Friday 9 March 2012

मरघट पर गुलाटियाँ मारने की कला!

एक समय मिस्र और यूनान में कलाबाजियाँ व्यक्ति के अंतिम संस्कार के समय दिखाई जाती थीं! कलाबाजी व्यक्ति के शरीर और कभी-कभी तो उसके जीवन को ही खतरे में डाल देती है। ऐसे में जब कलाबाज मौत के खतरे के बीच सफलतापूर्वक अपना हुनर दिखाता है, तो उसे एक तरह से जीवन और जीवंतता की जीत माना जा सकता है। अत: अंतिम संस्कार के दौरान इनका प्रदर्शन शायद शोकग्रस्त लोगों को यह संदेश देने का काम करता था कि मृत्यु के इस मंजर के बावजूद अमरत्व संभव है...
नए जमाने की सारी 'आधुनिक" ध्वनियों के बीच एक आदिम-सी ध्वनि किसी बीते युग से चले आए दृश्य की ओर ध्यान ले जाती है। जमीन से चंद फुट ऊपर तनी रस्सी पर चलकर एक नन्ही बच्ची करतब दिखा रही है। वह अपने कंधों पर संतुलन के पंख ही नहीं, एक बहुत लंबे इतिहास का बोझ भी लिए हुए महसूस होती है। इतिहास के इस बोझ को वे दर्शक भी थामे हुए हैं, जो घेरा बनाकर उसके करतब को निहार रहे हैं। रस्सी पर चलती बच्ची का खेल तो एक मिसाल भर है, विभिन्न प्रकार की कलाबाजियों के साधक तथा दर्शक आज भी दुनिया भर में बड़ी संख्या में हैं। कला और खेल के बीच की महीन रेखा पर चलते हुए कलाबाजी ने उपेक्षा और अपमान, गरीबी और उपहास तथा राजसी प्रश्रय और जनता का स्नेह सब कुछ देखा, महसूसा है।

कलाबाजी के ईसा पूर्व 2000 में भी जोर-शोर से मौजूद होने के सबूत मिलते हैं। प्राचीन यूनान के भित्तिचित्रों और मिट्टी के पात्रों पर बने चित्रों में साँड की पीठ पर करतब दिखाते पुरुष और महिलाएँ अंकित हैं। कहा जाता है कि उस समय खौफनाक साँडों के साथ एक हैरतअंगेज खेल का प्रदर्शन किया जाता था। इसमें कुशल कलाबाज साँड का सामना कर उसके बड़े-बड़े सींगों के बीच से होकर उसकी पीठ पर से टप्पा खाता हुआ उसे फलांग जाता था। इतिहासकारों में इस बात को लेकर मतभेद हैं कि ऐसा कोई खेल होता भी था या फिर यह सिर्फ कल्पना की उड़ान है (अविश्वास करने वालों का तर्क है कि हमला करते साँड के आगे जाकर ऐसा करतब करना असंभव है) यह संदेह भी व्यक्त किया जाता है कि कहीं यह मनोरंजक प्रदर्शन के बजाए मनुष्य की बलि चढ़ाने की कोई विकृत विधि तो नहीं थी... क्योंकि इसमें साँड के साथ खिलवाड़ करने वाले की जान जाने की संभावना बहुत अधिक, लगभग शत-प्रतिशत थी। वहीं जानकारों के दूसरे वर्ग का कहना है कि यह खेल ही था और इसे दिखाने वाले कुशल कलाबाज हुआ करते थे, सो उनकी जान जाने का खतरा बहुत कम था। वे यह भी बताते हैं कि यह खेल उतना खतरनाक नहीं था जितना कि किंवदंतियों में सुनाया जाता है और चित्रों में दर्शाया जाता है। साँड का ध्यान बँटाने के लिए दूसरे कलाबाज भी उसके इर्द-गिर्द गुलाटियाँ मारते थे, उसे छेड़ते थे। इतने सारे कलाबाजों का एक साथ मैदान में उतरना बेचारे साँड को तो 'कन्फ्यूज" करता ही था, दर्शकों में भी यह भ्रम उत्पन्न करता था कि कोई बड़ा ही भव्य और खतरनाक खेल उनके सामने हो रहा है!

संभवत: पुराने जमाने में कलाबाजियाँ किसी धार्मिक अनुष्ठान का हिस्सा भी हुआ करती थीं। आज थोड़ा अजीब लगता है लेकिन एक समय मिस्र और यूनान में कलाबाजियाँ व्यक्ति के अंतिम संस्कार के समय दिखाई जाती थीं! कलाबाजी व्यक्ति के शरीर और कभी-कभी तो उसके जीवन को ही खतरे में डाल देती है। ऐसे में जब कलाबाज मौत के खतरे के बीच सफलतापूर्वक अपना हुनर दिखाता है, तो उसे एक तरह से जीवन और जीवंतता की जीत माना जा सकता है। अत: अंतिम संस्कार के दौरान इनका प्रदर्शन शायद शोकग्रस्त लोगों को यह संदेश देने का काम करता था कि मृत्यु के इस मंजर के बावजूद अमरत्व संभव है...

रस्सी पर चलना, खतरनाक ढंग से गुलाटियाँ मारना, साँडों या घोड़ों की सवारी करते हुए करतब दिखाना, आग के गोले में से छलाँग लगा जाना आदि कलाबाजी के सबसे पुराने खेलों में शामिल हैं। हाथों के बल चलकर दिखाना भी आदिम काल से लोकप्रिय रहा है। कुल मिलाकर ऐसी शारीरिक हरकतें जो सामान्य से हटकर हों, लोगों का कौतुक जगाती हैं। जिस जमाने में जी बहलाने के साधन विकसित नहीं हुए थे, तब इस तरह की कलाबाजियाँ करना देखना दोनों ही वक्त काटने और मनोरंजन करने के बढ़िया माध्यम थे।

इधर चीन में भी बहुत प्राचीनकाल से हैरतअंगेज कलाबाजियों की साधना करने का चलन रहा है। फसल कटाई के महोत्सव में इनका प्रदर्शन अवश्य होता था। गति, लोच और संतुलन के इस मेल से चीनियों का यह पुरातन रिश्ता ही शायद आज के दौर में जिम्नास्टिक्स में उनकी बादशाहत का राज है। भारत सहित सभी प्राचीन सभ्यताओं ने अपने आरंभिक काल से इस हुनर को माँजना शुरू किया था। कभी किसी कर्मकांड के हिस्से के रूप में, कभी मेलों-ठेलों में जनता के मनोरंजन के लिए, तो कभी राजमहलों में राजाओं का दिल बहलाने के लिए कलाबाजों ने अपने प्रदर्शन को सँवारा और निखारा। अफसोस कि उनका अपना जीवन सँवरने और निखरने की प्रतीक्षा में ही बीतता रहा। अमूमन किसी भी काल या समाज में कलाबाजों का आर्थिक या सामाजिक स्तर अच्छा नहीं रहा। अधिकांशत: वे चंद पैसों की खातिर अपना जीवन तक दाँव पर लगाने के बाद भी बड़ी मुश्किल से गुजर कर पाते थे। कभी किसी उदार दिल कद्रदान की निगाह पड़ जाए तो चार दिन की चाँदनी में नहा लेने के बाद फिर संघर्ष के अँधियारे में लौट आना उनकी नियति थी। ऐसे भी दौर आए जब कलाबाजियाँ रंगमंचीय प्रस्तुतियों का हिस्सा बनीं। संगीत और नृत्य के साथ-साथ कलाबाजी भी कथा के मनोरंजक प्रस्तुतीकरण में सहायक बनी। सर्कस के आगमन ने कलाबाजों के लिए नया मैदान उपलब्ध कराया।

फिर नए जमाने की तकनीक और प्रचार के बल पर नई नस्ल के कलाबाजों का उभार आया। शौक, जुनून और पुरानी लकीर को छोटा कर नई लकीर खींचने की प्रेरणा लेकर वे दिल दहला देने वाले करतब दिखा चुके हैं और दिखाते रहते हैं। कभी नियाग्रा फॉल पर रस्सी बाँधकर उस पर चलने का कारनामा, तो कभी 'स्पाइडरमैन" की तरह बिना किसी सुरक्षा के इंतजाम के पेट्रोनास टावर जैसी इमारतों पर चढ़ जाना... मौत को मुँह चिढ़ाकर खतरे से खेलने का रोमांच इंसानी कौम के जिंदा रहने तक कायम रहेगा। तमाशा कभी खत्म होगा, तमाशबीन। और फिर देखा जाए तो क्या जीवन को संतोषजनक रूप से जी जाना अपने आप में कलाबाजी की माँग नहीं करता? आपको चाहिए होती है उद्यम और क्रियाशीलता की गति, वैचारिकता और सृजनात्मकता की लोच तथा आदर्श और व्यावहारिक के बीच संतुलन की कला। यही कला जीवन की बाजी जिता ले जाती है।

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