अपने दर्जे का प्रदर्शन करना भी जरूरी हो जाता है। निम्न से उच्च, उच्च से उच्चतर स्तर पर पहुंचने की मुनादी कर अपनी तरक्की को पहचान दिलाई जाती है। पुराने समकक्षों को अहसास कराया जाता है कि अब हम तुमसे ऊपर उठ गए हैं और नए समकक्षों को बताया जाता है कि अब हम भी तुम्हारी बिरादरी के हैं...। अपने दर्जे के इस प्रदर्शन का जरिया बनते हैं 'स्टेटस सिंबल" या कहें प्रतिष्ठा के प्रतीक।
आज के दौर की बात करें, तो ब्रांडेड कपड़े-जूते, महंगे वाहन, पॉश इलाकों में आलीशान मकान, विदेशों की सैर आदि स्टेटस सिंबल के तौर पर आम हैं। अलग-अलग देश-समाज के अनुसार कुछ अन्य प्रतीक भी रुतबे के प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। मगर जरा अतीत में जाकर झांकें, तो कई ऐसे स्टेटस सिंबल भी उभरकर आते हैं, जो आज हमें अजीबो-गरीब या फिर सरासर हास्यास्पद लग सकते हैं। आप रईस हैं, यह दिखाने का सबसे सीधा-सरल उपाय है कोई ऐसी वस्तु खरीदकर या इस्तेमाल करके बताना, जो गैर-रईसों की पहुंच से बाहर हो। एक समय ऐसा भी था, जब योरप व मध्य-पूर्व में शकर बड़ी ही दुर्लभ वस्तु थी और इसलिए बेतहाशा महंगी भी थी। तब अमूमन राजे-महाराजे ही इसका इस्तेमाल करते थे। इस्तेमाल भी क्या, शाही दावतों में इनका प्रदर्शन ही अधिक किया जाता था। दावत की मेज पर शकर से बने शिल्प मेजबान के रुतबे का खामोश ऐलान करते थे। ऐसा भी नहीं है कि शकर का सिर्फ प्रदर्शन ही किया जाता था। इसका सेवन भी किया जाता था और अधिक शकर खाने से यदि दांत खराब हो जाते, तो ये खराब दांत भी रईसी के सूचक बन जाते। ये दिखाते कि आप दांतों को खराब करने वाली महंगी शकर खाने में सक्षम हैं। हद तो यह है कि जिनके दांत सलामत होते, वे भी स्टेटस सिंबल के तौर पर इन्हें काला कर लेते!
इसी प्रकार गर्म इलाकों मंे उगने वाले अनन्नाास ठंडे योरप मंे जब पहले-पहल पहुंचे, तो खाने की वस्तु के बजाए स्टेटस सिंबल ही बने। दूर देशों से लाए जाने के कारण ये बहुत महंगे होते थे। सो जो इन्हें खरीदते, वे इनके स्वाद का आनंद लेने के बजाए इन्हें शो-पीस की भांति प्रदर्शित करते और मेहमानों पर धाक जमाने का आनंद लेते। अनन्नाास भले ही रखे-रखे सड़ जाता मगर सड़ा अनन्नाास भी रईसी का प्रतीक होता! कहा तो यह भी जाता है कि जो लोग अनन्नाास खरीद नहीं सकते थे, उनके लिए एक-दो दिन के लिए ये किराए पर भी उपलब्ध होते थे!
मध्ययुगीन योरप में लंबी नोक वाले जूतों का चलन चल पड़ा था। इनका उद्देश्य न तो फैशन था और न ही सुविधा। दरअसल ये जूते दिखने में अजीब लगते थे और इन्हें पहनकर चलना-फिरना लगभग संभव था। ये सिर्फ अपनी शान दिखाने के लिए धारण किए जाते थे। ऐसे जूते वही पहन सकता था, जिसे ज्यादा चलना न पड़े, कोई काम न करना पड़े यानी जो पक्के तौर पर रईस हो! इंग्लैंड के सम्राट एडवर्ड तृतीय ने तो फरमान जारी कर यह तक तय कर रखा था कि किस तबके का व्यक्ति अधिकतम कितने लंबे जूते पहन सकता था.. ताकि कोई अपनी 'औकात" से ज्यादा लंबा जूता पहनकर झूठी शान न झाड़ता फिरे! इसी प्रकार पश्चिमी देशों में गोरा रंग भी इस बात का सूचक था कि आपको धूप में काम नहीं करना पड़ता, यानी आपका दर्जा ऊंचा है। जो जितना गोरा (या गोरी), वह उतना हाई-क्लास। मगर धारणाओं का पेंडुलम एक सिरे तक जा पहुंचे, तो पलटकर दूसरे सिरे पर भी जाता ही है। बीसवीं सदी की शुरुआत में प्रख्यात फ्रैंच फैशन डिजाइनर गेब्रिएल उर्फ कोको शनैल ने 'टैन्ड" या धूप से तप्त त्वचा का फैशन ला दिया। देखते ही देखते अमीर गोरे लोगों में अपनी चमड़ी कुछ सांवली-सी बनाने की होड़ लग गई। यह भी एक प्रकार का स्टेटस सिंबल बन गया क्योंकि यह दर्शाता था कि आप इतने अमीर और फुरसती हैं कि दूर गरम देशों में छुट्टियां मनाने जा सकते हैं!

एक समय किसी चित्रकार से अपना पोर्ट्रेट बनवाना प्रतिष्ठा का प्रतीक था मगर आपको यह जानकर हैरानी होगी कि जब एक्सरे की खोज की गई, तो शुरुआती दौर में अमेरिकियों के बीच अपना एक्सरे निकलवाना भी एक स्टेटस सिंबल बन गया था! हड्डियों का फोटो खींचने वाली यह मशीन एक अजूबा थी और लोग इसे लेकर रोमांचित थे। संपन्ना लोग केवल अपने शौक की खातिर अपना एक्सरे निकलवाते थे और घर पर इसे प्रदर्शित करते। यहां तक कि अपने मित्रों, परिचितों को एक्सरे दर्शन कराने के लिए खास पार्टियों का आयोजन किया जाता। कुछ अति-संपन्ना लोगों ने तो अपने शौक की पूर्ति के लिए एक्सरे मशीनें ही खरीद डाली थीं। आखिर जब यह बात सामने आई, कि एक्सरे के अधिक संपर्क में आने से स्वास्थ्य को नुकसान भी हो सकता है, तब जाकर स्टेटस-प्रिय रईसों का यह शौक ठंडा पड़ा...। 

Sunday 25 September 2016

चेहरे पर अध्यात्म के रंग

चेहरे से हमारी पहचान होती है और इस पर रंग पोतकर या चित्र उकेरकर हम एक तरह से अपनी पहचान बदल लेते हैं या कह लें कि एक नई पहचान प्राप्त कर लेते हैं। अलग-अलग कारणों से यह चित्रकारी करने की परंपरा अनेक देशों में रहती आई है और आज भी कायम है।
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अति प्राचीन गुफाओं की दीवारों पर उकेरी गई चित्रकारी इस बात की गवाह है कि इंसान में रंगों व रेखाओं से सृजनात्मक अभिव्यक्ति की ललक जन्मजात रही है। मगर यह अभिव्यक्ति शायद दीवारों से भी पहले खुद इंसान के शरीर पर प्रकट हुई, खास तौर से चेहरे पर। अधिकांश पुरातन संस्कृतियों में चेहरे पर चित्रकारी की परंपरा के प्रमाण मिलते हैं और आज भी अनेक आदिवासी समुदायों में यह परंपरा कायम है। कई शास्त्रीय अथवा लोक नृत्यों का भी यह अनिवार्य अंग है, जैसे कि दक्षिण भारत का कथकअली। ऐसा भी नहीं है कि यह केवल कलात्मक अभिरुचि का मामला हो। इस परंपरा के पीछे कई अन्य कारण भी रहे हैं, कभी धार्मिक, कभी रणनीतिक, तो कभी कुछ और। मसलन, शिकार करने के दौरान खुद को झाड़ियों में छुपाने के लिए चेहरे की यह चित्रकारी बड़े काम आती थी। इसी तरह जंगलों में होने वाले आदिकालीन युद्धों में यह छद्मावरण के रूप में कारगर थी। किसी खास तरह की चित्रकारी 'वर्दी" का काम भी करती थी, यानी व्यक्ति के सैनिक होने की पहचान उसके चेहरे पर अंकित रंगों व रेखाओं से होती थी। साथ ही, खुद पर डरावनी आकृतियां पोतकर वह दुश्मन को आक्रांत करने की मंशा भी रखता था। आज हमारे आधुनिक, शहरी मन को भले ही यह प्रयास भोला, बचकाना या हास्यास्पद लगे मगर इसके पीछे के मनोवैज्ञानिक पक्ष को खारिज नहीं किया जा सकता।
चेहरे से हमारी पहचान होती है और इस पर रंग पोतकर या चित्र उकेरकर हम एक तरह से अपनी पहचान बदल लेते हैं या कह लें कि एक नई पहचान प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार यह चित्रकारी एक आध्यात्मिक आयाम भी ले लेती है। दक्षिण अमेरिका में अमेजन के जंगलों के आदिवासी तो मानते हैं कि अपनी पहचान बदल लेने की यह शक्ति ही हमें पशुओं से अलग करती है!
अफ्रीका की अनेक जनजातियों में आज भी चेहरे व शरीर पर की जाने वाली चित्रकारी एक खास महत्व रखती है। स्त्रियों व पुरुषों के चेहरे अलग-अलग तरह से रंगे जाते हैं। कम उम्र के लड़कों के चेहरे पर अलग चित्रकारी की जाती है और वयस्क पुरुषों के चेहरे पर अलग। वृद्धों की चित्रकारी और अलग होती है। यह चित्रकारी सामाजिक दर्जा भी दर्शाती है। कई जगहों पर इस चित्रकारी से ही कुनबों-कबीलों की पहचान होती है। सूदान के एक समुदाय में तो इस कलाकारी में प्रयुक्त रंगों को लेकर सख्त नियम होते हैं। 'अनाधिकृत" रूप से कोई रंग अपने चेहरे पर पोतने पर आपको सजा भी दी जा सकती है। मसलन, काला रंग लगाने की अनुमति किशोरावस्था पार करने के बाद ही मिलती है। वहीं दक्षिण अफ्रीका के एक समुदाय में आध्यात्मिक गुरु अपना चेहरा सफेद पोतते हैं।
चेहरे पर पोते जाने वाले रंगों की भी अपनी-अपनी व्याख्या होती है। लाल रंग कहीं उत्सव और खुशी का प्रतीक है, तो कहीं क्रोध व युद्ध का। कहीं शोक व्यक्त करने के लिए चेहरे पर काला रंग लगाया जाता था, तो कहीं युद्ध में विजय के सूचक के रूप में। कुछ अमेरिकी आदिवासियों में योद्धा के चेहरे पर पोता गया पीला रंग यह दर्शाता था कि वह आर-पार की लड़ाई के लिए, यानी अपने प्राण न्योछावर करने के लिए तैयार है। कई समुदायों में यह विश्वास आम रहा है कि आंखों के ठीक नीचे हरा रंग लगाने से रात में अच्छा नजर आता है।

मेक्सिको में प्रति वर्ष मनाए जाने वाले दिवंगत आत्माओं के उत्सव में इस प्रकार की चित्रकारी का खास महत्व है। पहले इस उत्सव पर दिवंगत आत्माओं के सम्मान में खोपड़ियां प्रस्तुत करने का रिवाज हुआ करता था। ये खोपड़ियां मृत्यु और पुनर्जन्म की प्रतीक थीं। अब असल खोपड़ियों के स्थान पर प्रतीकात्मक खोपड़ियों से काम चलाया जाता है। कभी शकर से 'खोपड़ी" बनाई जाती है, कभी चेहरे पर खोपड़ी का मुखौटा लगा लिया जाता है या फिर चेहरे पर ही खोपड़ी की आकृति उकेर दी जाती है। लोग मानते हैं कि चेहरे पर इस तरह 'खोपड़ी" चित्रित करने से मृत्यु का भय जाता रहता है। साथ ही, आत्माओं को प्रिय माने जाने वाले गेंदे व अन्य फूलों की आकृति भी चेहरे पर बनाई जाती है। इस प्रकार लोग अपने दिवंगत पूर्वजों के करीब महसूस करते हैं। चेहरे की यह चित्रकारी एक तरह से उनकी व उनके पूर्वजों की पहचान को एकाकार कर देती है। 

Sunday 4 September 2016

क्या आप गरम दलिए में चहलकदमी करते हैं?

सदियों के ज्ञान का निचोड़ प्रस्तुत कर कोई बुद्धिमत्तापूर्ण बात बताने वाले विश्व भर के मुहावरे और लोकोक्तियां कई बार अपने अटपटेपन से गुदगुदाते भी हैं।
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लोकोक्तियों और मुहावरों में मानव मनोविज्ञान झलकता है, इंसानी तजुर्बों का निचोड़ सामने आता है, थोड़ा व्यंग्य व्यापता है और साथ ही सामने खड़ा होता है विभिन्ना संस्कृतियों का आईना। देशों, समाजों का रहन-सहन, आदतें, मूल्य और साथ ही उनका विनोदी पक्ष इन लोकोक्तियों व मुहावरों में अपना रंग दिखाता है। मगर बुद्धिमत्तापूर्ण बात कहने के साथ-साथ कई बार ये अपने अटपटेपन से गुदगुदाते भी हैं।
अब देखिए ना, लोग कपड़ों पर इस्तरी करते हैं, कभी-कभी इस्तरी का इस्तेमाल हथियार के रूप में करते हुए इसे किसी के सिर पर मार भी सकते हैं लेकिन यदि कोई कहे कि 'मेरे सिर पर इस्तरी मत करो" तो? बात आपको अटपटी लगेगी न? भला सिर पर इस्तरी कौन चलाता है! मगर आर्मेनिया में जब किसी को बहुत परेशान किया जा रहा हो, तो वह अपने सामने वाले से यही कहेगा कि मेरे सिर पर इस्तरी मत करो। चलिए अब बताइए, कोई आपको कद्दू दे, तो आप क्या करेंगे? सबसे पहले तो लंबा-चौड़ा, भारी-भरकम कद्दू उठाकर ले जाने की चिंता करेंगे। मगर यदि कोई आपको कद्दू दे और आपके हाथ कुछ न लगे तो...? स्पेन में जब कोई आपको ठुकरा दे या वादा करके मिलने न आए, तो कहा जाता है कि उसने आपको कद्दू दे दिया। उधर जर्मनी में यदि कोई कहे कि तुम्हारी आंखों पर टमाटर लगे हैं, तो वास्तव में वह आपको उलाहना दे रहा है कि आपको वह नहीं दिख रहा जिसे सब देख पा रहे हैं। यह 'तुम्हारी आंखों पर पट्टी बंधी है" कहने का ही जरा और मजेदार तरीका है।
अलग-अलग देशों के कुछ मुहावरों में कभी-कभी समानता भी नजर आती है और उनका अर्थ भी लगभग वही होता है। मसलन, हम कहते हैं, 'गई भैंस पानी में"। वहीं पुर्तगाल में कहा जाता है, 'गई गाय दलदल में"। इसी प्रकार हम कहते हैं, 'तिल का ताड़ बनाना", वहीं एस्टोनिया में कहते हैं, 'मच्छर का हाथी बना देना!" हम कहते हैं, 'आग लगने पर कुआं खोदना", तो जापानी कहते हैं, 'चोर पकड़कर रस्सी बनाने बैठना।" हम कहते हैं, 'गधे गुलाब जामुन खा रहे हैं", वहीं पोलैंड में कहा जाता है, 'गधे को केक मत खिलाओ।" है न मजेदार समानता?
अक्सर देशों, समाजों और समुदायों के पूर्वाग्रह उनके मुहावरों-लोकोक्तियों में प्रकट हो जाते हैं। अल्बेनिया वासियों की ग्रीस वासियों से पुरानी अदावत इस सलाहनुमा अल्बेनियाई लोकोक्ति में सामने आ जाती है कि 'किसी ग्रीक से हाथ मिलाने के बाद अपनी उंगलियां गिन लिया करो!" सर्बिया में जब कोई कहता है कि 'अंगरेज होने का ढोंग मत करो", तो वास्तव में वह यह कह रहा है कि 'ज्यादा भोले/ अनजान मत बनो!" रूस की जनता पोलैंड के लोगों के बारे में क्या सोचती है, यह इस रूसी लोकोक्ति में नजर आता है: 'एक रूसी बाल पोलैंड के आधे आदमी से ज्यादा वजनदार होता है!" कहिए, हुई न बड़बोलेपन की पराकाष्ठा?
कुछ मुहावरे सुनकर तो उनका आविष्कार करने वालों की कल्पनाशक्ति की दाद देने को मन करता है। जरा चेक गणराज्य के इस मुहावरे पर गौर कीजिए: 'गरम दलिए में चलहकदमी करना"। अब भला कोई दलिए में, वह भी गरम दलिए में चहलकदमी क्यों करेगा? चलहकदमी करने के लिए और कोई जगह नहीं मिली क्या? दरअसल किसी बात को घुमा-फिराकर कहने को गरम दलिए में चहलकदमी करना कहते हैं! उधर फ्रांस में बेहद महत्वाकांक्षी व्यक्ति के लिए कहा जाता है, 'वह तो अपने दांतों से फर्श खरोंचना चाहता है!"
किसी मामूली नुक्स को ठीक करने की सनक में बड़ा नुकसान कर बैठने के लिए जापान में कहा जाता है, 'सींग सीधे करके बैल की जान ले लेना"। कुछ ऐसी ही सलाह चीन में भी दी जाती है: 'दोस्त के माथे से मक्खी उड़ाने के लिए कुल्हाड़ी मत इस्तेमाल करो!" यानी नेकी करने के उत्साह में कहीं बदी न कर बैठो। इसी प्रकार छोटे-से काम के लिए बड़ा तामझाम करने पर थाइलैंड में कहते हैं, 'हाथी पर बैठकर टिड्डी का शिकार करना"

अगर आप किसी रूसी से पूछें कि कहां जा रहे हो और वह कहे, 'वहां, जहां ज़ार पैदल जाते हैं", तो आप जरूर चकरा जाएंगे। इसे यूं समझिए कि राजशाही के जमाने में रूसी सम्राट, जिसे ज़ार कहा जाता था, के खूब ठाठ थे, जैसे कि अधिकांश सम्राटों के हुआ करते थे। आम मान्यता थी कि उन्हें कहीं भी पैदल चलकर नहीं जाना पड़ता, हर जगह जाने के लिए शाही बग्घी मौजूद होती है। बस, एक जगह थी जहां ज़ार महोदय बग्घी से नहीं, पैदल चलकर जाते थे और वह था शौचालय। ... अब तो आप समझ गए ना, कि रूसी जब कहता है कि वह वहां जा रहा है जहां ज़ार पैदल जाते हैं, तो वह कहां जा रहा है...? 

Sunday 28 August 2016

कान कटवाकर सींग गंवाने वाला ऊंट!

क्या ऊंट कभी लंबे कानों और बड़े सींगों को धारण करता था? रेगिस्तान के जहाज पर ऐसे कई-कई किस्से सवार होते आए हैं। मगर इस प्राणी के साथ इंसान के संबंध का एक पहलू अभी-अभी सामने आया है...
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छोटी-बड़ी बीमारियों की फेहरिस्त में यदि सबसे 'मामूली" बीमारी को चिह्नित करने को कहा जाए, तो शायद हम सभी जुकाम का नाम लेंगे। आखिर जुकाम से ज्यादा मामूली क्या हो सकता है? मगर हाल ही में वैज्ञानिकों ने मनुष्यों में जुकाम की उत्पत्ति का जो कारण बताया है, उसे आप शायद ही मामूली मानेंगे। कहा जा रहा है कि जुकाम के लिए जिम्मेदार एक वायरस ऊंटों से मनुष्यों में आया। यानी जुकाम ऊंट की इंसान को देन है! हां, यह जरूर आश्चर्य की बात है कि ऊंट को लेकर न जाने कितने विश्वास, मान्यताएं और दंतकथाएं गढ़ने वाले इंसान को इस प्राणी के साथ अपने रिश्ते के इस पहलू के बारे में अब जाकर पता चला...
माना जाता है कि दुनिया के पहले-पहले ऊंट आज से 4-5 करोड़ साल पहले उत्तरी अमेरिका में हुए थे और तब उनका आकार खरगोश के बराबर हुआ करता था! बाद में इनके विभिन्ना वंशज विश्व के कई इलाकों में फैले। सूखे इलाकों में ये मनुष्य के लिए उपयोगी सिद्ध हुए, सो इन्हें पाला गया, उपयोग में लाया गया। जरूरत से उपजे इस सान्निाध्य ने कल्पनाओं को पंख दिए और मनुष्य ने ऊंट को लेकर ढेरों किस्से व कल्पनाएं गढ़ डालीं। ऊंट की शारीरिक विशेषताओं में उसका कूबड़ प्रमुख है। लंबे समय तक यह धारणा रही कि ऊंट अपने कूबड़ में पानी का भंडार रखते हैं और इसी कारण वे रेगिस्तान में कई-कई दिन तक बिना पानी के भी रह लेते हैं। मगर सच यह है कि इस कूबड़ में पानी नहीं, वसा को जमा किया जाता है, जो भोजन के अभाव में उसके शरीर को ऊर्जा प्रदान करती है।
ईसप की एक कथा के अनुसार तो पहले-पहल ऊंट के लंबे-लंबे कान भी हुआ करते थे मगर वह इतने से संतुष्ट नहीं था। उसे सांड की तरह सींग चाहिए थे। वह सींग मांगने के लिए देवराज ज़्युस के पास गया। ज़्युस ने उसे समझाया कि तुम्हें मैंने इतने खूबसूरत, लंबे कान तो दिए हैं, तुम इनसे खुश क्यों नहीं हो? मगर ऊंट तो बस सींग की जिद पर ही अड़ा रहा। नाराज ज़्युस ने उसे सींग तो नहीं ही दिए, उसके कान भी काटकर छोटे कर दिए!
इसके विपरीत, मंगोलिया की एक लोककथा में कहा गया है कि एक समय ऊंट के सिर पर वैसे ही सींग हुआ करते थे, जैसे कि आज रेनडियर के सिर पर पाए जाते हैं। एक दिन जब वह चर रहा था, तो एक रेनडियर उसके पास आया और बोला, 'क्या तुम मुझे अपने सींग एक दिन के लिए उधार दे सकते हो? आज सिंह और बाघिन की शादी है, मैं ये सुंदर सींग लगाकर शादी में जाऊंगा। कल यहीं आकर मैं इन्हें लौटा जाऊंगा।" नादान ऊंट उसकी बातों में आ गया और अपने सींग उसे दे बैठा। जाहिर है, रेनडियर उसके सींग लौटाने कभी नहीं आया और ऊंट उसकी राह ही ताकता रह गया।

जहां ऊंट संबंधी ये लोककथाएं सदियों से चली आई हैं, वहीं एक भुतहा ऊंट का किस्सा उन्नाीसवीं सदी के अमेरिका में काफी प्रचलित हुआ था। दरअसल अमेरिकी सेना में माल ढोने के लिए ऊंट लाए गए थे लेकिन वे अपेक्षा के अनुसार उपयोगी सिद्ध नहीं हुए। आखिरकार सेना ने इनमें से कुछ को नीलाम कर दिया और बाकी ऊंटों को एरिजोना के रेगिस्तान में छोड़ दिया गया। इसके बाद कई वर्षों तक लोग वहां के रेगिस्तान में ऊंट देखने के दावे करते रहे। इन्हीं में शामिल था 'लाल भूत" के नाम से कुख्यात हुआ ऊंट। लोगों पर किसी अज्ञात, विशाल पशु के हमले होने लगे और घटनास्थल पर ऊंट के पैरों के निशान व लाल बाल पाए गए। फिर कुछ लोगों ने कहा कि उन्होंने इस हमलावर ऊंट को देखा है और उसकी पीठ पर कोई सवार भी है, हालांकि लगता नहीं कि सवार जीवित है! एक दिन कुछ लोगों ने इसी ऊंट की पीठ से कुछ गिरते हुए देखा। ऊंट तो चला गया लेकिन जब उन लोगों ने उस स्थान पर जाकर देखा तो पाया कि उसकी पीठ से जो चीज गिरी थी, वह एक मानव खोपड़ी थी! इसके बाद कोई एक दशक तक सिरकटी लाश लिए यह ऊंट लोगों को आतंकित करता रहा। आखिरकार एक दिन एक किसान ने अपने खेत में घुस आए इस 'लाल भूत" को मार डाला। तब उसकी पीठ से सिरकटी लाश गायब हो चुकी थी लेकिन वे फीते मौजूद थे, जिनसे लाश को उसकी पीठ पर बांधा गया था। यह कभी ज्ञात नहीं हो सका कि आखिर वह किसकी लाश थी और किसने व क्यों उसे उस विशाल लाल ऊंट की पीठ पर बांध दिया था। वैसे इसके बाद भी काफी समय तक एरिजोना के रेगिस्तान से गुजरने वाले कुछ लोग दावे करते रहे कि उन्होंने सिरकटी लाश ढोता एक विशाल लाल ऊंट देखा है...!