Sunday 2 October 2011

एक दिन ट्राफिक सिग्नल पर

यह मन भी ना, गज़ब करता है. कब क्या सोच बैठे, किस दिशा में चल पड़े, कोई भरोसा नहीं. अभी दो-चार दिन पहले की ही बात है. दफ्तर पहुँचने की जल्दी, चौराहे पर लाल सिग्नल, छोटे-बड़े पहियों का सामुहिक विराम. तभी ट्राफिक सिग्नल और भिक्षावृत्ति के गठबंधन को निभाती हुई वह प्रकट हुई: एक हाथ में मैला-कुचैला बच्चा और दूसरे में उतनी ही मैली-कुचैली दूध की बोतल लिए. चेहरे पर वही "पार्ट ऑफ द जॉब" वाला बेचारगी का भाव (मुझ पर संवेदनहीनता का आरोप लगे, इससे पहले बता दूँ कि बन्दे में असल बेचारों और बेचारगी के अभिनय में पारंगत लोगों में फर्क करने की काफी ठीक-ठाक  समझ विकसित हो गयी है).
तो वह एक-एक कर हर गाड़ी वाले के पास जाने लगी. मन में एक खीज उठी: अभी इधर आएगी और तंग करेगी! उससे "निपटने" की तैयारी कर ली. वही दूसरी दिशा में सर घुमाकर "कुछ न देखा, कुछ न सुना" वाला नुस्खा. मुझसे आगे वाले को वह टटोल रही थी और फिर मेरी ही बारी थी. अपनेराम सावधान हो गए: अभी आएगी, आने दो, उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देना है...
मगर यह क्या? कहानी में ट्विस्ट! वह इधर आने के बजाए दूसरी ही दिशा में चल दी! एक सेकण्ड में मन में चल रही विचारों की रेल बेपटरी हो गयी! जहाँ तिरस्कार करने की तैयारी चल रही थी, वहीँ मानो तिरस्कृत होने के ज़ख्म सहलाने की नौबत आ गयी. पल भर पहले जो मन यह सोच रहा था कि क्यों आ रही है यह मेरे पास तंग करने, वही अब सोच में पड़ गया कि क्यों नहीं आई वह मेरे पास? क्या मुझे इस लायक भी नहीं समझा कि मैं उसके फैले हाथ में एकाध सिक्का डाल दूँ? क्या इन बाकी लोगों के मुकाबले गया-बीता होने का कोई ठप्पा लगा है मेरे चेहरे पर...? ऐसा नहीं है कि मैं मरा जा रहा  उसे भीख देने, सवाल यह था कि वह  क्यों नहीं आई मेरे पास भीख माँगने?
बुरा लागा, बहुत बुरा. कुछ आगे बढ़कर जब मन शांत हुआ तो सोच में पड़ गया कि भला एक भिखारन का मेरे पास भीख माँगने न आना मुझे विचलित कर देने का कारण क्यों बनना चाहिए? दफ्तर पहुँचते-पहुँचते कई बार यह सवाल स्वयं को दोहराता रहा.
फिर भीतर कहीं से एक आवाज़ आई: अहंकार... हाँ, अहंकार ...!

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