Sunday 24 May 2015

बहती आग, जलता पानी

जो अग्नि हमने स्वयं प्रज्वलित नहीं की और जो बिल्कुल अनेपक्षित जगह पर जल उठी हो, वह हमें विस्मित और रोमांचित करती है, कुछ डराती है, कुछ सोच में डालती है...।
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बीते दिनों बंगलुरू की एक झील में आग लग गई...! झील में, पानी में बहती आग! सुनने में बड़ा ही अजीब लगता है। किसी रहस्य कथा का-सा अहसास कराता है। किसी चमत्कार का बोध भी। ढेरों फिल्मी (और गैर-फिल्मी) गीतों में 'पानी में आग" लगने का जिक्र सुनने के बाद भी असल में ऐसा कुछ घटित होने पर हमें अचरज होता है। ... तो बंगलुरू की बेलंदूर झील में से जब लपटें उठने लगीं, तो पहले-पहल तो लोग स्तब्ध रह गए। किसी अनिष्ट की आशंका मन में उठने लगी। वैसे एक अनिष्ट तो वे काफी अरसे से देख ही रहे थे। झील में प्रदूषण का यह आलम था कि झाग की मोटी परत उसे ढके हुए थी, जो दूर से देखने पर बर्फ होने का भ्रम उत्पन्ना करती थी। लोगों को यह समझते देर नहीं लगी कि यह आग झील के पानी में नहीं, उसे बुरी तरह प्रदूषित कर चुके तरह-तरह के रासायनिक पदार्थों में लगी है। जो डिटर्जेंट मिश्रित पानी झील में आकर मिल रहा था, वह इसमें फॉसफोरस की मात्रा बढ़ा रहा था। साथ ही, घरों तथा उद्योगों से आकर मिलने वाले अपशिष्ट में तेल तथा अन्य ज्वलनशील पदार्थ शामिल थे। ये सब पानी के ऊपर अपनी एक अलग परत बना बैठे थे। लपटें पकड़ीं प्रदूषणकारी तत्वों ने और नाम आया पानी का, कि पानी में आग लग गई!
वैसे 'पानी में आग" कोई पहली बार नहीं लगी है। जब-तब कहीं-न-कहीं से ऐसे 'चमत्कार" की खबरें आती रहती हैं। अभी डेढ़ साल पहले ही अमेरिका के एक व्यक्ति ने इंटरनेट पर अपना वीडियो डाला, जिसमें वह नल से बह रहे पानी के पास लाइटर ले जाते देखा जा सकता है और अचानक नल का पानी आग पकड़ लेता है! अमेरिका में काफी समय से इस बात पर बहस चल रही है कि कहीं चट्टानों से तेल निकालने की विवादित तकनीक के कारण भूजल प्रदूषित तो नहीं हो रहा। प्रदूषण के इस भय में ज्वलनशील पदार्थों के पानी में आ मिलने का भय भी शामिल है। यह भी कहा जाता है कि नल के पानी में आग लगने का कारण यह है कि कुछ इलाकों में भूजल में मिथेन गैस की मात्रा काफी अधिक है और इसका तेल खनन से कोई संबंध नहीं है।
खैर, इतना तो तय है कि पानी में आग की घटनाएं कौतुहल और विवाद दोनों को जन्म देती रही हैं। अग्नि और जल दोनों ही प्रकृति के मूल तत्व माने गए हैं और अपनी-अपनी जगह दोनों पूजे भी गए हैं। सामान्यत: पानी के आगे आग हार मान लेती है और बुझ जाती है लेकिन यदि पानी खुद आग पकड़ ले, तो यह अजूबा ही माना जाएगा। भले ही आगे यह सामने आए कि आग पानी ने नहीं, उसमें समाहित किसी प्रदूषणकारी तत्व ने पकड़ी थी। पानी में जो घुल जाता है, वह अपनी पहचान खोकर 'पानी" ही हो जाता है, सो कहा यही जाएगा कि पानी ने आग पकड़ी।
पानी की आग अकेली अनूठी आग नहीं है। पौराणिक आख्यानों, जनश्रुतियों आदि में अग्नि के कई असामान्य स्रोतों का उल्लेख मिलता है। पूर्वी एशिया तथा योरप में ड्रैगन नामक मिथकीय जीव की कल्पना सदियों से लोगों को मुग्ध करती आई है। योरप मंे मान्यता थी कि ड्रैगन अपने मुंह/ नथुनों से आग उगलते हैं। एक तो विशाल, डरावना दिखने वाला प्राणी, ऊपर से वह आग भी उगलता हो, तो उसका डरावनापन और बढ़ जाता है। यूनानी आख्यानों में 'किमेरा" नामक विचित्र मिथकीय प्राणी का जिक्र आता है, जिसका शरीर काफी हद तक सिंह जैसा है लेकिन जिसकी पीठ से बकरी का सिर निकला हुआ है और जिसकी दुम एक सांप है! माना जाता था कि यह भी आग उगलता है। मिस्र में युद्ध की देवी सेकमेट को सिंहनी के सिर वाली स्त्री के रूप में दर्शाया जाता है, जो आग उगलती है। चीन में अग्नि के देवता लो सुआन का लबादा, बाल और दाढ़ी आग की तरह लाल दर्शाई जाती थी। कहा जाता था कि उनके घोड़े के नथुनों से आग निकलती है। लो सुआन अग्नि पर अपने नियंत्रण के चलते बेहद शक्तिशाली थे लेकिन अपराजेय नहीं। एक किस्सा है कि जब उन्होंने एक शहर पर आग उगलती तलवारों से हमला कर दिया, तो आसमान में एक रहस्यमयी राजकुमारी प्रकट हुई, जिसने अपने ओस के लबादे से अग्नि देवता की आग बुझा दी!
एक ओर जहां प्राणियों की नाक या मुंह से आग निकलने के किस्से खूब हैं, वहीं अग्नि में से प्राणी के प्रकट होने के किस्से भी हैं। पश्चिम में सैलेमेंडर नामक छिपकली-नुमा प्राणी के बारे में माना जाता था कि वह आग में से प्रकट हो जाता है। वैसे सैलेमेंडर एक वास्तविक जीव है, जिसे मिथकीय आयाम दे दिए गए हैं। जानकार कहते हैं कि सैलेमेंडर लकड़ी के लट्ठों के नीचे शीत-निद्रा निकालते हैं। जब लोग अपने घर में जलाने के लिए लकड़ी भीतर लाते, तो उस पर चिपके सैलेमेंडर भी साथ आ जाते। जब लकड़ी जलाई जाती, तब इनकी नींद खुलती और ये बाहर भागते। देखने वालों को लगता कि आग में से सैलेमेंडर प्रकट हो उठा!
तो मिथकीय और अविश्वसनीय लगने वाली कई घटनाओं पर गौर करें, तो उनके पीछे कोई वैज्ञानिक तर्क निकल आता है। कभी ये तर्क सीधे समझ आ जाते हैं, तो कभी जरा वक्त लगता है। आज भी विश्व में कई जगहों पर प्राकृतिक रूप से जल रही अखंड ज्योतियां विद्यमान हैं। भारत में ही ऐसे अनेक स्थान हैं। अक्सर ऐसे स्थान धार्मिक महत्व के हो जाते हैं। दरअसल हमारी पृथ्वी की जड़ें भी कहीं अग्नि में ही हैं और आज भी इसके भीतर आग धधक रही है। यही आग कभी-कभी, कहीं-कहीं चमत्कार-सी, धरती की सतह से फूट पड़ती है। जो अग्नि हमने स्वयं प्रज्वलित नहीं की और जो बिल्कुल अनेपक्षित जगह पर जल उठी हो, वह हमें विस्मित और रोमांचित करती है, कुछ डराती है, कुछ सोच में डालती है...। खैर, फिलहाल बंगलुरू वासियों को तो यही सोचना है कि अपनी झील को आग से बचाने के लिए उसे कैसे साफ रखें...!

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