Monday 22 August 2011

शऽऽऽ उड़ना सीख रहे हैं श्री व श्रीमती बुलबुल के राजदुलारे!


कुछ दिनों से बुलबुल के एक जोड़े का कुछ ज्यादा ही आना-जाना लगा हुआ था। फिर एक दिन पड़ोस के आँगन में लगे पेड़ पर घोंसला नजर आया तो इस हलचल का राज फाश हुआ। श्री श्रीमती बुलबुल नए जीव संसार में लाने को अग्रसर थे और जिम्मेदार ग्रहस्थों की भाँति वे तमाम तैयारियों में जुटे हुए थे।
फिर एक दिन घोंसले में से चीं-चीं की नाजुक आवाजें आने लगीं। नन्हे मेहमान पधार चुके थे और मानो अपने आगमन का ऐलान करने में कोई कोताही नहीं बरतना चाहते थे। अब नव-अभिभावकों के ऊपर नई किस्म की जिम्मेदारियाँ थीं। नन्हों के लिए दाना-पानी की व्यवस्था करना और उनकी हिफाजत में हरदम मुस्तैद रहना ही मानो अब उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था। चीं-चीं की आवाजें दिन--दिन तेज होती गईं। बच्चों का लालन-पालन अच्छे-से हो रहा था, वे बड़े हो रहे थे।
... और फिर आया रविवार का वह दिन। पता नहीं मम्मी और पापा बुलबुल ने कोई कैलेंडर देखकर नन्हों को उड़ान के गुर सिखाने के लिए खास तौर पर वह दिन मुकर्रर किया था या फिर अपने राम को उसी दिन यह नजारा देख पाने की फुर्सत मिली थी। सुबह-सुबह बुलबुल जोड़े को बेहद नीची उड़ानें उड़ते देख कुछ अजीब लगा। किसी इंसान की मौजूदगी उन्हें सख्त नागवार गुजर रही है, यह उनके तीखे सुर से साफ समझ में रहा था। तभी नजर पड़ी गमले के किनारे पर बैठ नई-नई आँखों से नई-नई दुनिया को निहराते नन्हे पर। अब माजरा समझ में आया! जनाब उड़ना सीख रहे थे और कुछ थकान होने पर आराम फरमा रहे थे। उधर गृह-निर्माता, भोजन प्रदाता के बाद उड़ान प्रशिक्षक की नई भूमिका निभाते पापा-मम्मी बुलबुल अंगरक्षक वाली भूमिका को एक क्षण के लिए भी नहीं भूले थे। नन्हा थोड़ा दम ले, तब तक वे उसके इर्द-गिर्द ही मंडरा रहे थे और बार-बार घोषणा कर रहे थे कि खबरदार, आज यह इलाका तुम इंसानों के लिए प्रतिबंधित है, यहाँ हमारे राजदुलारे उड़ना सीख रहे हैं! उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए यह जरूरी था कि उन्हें डिस्टर्ब किया जाए, सो ऐसा ही किया। इतवार की खास व्यस्तताओं ने भी इसमें मदद की।
दिन चढ़ता गया। सुबह अपना चार्ज दोपहर को सौंप बोरिया-बिस्तर बाँधने की तैयारी में थी। सब्जी वाले की पुकार सुन साइड वाले दरवाजे से बाहर कदम रखा ही था कि डाँट सुननी पड़ गई:'अरे! कहा था ना, कि यह प्रतिबंधित क्षेत्र है! अगले दरवाजे से बाहर नहीं निकल सकते थे!" थोड़ा खीजकर उस ओर देखा, तो एक नया दृश्य उपस्थित हुआ। पड़ोस के झूले के नीचे छाँव पाकर एक और नन्हा बैठा था... पहले वाले से भी छोटा और शायद कमजोर भी। आसपास देखा, पहला वाला नजर नहीं आया। शायद अपना पाठ पूरा करके दोपहर की झपकी लेने वापस घर पहुँच चुका था। अब मम्मी-पापा का सारा ध्यान इस नन्हे पर केंद्रित था। उसकी रक्षा को लेकर चिंता उनके हाव-भाव में स्पष्ट झलक रही थी। शारीरिक कमजोरी के आगे शायद नन्हे का मनोबल भी घुटने टेक चुका था। बहुत देर तक वह वहीं झूले के नीचे बैठा रहा, मानो उड़ने की सारी उम्मीद छोड़ चुका हो। उधर मम्मी-पापा बारी-बारी से इंसानी घुसपैठियों को दूर रहने के लिए आगाह करते और नन्हे को प्रेरित करते कि बेटा थोड़ी कोशिश करो, हम हैं ना...! नन्हेराम बस, झूले के नीचे ही थोड़ा इधर-उधर फुदक रहे थे। अब लग रहा था कि वे कमजोरी और डर ही नहीं, आलस के आगे भी मजबूर थे। ये नन्हेराम शायद आगे चलकर आलसीराम भी निकलेंगे।
दोपहर को बुद्धू बक्से का सम्मोहन अचानक टूटा, जब बाहर से आपात संदेश देती-सी चीखें सुनाई दीं। बरामदे पर जाकर देखा कि एक मुस्तंडी बिल्ली झपट्टा मारने से ठीक पहले वाली मुद्रा में पड़ोसी की कार के नीचे एकटक निहार रही थी। समझते देर नहीं लगी कि नन्हे महाराज फुदकते-फुदकते झूले के नीचे से सरककर कार की ज्यादा घनी छाँव में बिराजे हैं। लगा कि अब तो इनकी शामत आई। मानवतावादी हस्तक्षेप से भी बिल्ली मौसी को कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा, उनकी आक्रामक मुद्रा अमूमन बरकरार ही रही। लेकिन यह क्या! इस आततायी से आर-पार की लड़ाई के लिए केवल मम्मी और पापा बुलबुल ही तैयार नहीं थे, उनकी पुकार सुन पास-पड़ोस में जाने कहाँ-कहाँ से कुछ और बुलबुल जोड़े भी मोर्चे पर पहुँचे थे। वे बारी-बारी से बिल्ली पर झपट्टा मारने की मुद्रा में गोता लगाते और फिर ऊपर की ओर उड़ जाते। बिल्ली कुछ देर तो डटी रही, फिर लगातार हो रहे चौतरफा आक्रमण और कान-फोड़ू चीख-पुकार के आगे उसका संकल्प कुछ कमजोर पड़ा। वह अनमनी-सी एक ओर चलने को हुई। अपनी संभावित विजय ने बुलबुल फौज का उत्साह कई गुना बढ़ा दिया। उसके आक्रमण और रणघोष की तीव्रता बढ़ गई। अंतत: बिल्ली मौसी को समझ में गया कि उन्हें अपने संडे लंच की व्यवस्था कहीं और करनी पड़ेगी। उन्होंने दीवार फाँदी और उस तरफ वाले मकान के कंपाउंड में शरण ली। युद्ध भूमि में बिना कोई खून-खराबा हुए शांति छा गई। हाँ, नन्हे आलसीराम इस पूरी महाभारत के दौरान कार की छाँव में कुछ सहमे हुए-से, आराम फरमाते रहे।
शाम होते-होते नन्हा अपने मम्मी-पापा के अलावा सबसे नजरें चुराकर एक नन्ही-सी उड़ान भर पड़ोस के बरामदे पर जा बिराजा था। मम्मी-पापा आतुर थे कि अंधेरा होने से पहले नन्हा किसी तरह सुरक्षित घर पहुँच जाए। उनमें से एक नन्हे की रखवाली करता और दूसरा जाकर कहीं से दाना लाकर नन्हे के मुँह में डालता। फिर वह रखवाली करने बैठता और दूसरा दाने की खोज में जाता। नन्हे ने शायद शर्त रख दी थी कि पेट में दाना डालते जाओ, तो मैं घर लौटने का जतन करूँ! हाँ, जतन वह जरूर कर रहा था। दिन भर के आराम से शायद खुद भी बोर हो उठा था और फिर रात की नींद तो अपने घर में ही सबसे अच्छी आती है ना...! पहले वह फुदककर फर्श से गमले पर पहुँचा, फिर कुछ और खुराक पाकर पास खड़ी स्कूटर के हैंडलबार पर जा बैठने के उपक्रम में फुदकते-फुदकते एक मिनी उड़ान ही भर बैठा। मम्मी-पापा सारी दुनिया को बिसारकर, उसके लिए दाना लाने और उसे प्रोत्साहन के दो शब्द कहने में मशगूल थे। कुछ देर बाद देखा तो नन्हा सामने वाले पेड़ की एक शाखा पर विराजमान था। यहाँ से उसके घोंसले वाला पेड़ अब बिल्कुल पास ही था। सुबह की डरी-सहमी भाव-भंगिमा अब अतीत की बात थी, उसका आत्मविश्वास अब उसकी नन्ही काया से अलग ही 'बॉडी-लैंग्वेज" बुलवा रहा था। रात के दस्तक देने से पहले बुलबुल परिवार सकुशल घर लौट आया।
सोमवार को फिर शुरू हो गई नए सप्ताह की पुरानी भागमभाग। बुलबुल परिवार फिर नजर नहीं आया। शायद वह नए आशियाने की ओर उड़ान भर चुका था।

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