Monday 21 May 2012

डर का आनंद लेने के उल्टे-पुल्टे खेल!

बंजी जम्पिंग के कई रसिक अंतिम क्षण तक कहते पाए जाते हैं कि नहीं-नहीं, मुझे बहुत डर लग रहा है, मुझसे नहीं होगा, मुझे धक्का मत देना...! और जब उनके जीवन की डोर इलास्टिक की डोर से बँधी होती है, तो मानो उन्हें परमानंद प्राप्त हो जाता है।

कई लोगों को किसी ऊँचाई से गिरने का सपना बार-बार आकर परेशान करता है। वहीं कुछ लोग होते हैं जो ऊँचाइयों से छलांग लगा जाने में गजब का रोमांच अनुभव करते हैं। वे खुद आगे होकर नई-नई ऊँचाइयाँ तलाशते हैं जहाँ से वे कूद पड़ें। अगली बार और ऊँची जगह तलाश सकें, इसलिए वे कूदने से पहले पैरों में इलास्टिक का पट्टा बाँध लेते हैं। आखिर ऊँचा-नीचा होने के इस खेल में उन्हें इतना भी 'ऊपर" नहीं पहुँचना कि वापस 'नीचे" आने का स्कोप रहे! 'बंजी जम्पिंग" नामक यह खेल अब दुनिया भर में मशहूर हो चुका है और डर से दो-दो हाथ करने वाला यह कोई अकेला खेल भी नहीं है।
वह कहते हैं ना, कि डर सबको लगता है, गला सबका सूखता है... प्रकृति ने एक तरह से हमारी सुरक्षा के लिए ही भय की अनुभूति दी है। भय हमें खतरों से बचाता है और चूँकि इसका संबंध खतरों से है, सो स्वाभाविक तौर पर यह अनुभूति हमें अच्छी नहीं लगती। हाँ, कुछ लोग डर का भी आनंद लेते हैं। सुरक्षा घेरे की आश्वस्ति में यह आनंद प्राप्त होना थोड़ा आसान भी हो जाता है। फिर भी, यह हर किसी के बस का रोग नहीं। हाँ, एक वर्ग है जो मानो मौत को मुँह चिढ़ाने के लिए ही जीता है।
धरती पर इंसानी कौम का शुरुआती दौर भीषण खतरों से भरा था। पल-पल जान पर खतरा मंडराता रहता था। खूँख्वार पशुओं का खतरा, प्राकृतिक आपदाओं का खतरा, दुश्मन कबीलों का खतरा और भी जाने क्या-क्या खतरे, जिनके बारे में हम आज कल्पना भी नहीं कर सकते। इन सबमें सबसे बड़ा होता अज्ञान और नासमझी से उपजा खतरा। आज हमने बहुत तरक्की कर ली है। ज्ञान-विज्ञान ने हमें भौतिक आराम के साथ-साथ सुरक्षा भी दी है। अब इंसान का सिरफिरापन देखिए, कि जब अपनी बुद्धि के बल पर उसने ढेर सारे खतरों को पीछे छोड़ दिया, तो खुद आगे जाकर उन्हें तलाशने लगा! आधुनिक तकनीक ने इस आदिम अनुभूति में चार चाँद लगा दिए। अब तकनीक से लैस इंसान उन्हीं स्थितियों में 'थ्रिल" तलाशता है, जिनसे कभी वह दूर भागता था।
तो अब लोग बंजी जम्पिंग के नाम पर पुलों, पहाड़ों और इमारतों से कूदते हैं, उड़ते हवाई जहाज से बाहर कदम रखकर अंतिम वक्त पर पैराशूट खोलते हैं, सीधे ऊपर की और उठ रही चट्टानों पर चढ़ते हैं। गति की नित टूटती सीमाओं में वे उपलब्धियों के नए शिखर पाते हैं। थ्रिल पाने के इसी उपक्रम में वे नए-नए आविष्कार भी करते रहते हैं। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दौर में ऐसा ही एक आविष्कार पेटेंट हुआ 'रोलर कोस्टर" के नाम से। वैसे इसने अट्ठारहवीं सदी में ही अपने चकरघिन्नी सफर की शुरुआत कर दी थी। बताते हैं कि रूस में लकड़ी के सत्तर-अस्सी फुट ऊँचे ढाँचों पर बर्फ के कृत्रिम पहाड़ बनाए जाते थे और उन पर से फिसला जाता था। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि इस तरह के खेलों की शुरुआत फ्रांस में पहले हुई। 1827 में अमेरिका के समिट हिल पर एक खदान कंपनी ने कोयला लाने के लिए पहाड़ी ढलान पर 14 किलोमीटर लंबी रेल लाइन बिछाई। 1850 के दशक में कंपनी ने पचास सेंट के टिकट में अपनी इसी रेल पर थ्रिल तलाशने वाले लोगों को भी सवारी कराना शुरू कर दिया। एक तो पटरियों पर डगमग दौड़ते डिब्बों का नया-नया अनुभव, तिस पर पहाड़ी पर से तेजी से नीचे सरकने का एहसास! रोमांच तलाशते अमेरिकनों को मजा गया। इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए रोलर कोस्टर्स का आविष्कार किया गया।
आज अमेरिका ही नहीं, विश्व भर में एक से बढ़कर एक ऊँचे, घुमावदार, टेढ़े-मेढ़े, उल्टे-पुल्टे रोलर कोस्टर हैं। विभिन्न अम्यूजमेंट पार्कों में होड़ मची रहती है नए रेकॉर्ड तोड़ने वाले रोलर कोस्टर बनाने की। तेजी से आसमान की ओर उठने और फिर उससे भी ज्यादा गति से नीचे आने, पल भर के लिए बिल्कुल सिर के बल उल्टे हो जाने और एक के बाद एक चक्कर खाने का 'मजा" लूटने लोग दूर-दूर से चले आते हैं। वे चीखते हैं, चिल्लाते हैं, उनकी धड़कन तेज हो जाती है, साँसों की गति बढ़ जाती है, पसीने छूट जाते हैं... और वे रोंगटे खड़े कर देने वाले इस अनुभव से बाग-बाग हो जाते हैं। ठीक उसी तरह बंजी जम्पिंग के कई रसिक भी अंतिम क्षण तक कहते पाए जाते हैं कि नहीं-नहीं, मुझे बहुत डर लग रहा है, मुझसे नहीं होगा, मुझे धक्का मत देना...! और जब उनके जीवन की डोर इलास्टिक की डोर से बँधी होती है, तो मानो उन्हें परमानंद प्राप्त हो जाता है।
थ्रिल पाने की इस प्यास को वैज्ञानिकों ने अब हमारी जेनेटिक बनावट से जोड़ा है। उन्होंने दो तरह के जीन्स का उल्लेख किया है, जिनके कारण व्यक्ति नित नए अनुभव तलाशता रहता है, फिर भले ही इनकी राह में खतरे क्यों हों। कुछ अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि लोगों को इस तरह की गतिविधियों की ओर अमरता की चाह ले जाती है। मौत के मुँह के करीब जाकर लौट आने पर उन्हें मृत्यु पर विजय पाने का एहसास होता है। यह भी कहा जाता है कि ऐसे लोगों को अपने जीवन की सार्थकता मौत से आँख-मिचौली खेलने में ही लगती है! हालाँकि विज्ञान और टेक्नोलॉजी की बदौलत इस तरह के खेल बहुत हद तक सुरक्षित होते गए हैं लेकिन ये पूरी तरह निरापद तो नहीं ही हैं। कभी-कभी दर्दनाक हादसे हो भी जाते हैं। फिर भी, कुल मिलाकर मौत को मुँह चिढ़ाने के इन खेलों में मौत बस, चिढ़कर ही रह जाती है।
हाँ, एक रोचक बात यह है कि इस तरह के खेल अमूमन संपन्न देशों में ही ईजाद होते हैं और वहीं परवान चढ़ते हैं। वंचित देशों के लोग नून-तेल-लकड़ी के चक्र से बाहर निकल आएँ, यही उनके लिए सबसे बड़ा थ्रिल हो सकता है। यह अति भौतिकता का अभिशाप ही है जो व्यक्ति को कृत्रिम खतरे उत्पन्न कर कृत्रिम रोमांच तलाशने पर विवश करता है। जो भौतिक चकाचौंध से दूर हैं या उसके पार देखने की क्षमता रखते हैं, वे जानते हैं कि सबसे बड़ा रोमांच तो जीवन स्वयं है।

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