Friday 13 July 2012

मानो तो बहुत कुछ मना है


नैतिकता-अनैतिकता से जुड़े निषेधों से परे, हमारे रोजमर्रा के जीवन को लेकर भी कई तरह के निषेध होते हैं, जो राजा-रानी की कहानियों के साथ दादी-नानी से विरासत में मिलते हैं। कई लोग देर-सवेर इस विरासत को सिर्फ स्वीकार कर लेते हैं, बल्कि आगे भी बढ़ाते हैं।
*****
बचपन में घर के बड़ों ने चेता रखा था कि सूरज ढलने के बाद नाखून नहीं काटना, अपशकुन होता है। बाल कटवाने, दाढ़ी बनाने और यहाँ तक कि कागज या कपड़ा काटने-फाड़ने पर भी रात के वक्त ऐसा ही प्रतिबंध था। बड़े होते-होते इस प्रकार के कई और निषेध जानने को मिले। दीया-बत्ती के टाइम यह नहीं करते, सुबह-सवेरे वह नहीं करते, फलाँ वार को यह काम और फलाँ वार को वह काम निषिद्ध है वगैरह... कभी किसी दुकानदार ने दीया-बत्ती का हवाला देकर कोई वस्तु देने से इनकार कर दिया, तो कभी किसी ने ज्ञान परोसा कि शनिवार को लोहा नहीं खरीदते। एक मोहतरमा के घर में कुछ मरम्मत का काम चल रहा था और कुछ कीलें कम पड़ गईं। जब कारीगर ने दुकान से कील ले आने की बात कही, तो उन्होंने उसे यह कहते हुए रोक दिया कि आज तो शनिवार है... काम रुक गया पर कीलें शनिवार को घर में नहीं आईं!
नैतिकता-अनैतिकता से जुड़े निषेधों से परे, हमारे रोजमर्रा के जीवन को लेकर भी कई तरह के निषेध होते हैं, जो राजा-रानी की कहानियों के साथ दादी-नानी से विरासत में मिलते हैं। कई लोग देर-सवेर इस विरासत को सिर्फ स्वीकार कर लेते हैं, बल्कि आगे भी बढ़ाते हैं। कुछ इन्हें स्वीकार तो कर लेते हैं मगर अगली पीढ़ी में प्रोन्नत होने पर धीरे से कूड़ेदान में डाल आगे बढ़ जाते हैं। कुछ तर्क करने की नाकाम कोशिशें करते हैं, तो कुछ इस बात को लेकर भेजा खपाते हैं कि आखिर इन निषेधों की शुरुआत कैसी हुई होगी। इनमें से कई मनाहियों के पीछे कोई कथा बताई जाती है कि सदियों पहले अमुक व्यक्ति द्वारा ऐसा करने पर उसके साथ वैसा हुआ था, इसलिए हम ऐसा नहीं करते... मसलन, शनिवार के लोहा निषेध के पीछे सम्राट विक्रमादित्य और शनिदेव की कथा बताई जाती है। ऐसे ही कई और किस्से भी कहे जाते हैं। आस्थावानों का कहना है कि अतीत से चली आई इन बातों में ज्ञानियों के ज्ञान का सार है, इसमें किंतु-परंतु की कोई गुंजाइश नहीं। मध्यमार्ग अपनाने वाले कहते हैं कि किसी और के अनुभव का लाभ लेते हुए किसी जोखिम से बचने में हर्ज ही क्या है! वहीं तर्कवादी इसे अंधविश्वास कहकर खारिज करते हैं। जो भी हो, सामान्य कामकाज को लेकर भी जो परहेज बताए गए हैं, उनकी सूची बनाना अपने आप में दिलचस्प है। उनके पीछे की कहानियाँ तो और भी दिलचस्प निकलती हैं।
आयरलैंड में एक बड़ी विचित्र मान्यता सदियों तक चली। इसके अनुसार यदि किसी मुसाफिर को रास्ते में लाल बालों वाली कोई महिला मिल जाए, तो उसे अपने प्रस्थान बिंदु पर लौटकर नए सिरे से यात्रा शुरू करनी होती थी, वर्ना किसी अनहोनी का डर था। इसके पीछे किस्सा यूँ था कि जब माचा नामक लाल केश वाली देवी मानव अवतार में आयरलैंड की धरती पर विचर रही थीं, तो उनकी दौड़ने की गति की चर्चा लोगों में खूब थी। उनके पति ने इसका जिक्र राजा के सामने भी कर दिया, जिससे राजा का अहंकार जाग उठा। उसने विचित्र शर्त रख दी कि माचा शाही अस्तबल के सबसे तेज घोड़ों के साथ दौड़ लगायें और जीतकर बताएं. ऐसा करने पर उनके पति को जान से मारने की चेतावनी दी गई। माचा ने अपने गर्भवती होने का हवाला देकर राजा से विनती की कि उन्हें दौड़ाया जाए लेकिन राजा टस से मस नहीं हुआ। यहाँ तक कि यह तमाशा देखने इकट्ठा हुए पुरुषों की भीड़ में से भी किसी का दिल नहीं पसीजा और कोई माचा के पक्ष में आगे नहीं आया। हारकर, पति की जान बचाने की खातिर माचा दौड़ीं और उन्होंने शाही घोड़ों को मात दी लेकिन इस अत्याचार का परिणाम यह हुआ कि माचा को समय पूर्व ही प्रसव हो गया और उन्हें खुले खेत में अपने जुड़वाँ बच्चों को जन्म देना पड़ा। आहत माचा ने राजा सहित राज्य के सारे पुरुषों को श्राप दिया कि वे और उनकी नौ पीढ़ियों के पुरुष प्रसव वेदना जैसा कष्ट सहेंगे। ये नौ पीढ़ियाँ तो कब की आकर चली गईं लेकिन आयरलैंड में यह विश्वास उसके बाद भी सदियों तक बना रहा कि रास्ते में कोई लाल केशधारी महिला दिख जाए, तो उल्टे कदम लौट जाने में ही भलाई है...!
दरअसल ऐसे निषेधों की उत्पत्ति और उससे भी ज्यादा उनके प्रसार के पीछे मुख्य कारण अज्ञात का भय ही होता है। यह भय ही कई तर्कवादियों को भी 'सेफ साइड" चलने के लिए प्रेरित करता है। वे एक ओर तर्क करेंगे कि अरे भई, वो तो पुराने जमाने में बिजली नहीं थी, इसलिए रात को नाखून काटने के लिए मना किया जाता था। ठीक से दिखने पर नाखून के बजाए ऊँगली कटने का डर रहता था वगैरह। दूसरी ओर वे यह भी कहते पाए जाएँगे कि चलो, बड़े ऐसा कहते हैं तो मान लेने में क्या हर्ज है, दिन ढलने से पहले ही काट लेंगे नाखून...! हाँ, जहाँ यह व्यवहारिक रूप से संभव नहीं रह जाता, वहाँ एक किस्म का परिस्थिति जनित विद्रोह आकार ले लेता है। एक परिचित के घर में इसलिए महाभारत छिड़ी रहती थी कि युवा बेटे को अल सुबह दफ्तर के लिए निकलना रहता था और सुबह समय के अभाव के चलते वह रात को सोने से पहले दाढ़ी बनाता था। जबकि उसके पिताजी इसे घोर अपशकुन मानते थे! एक अन्य सज्जन यूँ तो शनिवार को तेल नहीं खरीदते लेकिन अगर शनीचर को गाड़ी में पेट्रोल खत्म हो जाए, तो स्वयं को यह दिलासा देते हुए पेट्रोल पंप पर पहुँच जाते हैं कि 'यह" तेल 'वह" तेल थोड़े ही है!
रात का अंधेरा चूँकि अपने आप में कई तरह के रहस्य छुपाने का भ्रम पैदा कर भय के उत्प्रेरक का काम करता है, अत: अनेक निषेध रात और इसके दौरान हावी होने वाली कथित शक्तियों के भय से ही उपजे हैं। आपने भी यह सलाह सुनी होगी कि रात के वक्त साँप का नाम नहीं लेते। हाँ, बहुत जरूरी हो तो उसका उल्लेख रस्सी के रूप में किया जा सकता है। यह बात दीगर है कि जिस साँप को दिन में साँप कह सकते हैं, उसे रात में क्यों नहीं। यह भी कि क्या साँप का उल्लेख साँप के रूप में करने से वह अदृश्य हो जाएगा। यह भी कि हमारे रस्सी कह देने भर से क्या वह अपना साँपपना भूल निरीह रस्सी में रूपांतरित हो जाएगा...! मगर यहाँ तर्क नहीं चलते जनाब, चलता है तो सिर्फ डर और 'सेफ साइड" का चलन।

No comments:

Post a Comment