Sunday 14 May 2017

बला से बचने को बलि की बुनियाद!

भवन निर्माण कला के शैशव काल में, जब हर कदम पर असफलता का डर सताता था, तब मकान, पुल आदि की सलामती के लिए तरह-तरह के अनुष्ठानों की परंपराएं शुरू हुईं, जो कुछ बदले हुए स्वरूप में आज भी बनी हुई हैं...
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जो मकान अपनी छत तले आश्रय देता है, अपनी दीवारों के बीच सुरक्षा देता है, क्या वह बलि भी ले सकता है? आज के दौर में यह बात सुनने में आश्चर्यजनक लग सकती है लेकिन एक समय ऐसा भी था जब बलि की बुनियाद पर ही भवन बना करते थे। भवन निर्माण के आरंभिक काल में यह स्वाभाविक ही था कि भवन निर्माता उसकी सुदृढ़ता व टिकाऊपन को लेकर चिंतित रहते। भूत-पिशाच, दुष्टात्माओं आदि में भी खासा विश्वास किया जाता था। ऐसे में नए बनाए जा रहे मकान की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए वही उपाय आजमाया गया, जो परा शक्तियों को प्रसन्ना करने व एक किस्म का अभयदान प्राप्त करने के लिए अपनाया जाता था। यानी देवी-देवताओं को बलि देना। कहीं मनुष्य की बलि दी जाती, कहीं पशुओं की। यानी मनुष्यों या पशुओं को जिंदा दफन कर इमारत की नींव रखी जाती थी! योरप से लेकर न्यूजीलैंड तक इसके प्रमाण मिले हैं।
बलि का यह रिवाज केवल भवनों के निर्माण तक सीमित नहीं था। सड़क, पुल आदि भी इसकी जद मंे आते थे। यूनान के आर्टा नगर में अरखतोस नदी पर बने एक प्राचीन पुल के निर्माण को लेकर एक किंवदंति मशहूर है। कहा जाता है कि रोज दिन में पुल की नींव डाली जाती और रात को वह ढह जाती। सब हैरान-परेशान थे कि क्या किया जाए! फिर एक दिन एक तिलस्मी पक्षी प्रकट हुआ और निर्माण दल के मुखिया से बोला कि नींव की स्थिरता के लिए उसे अपनी पत्नी की बलि देनी होेगी। अपने कर्म और राष्ट्र को समर्पित निर्माण प्रमुख इसके लिए तैयार हो गया। उसकी पत्नी को लाया गया और जिंदा दफनाया जाने लगा। कुपित पत्नी ने श्राप दिया कि उसकी लाश पर जो पुल बनेगा, वह आंधी में पत्ते की तरह थर-थर कांपेगा और उस पर से गुजरने वाले लोग भी झड़ते पत्तों की तरह नदी में जा गिरेंगे। इस पर किसी ने उसे याद दिलाया कि उसका भाई विदेश गया हुआ है, संभव है कि वापसी में वह भी इसी पुल पर से गुजरे। तब उसने अपना श्राप कुछ इस तरह संशोधित किया कि वह आशीष बन गया। उसने कहा, 'यह पुल तभी कांपे, जब ऊंचे पहाड़ कांपें और इस पर से गुजरने वाले यात्री तभी गिरें, जब शिकारी पक्षी आसमान से गिरने लगें!" इसके बाद जाकर मजबूत नींव डली और पुल बन पाया। यह कहानी एक प्रसिद्ध लोक गीत के जरिये अमर हो गई है।
बाद के दौर में, जैसे-जैसे सभ्यता थोड़ी और 'सभ्य" होती गई, बलि का स्थान निर्जीव वस्तुओं के चढ़ावे ने ले लिया। भूमि पूजन, शिलान्यास आदि जैसी परंपराएं कुछ भिन्ना-भिन्ना और कुछ मिलते-जुलते रूपों में आज भी देश-विदेश में कायम हैं। दरअसल भूमि पूजन के माध्यम से एक तरह से धरती माता से भवन निर्माण की अनुमति ली जाती है। साथ ही भूमि का शुद्धिकरण करने का भी रिवाज है। निर्माण शुरू करने से पहले दुष्टात्माओं अथवा नकारात्मक ऊर्जा से भूमि को मुक्त करने के लिए अलग-अलग तरह के अनुष्ठान विश्व भर में किए जाते आए हैं और आज भी किए जाते हैं। देखा जाए, तो इन तमाम परंपराओं की जड़ मंे अज्ञात का वह भय है, जो किसी अनिष्ट की आशंका जगाता है। भवन निर्माण कला के शैशव काल में, जब हर कदम पर असफलता का डर सताता था, तब ये परंपराएं शुरू हुईं और आज तक बनी हुई हैं।

इन सबसे हटकर अफ्रीका में एक जनजाति है बटामलीबा। इस जनजाति में भवन निर्माण को लेकर बिल्कुल अनूठी मान्यता होती है। ये लोग मानते हैं कि निर्माण के दौरान मकान 'जीवित" होता है। जीवित मकान में रहना संभव नहीं, इसलिए इसे 'मारना" जरूरी होता है। सो निर्माण का अंतिम चरण पूरा होते ही एक विशेष अनुष्ठान कर मकान को 'मार" दिया जाता है। इसके बाद ही गृह प्रवेश किया जाता है!

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