Thursday 8 December 2011

आप आज भी लुका-छिपी खेल रहे हैं!

बचपन में लुका-छिपी का खेल तो आपने खेला ही होगा। यह खेल भी दुनिया के किसी अजूबे से कम नहीं है। यूँ तो हर देश, हर संस्कृति अपने खास खेल ईजाद करती है लेकिन यह खेल आपको दुनिया में हर कहीं खेला जाता मिल जाएगा! ऐसा नहीं है कि इसका उद्गम किसी एक स्थान पर हुआ और फिर भूमंडलीकरण की बयार पर सवार होकर या मीडिया की कृपादृष्टि का पात्र बनकर यह शेष विश्व में फैला। कोई ऐसी बात है लुका-छिपी के खेल में कि अलग-अलग देश, समाज और संस्कृतियों ने अपनी-अपनी प्रेरणा से अपने-अपने स्तर पर इसका आविष्कार कर डाला और आज तक इसे खेलते रहे हैं। शायद हमारी जेनेटिक संरचना में ही रचा-बसा है यह खेल। शायद इसीलिए हम जिंदगी भर इसे किसी--किसी रूप में खेलते रहते हैं...
हाँ, इस खेल के प्रति रुझान शायद पैदाइशी ही होता है। बिल्कुल नन्हे शिशु का उदाहरण ही देखिए। उसकी दुनिया अभी उतने ही दायरे में सिमटी होती है जितना अपने स्थान पर लेटे-लेटे उसकी नजरें उसे दिखाती हैं। यदि आप उस दायरे में हैं, तो आप उसके लिए 'हैं" और उस दायरे से बाहर जाते ही आप 'गायब" हो जाते हैं। इस अवस्था में आप उसके साथ चाहे जितनी देर तक लुका-छिपी खेल सकते हैं। जैसे ही आप उसकी आँखों से ओझल होंगे, उसके चेहरे पर विस्मय का भाव छा जाएगा और फिर जैसी ही आप पुन: उसे नजर आएँगे, उसका चेहरा खिल उठेगा। आप चाहें, तो सिर्फ अपना चेहरा हाथों से ढँककर भी उससे 'छिप" सकते हैं और आपका हाथ हटते ही जैसे ही वह आपको 'खोज" लेगा, प्रसन्नाता से किलकारियाँ मारने लगेगा। बार-बार किसी को खोने और पाने के इस खेल से वह शैशवावस्था में ही रूबरू होता है जीवन के दोनों पहलुओं से। वह वाकिफ होता है इस सच से कि इस पल जो नजरों से लुप्त हो गया है, अगले पल वह वापस भी सकता है। जीवन में अंतिम कुछ भी नहीं है।
थोड़ा बड़ा होने पर वह ढूँढने में ही नहीं, छुपने में भी आनंद पाने लगता है। चादर के पीछे चेहरा छुपा लेने से लेकर पलंग के नीचे या कुर्सी के पीछे या फिर दरवाजे की ओट में छुपकर वह एक ओर तो अपनी 'स्पेस" खुद तय करने के अधिकार का पहला-पहला प्रयोग करता है। यहाँ वह किसी बड़े के आदेश से बँधा नहीं है कि यहाँ आओ, उधर बैठो। इसके साथ ही वह आपको छकाने का आनंद भी पाता है। एक राज को गढ़कर कुछ देर के लिए ही सही, उसे कायम रखने का भी यह उसका पहला-पहला आनंद होता है। दूसरी ओर वह इस सुकून भरे एहसास में भी भीगता है कि कोई उसे चाहता है, उसके दूर होते ही उसे खोजने में जुट जाता है। वह जान जाता है कि अपनी स्पेस में रहते हुए भी वह स्नेह और अपनत्व के महीन धागों से जुड़ा रह सकता है अपनों से। इस सबके साथ एक भोला रोमांच तो जुड़ा है ही, जिसमें किसी महफूज जगह पर छुपना है और ज्यादा से ज्यादा समय तक पकड़े जाने से बचना है।
ढूँढने वाले के लिए भी रोमांच कमतर नहीं होता। उसके साथी एक निश्चित दायरे में कहीं छुपे होते हैं और उसकी पैनी नजर को चुनौती दे रहे होते हैं। अब उसे एक किस्म का मनोवैज्ञानिक युद्ध लड़ना है। उसे दूसरों के नजरिए से देखकर अंदाज लगाना है कि उन्हें कौन-सा स्थान छुपने के लिए सबसे सुरक्षित लगा होगा और फिर ऐसे प्रत्येक स्थान पर जाकर टटोलना है। साथ ही किसी छुपे हुए की 'थप्पी" से बचना भी है। रणभूमि में शत्रु के अप्रत्याशित हमले का खतरा यहाँ नहीं है और ही जंगल में किसी खतरनाक प्राणी से अचानक सामना होने का डर है। फिर भी लुका-छिपी के खेल में 'दाम" देने वाला एक अजब किस्म की सनसनी महसूस करता है। वह शिकारी की आदिम भूमिका में भी है और खोजकर्त्ता की प्रगतिगामी भूमिका में भी।
आदिम और प्रगतिगामी का यह मेल इस खेल को उम्र, देश और काल के परे ले जाता है। मानव नस्ल ने अपने शैशवकाल में आखेट के बल पर ही अपना अस्तित्व बनाए रखकर अपना भविष्य सुनिश्चित किया था। संभवत: इसीलिए आखेट की मनोवृत्ति इस कदर हमारी रग-रग में रच-बस गई है कि आधुनिक से आधुनिक युग में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ सकती। शिकार करना तो अब अस्तित्व की रक्षा के लिए जरूरी रह गया है और ही मनोरंजन के लिए कानून इसकी इजाजत देता है। सो हम किसी और रूप में अपनी इस आदिम मनोवृत्ति को तुष्ट करने के रास्ते खोज लेते हैं। बाकी चीजें तो छोड़िए, नए जमाने के अनेक डिजिटल गेम्स भी शिकार करने की लीक पर ही चलते हैं। इसी आनंद को प्राप्त करने का बड़ा सीधा-सरल, जमीन से जुड़ा तरीका है लुका-छिपी का खेल।
शिकार ने यदि मानव नस्ल की आरंभिक अवस्था में उसके अस्तित्व की रक्षा की, तो खोजी वृत्ति ने उसे निरंतर आगे बढ़ाया। जिस दिन मनुष्य अपनी खोजी वृत्ति खो देगा, उसका विकास रुक जाएगा। इस वृत्ति को माँजने का मौका देती है लुका-छिपी। उधर छुपने का भी अपना एक रचनात्मक आनंद है। निरंतर नए स्थान की खोज के लिए दिमाग दौड़ाना पड़ता है। हर कोना, हर ओट संभावनाएँ पेश करता है और इन सारी संभावनाओं को तौलते हुए 'दस, बीस, तीस, चालीस ....." की गिनती पूरी होने के पहले निर्णय लेकर छुप जाना होता है। फिर शिकारी के नजदीक जाने पर भी बिना हिले-डुले या आवाज किए दुबके रहना किसी कला से कम नहीं है। जरा बच्चों को देखिए, कुछ तो छुपने के इतने नायाब स्थान तलाश लेते हैं कि दिमाग चकरा जाए! जहाँ तक रचनात्मकता का सवाल है, इस सीधी-सादी लुका-छिपी के कई थोड़े-बहुत परिवर्तित या 'वैल्यू एडिशन" वाले रूप भी बच्चों के बीच लोकप्रिय हैं, जैसे 'डब्बा गोल" और जाने क्या-क्या।
एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया का आईना है लुका-छिपी का खेल। यह जीवन को जीने के लिए तैयार करता है और फिर निरंतर इसकी राह पर चलने के लिए हमें अभ्यास कराता रहता है। जीवन में खुशियाँ, गम, अवसर, लोग आदि मिलते हैं, बिछड़ते हैं। किसी--किसी व्यक्ति या वस्तु की तलाश हमें हरदम रहती है। खुशियाँ, सफलता अक्सर किसी ओट में छुपकर हमारा इंतजार कर रही होती हैं। हमें कुशल खिलाड़ी की भाँति इन्हें खोज निकालना होता है। और फिर छुपा हुआ सबसे बड़ा 'खिलाड़ी" तो है जीवन का सत्य, जो चारों ओर बिखरा है मगर सीधे-सीधे नजर नहीं आता। इसे खोजने के लिए तो एक उम्र भी कम पड़ जाती है और जो एक उम्र में इसे खोज ले, वह परमात्मा के रचाए इस सारे खेल का ज्ञाता बनकर संत, पैगंबर, बुद्ध हो जाता है...

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