Tuesday 16 October 2012

संस्मरण स्वर्ग यात्रा के!

स्वर्ग-नरक के बारे में हम सबकी कल्पनाओं की जड़ें परिवार के बड़े-बुजुर्गों की बातों और धार्मिक आख्यानों में ही होती हैं। स्वर्ग की सैर के दावे करने वाले इन्हीं के अनुरूप स्थल पर 'भ्रमण" कर आते हैं।
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'क्या बताऊँ माँ कहाँ हूँ मैं/ यहाँ उड़ने को मेरे खुला आसमान है... मेरी पतंग हो बेफिकर उड़ रही है माँ/ डोर कोई लूटे नहीं, बीच से काटे ना... छाया लिए भली धूप यहाँ है/ नया-नया-सा है रूप यहाँ..." याद आया ना आपको, 'रंग दे बसंती"का गीत' लुका-छुपी बहुत हुई" जिसमें इस संसार से रुखसत हो माँ से बहुत दूर जा चुका बेटा अपने ठौर-ठिकाने की खबर माँ को दे रहा है? मृत्यु के बाद हम कहाँ जाते हैं, कैसा होता है वह दूसरा जहाँ, क्या-क्या होता है वहाँ, कितना अलग होता है वह हमारे इस जाने-पहचाने संसार से...? ऐसे सवाल कभी--कभी हममें से हर एक के मन में उठते ही हैं। मृत्यु से बढ़कर कोई निश्चितता नहीं है और 'मृत्यु के बाद" से बढ़कर कोई अनिश्चितता नहीं। जीवन के प्रत्येक रहस्य को खोलकर रख देने को तत्पर मनुष्य मृत्यु के महारहस्य के आगे बेबस हो जाता है। इस बेबसी से जूझने के लिए वह कई तरह की अटकलें लगाता है, इनकी सत्यता को लेकर तर्क गढ़ता है, आने वाली पीढ़ियों के लिए नए विश्वास, नई मान्यताएँ दे जाता है।

पिछले दिनों अमेरिका में एक किताब खूब चर्चित रही : 'हैवन इज फॉर रियल" यानी स्वर्ग सचमुच होता है। यह 'सत्य कथा" एक चार वर्षीय बच्चे कोल्टन बर्पो की है, जिसका अपेंडिक्स फटने पर इमरजेंसी ऑपरेशन करना पड़ा था। इस बच्चे का दावा है कि ऑपरेशन के दौरान वह स्वर्ग पहुँच गया था और फिर धरती पर लौट आया। उसने यह भी बताया कि स्वर्ग में उसे अपनी वह बड़ी बहन मिली, जो जन्म लेने से पहले ही चल बसी थी। उसके माता-पिता को यह सुनकर घोर आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्होंने कभी कोल्टन को नहीं बताया था कि उसकी माँ को उसके जन्म से एक साल पहले गर्भपात हुआ था। कोल्टन ने और भी कई हैरतअँगेज दावे किए, जैसे अपने जन्म से 30 साल पहले गुजर चुके अपने पड़दादा से मुलाकात। उसने कहा कि स्वर्ग की सड़कें सोने से बनी हैं और चारों ओर इंद्रधनुष के सारे रंग बिखरे हैं। यही नहीं, उसने यह भी दावा किया कि वह स्वर्ग में ईसा मसीह की गोद में बैठकर आया है! और हाँ, उसने भगवान को भी देखा, जो उसके अनुसार स्वर्ग में सबसे बड़े हैं और जो पूरी दुनिया को अपने हाथों में उठा लेते हैं... अब कोल्टन 11 साल का हो चुका है और हाल ही में उसके पिता टॉड ने लेखिका लिन विंसेंट के साथ मिलकर उसके इन 'स्वर्गिक" अनुभवों पर किताब लिखी है, जिसकी 5 लाख प्रतियाँ छप चुकी हैं और हाथों-हाथ बिक रही हैं।
इस किताब का यूँ बिकना कोई अचरज की बात नहीं है। मृत्यु के बाद जीवन और परा-लौकिक अनुभव ऐसे विषय हैं जो हमें सदा अपनी ओर खींचते हैं। अब जब कोई साक्षात स्वर्ग की यात्रा करके लौटने का दावा कर रहा है, तो उसका यात्रा संस्मरण भला कौन नहीं पढ़ना चाहेगा! अब एक ओर धर्मभीरू लोग कोल्टन की कथित आपबीती का हवाला देकर नारे लगा रहे हैं कि देख लो, हम तो कहते ही थे कि स्वर्ग होता है, कि भगवान होता है। दूसरी ओर ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो इस किताब को बच्चे के नाम पर उसके माता-पिता द्वारा चलाया गया प्रचार और पैसा पाने का घटिया खेल बता रहे हैं। इनका तर्क है कि कोल्टन के पिता सेल्समैन की अपनी नौकरी के अलावा धर्म उपदेशक का भी काम करते हैं। ऐसे में बच्चे के मन पर धार्मिक कथाओं और प्रतीकों का असर पड़ना कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। बच्चे के मन में यदि यह बात बैठा दी गई हो कि मरने के बाद हम स्वर्ग में जाते हैं और स्वर्ग ऐसा-ऐसा होता है, तो गंभीर आघात होने पर वह मतिभ्रम की स्थिति में इन्हीं सुनी गई कथाओं का स्वयं पात्र बन सकता है। क्या कोल्टन ने मूलत: वे ही बातें नहीं कही हैं जो उसकी उम्र के बच्चों को स्वर्ग के बारे में बताई जाती हैं? और क्या यह संभव नहीं कि किसी रिश्तेदार ने कभी उसे माँ के गर्भपात के बारे में कुछ कहा हो?
स्वर्ग-नरक के बारे में हम सबकी कल्पनाओं की जड़ें परिवार के बड़े-बुजुर्गों की बातों और धार्मिक आख्यानों में ही होती हैं। स्वर्ग की सैर के दावे करने वाले इन्हीं के अनुरूप स्थल पर 'भ्रमण" कर आते हैं। कोल्टन अकेला नहीं है जिसने मृत्यु से साक्षात्कार कर जीवन की ओर लौट आने का दावा किया है। बरसों से देश-दुनिया के अनेक लोग गंभीर बीमारी या दुर्घटना के बाद बेहोशी की हालत से बाहर आने के बाद मृत्यु के बाद स्वर्ग के लिए सफर पर चल पड़ने अथवा वहाँ पहुँचकर वापस आने के किस्से बयान करते रहे हैं। ये किस्से मोटे तौर पर उनकी धार्मिक मान्यताओं, देश संस्कृतिगत विश्वासों तथा व्यक्तिगत आस्थाओं के इर्द-गिर्द आकार लेते हैं। इन किस्सों में कई बातें समान भी होती हैं। मसलन लंबी, अंधेरी सुरंग से गुजरना जिसके अंत में प्रकाश दिखाई दे रहा है, देवदूत/यमदूत का 'मृत" व्यक्ति के साथ चलना, रास्ते में या स्वर्ग पहुँचने पर दिवंगत परिजनों/मित्रों से मुलाकात, स्वर्गलोक के आव्रजन विभाग को गलती का एहसास होना कि अरे, ये तो गलत व्यक्ति को यहाँ ले आए, इसे वापस भेजो। या फिर धरती पर छूट गए प्रियजनों की गुहारें सुनकर लौट आना।
अब सवाल उठता है कि विज्ञान इस सबके बारे में क्या कहता है। एक शोध अध्ययन में कुछ वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष दिया कि किसी बड़े आघात के समय रक्त में कार्बन डायऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है और जब इस बढ़ी हुई कार्बन डायऑक्साइड वाला रक्त मस्तिष्क में पहुँचता है, तो मस्तिष्क 'मृत्योपरांत" अनुभवों के दौर से गुजरने लगता है। हालाँकि अभी यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि जिनके मस्तिष्क में कार्बन डायऑक्साइड बहुल रक्त पहुँचता है, उनमें सबको ऐसे अनुभव क्यों नहीं होते। वैसे कुल मिलाकर वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि यह सारा मामला मस्तिष्क द्वारा विभिन्न इंद्रियों से मिलने वाले संकेतों की प्रोसेसिंग से जुड़ा है। आप कहाँ हैं, आपके इर्द-गिर्द क्या हो रहा है, इसकी अनुभूति आपको मस्तिष्क की इसी प्रोसेसिंग के कारण होती है। चेतना खो देने की स्थिति में आपकी इंद्रियाँ मस्तिष्क को गलत या गड्डमड्ड संकेत भेजती हैं और मस्तिष्क बेचारा उन्हीं संकेतों के आधार पर एक अनुभूति का आकार गढ़ने की कोशिश करता है। चेतना लौटने पर जब व्यक्ति यह किस्सा सुनाता है, तो यही विचित्र अनुभूति उसके चेतन मस्तिष्क के फिल्टरों से गुजरकर आती है और इसमें जीवन-मृत्यु, स्वर्ग-नरक आदि संबंधी उस व्यक्ति के विश्वास या सुने-पढ़े किस्से भी अपना प्रभाव डालते हैं। इसी से उपजते हैं मृत्यु से साक्षात्कार स्वर्गलोक की सैर के किस्से।
बहरहाल, आस्था और विज्ञान के बीच बहस अभी समाप्त नहीं हुई है। जब तक यह बहस जारी है, 'हैवन इज फॉर रियल" जैसी किताबें लिखी और पढ़ी जाती रहेंगीं।

 

 

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