Sunday 23 April 2017

अजब शोध के गजब विषय!

यह जरूरी नहीं कि वैज्ञानिक शोध किसी ऐसे विषय पर ही हो, जो इंसान की जिंदगी बदल दे। दुनिया भर के विद्वान ऐसे विषयों पर भी शोध करते आए हैं, जिनके बारे में सुनकर यह सवाल उठता है कि यह कवायद आखिर की ही क्यों गई!
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इंसानी दिमाग यदि खोजी प्रवृत्ति का न होता, तो आज शायद हम अन्य प्राणियों से बहुत भिन्ना न होते। अपने मन में उठती जिज्ञासाओं और इन्हें शांत करने के उपक्रमों ने ही मनुष्य को सारी प्रजातियों में उन्नात बनाया। आग जलाने और पहिया बनाने से लेकर डिजिटल व नैनो टेक्नोलॉजी के हैरतअंगेज कारनामों तक का सफर उसने खुद से सवाल करने और फिर उनका समाधान खोजने के माध्यम से ही तय किया है। मगर कई बार ये सवाल खुद ही सवालों के घेरे में आ जाते हैं। दुनिया के विभिन्ना हिस्सों में निरंतर चल रहे शोध-अनुसंधानों के विषयों पर गौर करें, तो कई बार बड़े ही बेतुके-से विषय भी मिल जाते हैं। तब यह सोचकर हैरानी होती है कि अच्छे-खासे धन, समय व ऊर्जा को खपाकर आखिर ऐसे विषयों पर शोध की ही क्यों जाती है और इससे क्या हासिल होता है!
अभी कुछ ही दिन पहले कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में इस बात पर शोध की गई कि अच्छी तरह बांधा गया जूते का फीता भी अचानक खुल क्यों जाता है? इसके लिए शोधकर्ताओं ने बाकायदा ट्रेडमिल पर दौड़ते शख्स के जूतों का स्लो मोशन वीडियो बनाया और देखा कि फीता कब व कैसे खुलने लगता है। निष्कर्ष यह निकाला गया कि दरअसल हम जिस तरह से जूते का फीता बांधते आए हैं, वही गलत है! अब बताइए, जब संसार में भांति-भांति की समस्याएं हैं, अभाव हैं जिन्हें दूर करने की दरकार है, तब शोध के लिए यह विषय कितना प्रासंगिक कहा जा सकता है? हां, लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं पर शोधकर्ताओं का भी पूरा हक है और उन्हें यह तय करने का अधिकार होना ही चाहिए कि वे किस विषय पर शोध करें। मगर कई बार शोध के विषय इस पूरी कवायद की गंभीरता पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं।
फीता खुलने के रहस्य पर शोध तो एक ताजा उदाहरण मात्र है। दुनिया के अलग-अलग भागों में होती रही 'शोध" गतिविधियों पर गौर करें, तो ऐसे अनेक बेतुके विषय मिल जाएंगे जिन पर खोजबीन की गई और बाकायदा रिसर्च पेपर लिखे गए। मसलन, ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी के डॉ लेन फिशर ने विस्तृत अध्ययन कर यह जानने का प्रयास किया कि चाय या दूध में बिस्किट डुबोने की सबसे सटीक तकनीक कौन-सी है, जिससे बिस्किट टूटे नहीं। उधर इलिनोआ स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने यह जानने की कोशिश की कि क्या एक पौंड सीसा और एक पौंड पंखों का वजन एक-समान महसूस होता है? 23 लोगों की आंखों पर पट्टी बांधकर उनसे एक जैसे आकार के बक्से उठवाए गए और पूछा गया कि कौन-सा बक्सा भारी है। अधिकांश लोगों ने उन बक्सों को ज्यादा भारी बताया, जिनमें सीसा रखा था, हालांकि वजन सभी बक्सों का एक समान था।
दुनिया के सबसे शांतिप्रिय देशों में से एक के रूप में विख्यात स्विट्जरलैंड की बर्न यूनिवर्सिटी में 2009 में एक बड़े ही हिंसक विषय पर अनुसंधान किया गया। अनुसंधानकर्ताओं के सामने सवाल यह था कि किसी के सिर पर बियर की खाली बोतल मारने से उसकी खोपड़ी फूटने की अधिक संभावना होती है या फिर भरी बोतल मारने से...? यह पाया गया कि भरी हुई बोतल 70 प्रतिशत अधिक ताकत से सिर से टकराएगी लेकिन खोपड़ी फोड़ने के लिए खाली बोतल भी पर्याप्त है! जापान के एक विश्वविद्यालय के शोधकताओं ने यह जानने की कोशिश की कि क्या कबूतर दो अलग-अलग चित्रकारों के बनाए चित्रों में फर्क कर पाते हैं? निष्कर्ष निकला 'हां"। उधर स्वीडन में किए गए अनुसंधान में यह बताया गया कि मुर्गे-मुर्गियां 'सुंदर" दिखने वाले मनुष्यों को ज्यादा पसंद करते हैं! वहीं केंब्रिज के एक संस्थान ने अध्ययन करके यह नतीजा निकाला कि भेड़ें एक-दूसरे के चेहरे पहचान सकती हैं। इसी तरह अमेरिकी शोधकर्ताओं ने यह जानने की कोशिश की कि चूहे क्लासिकल म्यूजिक पसंद करते हैं या जैज़?

इन तमाम अनुसंधानों के बीच क्यों न एक शोध यह जानने के लिए भी की जाए कि आखिर क्यों मनुष्य ऐसे बेतुके विषयों पर शोध करने को प्रेरित होता है...? 

Sunday 9 April 2017

सबसे बड़ा आलसी कौन?

आलसियों की जमात खीझ भी उत्पन्न करती है और उपहास का विषय भी बनती है। कथा साहित्य में अक्सर आलसियों का जिक्र हंसी के पात्र के रूप में ही किया जाता है।
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क्या आलसीपन छूत का रोग है? पिछले दिनों फ्रांस में किए गए एक शोध का यही निष्कर्ष निकला कि यदि आप आलसी लोगों से घिरे हैं, तो चाहे-अनचाहे आप भी आलसीपन की गिरफ्त में आ जाएंगे! यानी संगत का असर आलसीपन के मामले में तो स्पष्ट रूप से सामने आता है। यह बहस का विषय हो सकता है कि यह निष्कर्ष किस हद तक सही है मगर दिलचस्प बात यह है कि जहां समय-समय पर आलसीपन के 'दौरे" हम सभी को पड़ते हैं, वहीं कुछ लोग इसे स्थायी भाव के रूप में लिए रहते हैं। यानी उनके मामले में दोष किसी संगत को देना मुश्किल है।
आलसियों की जमात खीझ भी उत्पन्न करती है और उपहास का विषय भी बनती है। कथा साहित्य में अक्सर आलसियों का जिक्र हंसी के पात्र के रूप में ही किया जाता है। कभी अंत में उन्हें सबक मिल जाता है और कभी नहीं भी मिलता। फिलिपीन्स में 'आलसी जॉन" नामक पात्र से जुड़ी लोक कथाओं की समूची श्र्ाृंखला ही चली आई है, जोकि बेहद लोकप्रिय है। कभी उसे बालक के रूप में चित्रित किया जाता है और कभी युवा के रूप में मगर उम्र कोई भी हो, आलसीपन ही उसके चरित्र को परिभाषित करता है। वह इस कदर आलसी है कि अमरूद से लदे पेड़ पर से पके फल तोड़ने के बजाए उसके नीचे अपना मुंह खोलकर लेट जाता है और इंतजार करता है कि कोई फल पेड़ पर से सीधे उसके मुंह में आ गिरे!
जाहिर है, इस तरह की लोक कथाओं में आलसीपन के किस्से अतिरंजित करके सुनाए जाते हैं और यही इन्हें दिलचस्प भी बनाता है। एक जर्मन लोक कथा में एक राजा असमंजस में है कि अपने तीन बेटों में से किसे वह अपना उत्तराधिकारी बनाए। वह तय करता है कि तीनों में जो सबसे ज्यादा गुणी होगा, वही होगा उत्तराधिकारी। दिक्कत यह है कि तीनों ही राजकुमारों में केवल एक 'गुण" है और वह है उनका आलसीपन। सो राजा उन तीनों को बुलाकर कहता है कि तुममें से जो सबसे ज्यादा आलसी होगा, वही मेरे बाद राजा बनेगा। अब तीनों बेटों में स्वयं को दूसरों से ज्यादा आलसी बताने की होड़ लग जाती है। पहला बेटा कहता है, 'जब मैं सोने जाता हूं, तो अपनी आंखें तक बंद करने की मेहनत नहीं करता।" दूसरा बेटा कहता है, 'जब मैं आग तापने बैठता हूं और आग मेरे पैर को झुलसाने लगती है, तो मैं पैर पीछे करने का भी उपक्रम नहीं करता।" तभी तीसरा राजकुमार कह उठता है, 'पिताजी, मैं तो इतना आलसी हूं कि यदि मुझे फांसी पर लटकाया जा रहा हो और कोई मेरे हाथ में चाकू थमा दे जिससे मैं रस्सी काट दूं, तो भी मैं रस्सी काटने की जेहमत उठाने के बजाए फांसी पर लटक जाऊंगा...!" राजा साहब इस तीसरे बेटे को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर देते हैं।

अमेरिकी आदिवासी समुदाय के बीच सात आलसी लड़कों की एक कहानी प्रसिद्ध है, जो न अपनी मां का कहना मानते हैं और न ही किसी काम में उसकी मदद करते हैं। मां उन्हें डांटती रहती है, तो एक दिन सातों ईश्वर से प्रार्थना करने लगते हैं कि उन्हें घर से इतनी दूर ले जाया जाए कि न मां उन्हें परेशान कर पाए और न वे मां को। वे घर की परिक्रमा करते हुए प्रार्थना करते जाते हैं कि अचानक कोई अदृश्य ताकत उन्हें आसमान की ओर उठाने लगती है। सातों ऊपर उठते जाते हैं, तभी मां बाहर आकर उन्हें रोकने की कोशिश करती है। एक बेटा मां की पकड़ में आ जाता है, जबकि शेष छह आसमान में पहुंच जाते हैं और तारे बन जाते हैं। इन छह के तारामंडल को ही प्लीयडीज या कृतिका तारामंडल कहा जाता है।