Thursday 1 September 2011

जापान की रथयात्रा, फिलिपीन्स की गोवर्द्धन पूजा!

किसी राह से एक शवयात्रा निकल रही हो तो माहौल जरा संजीदा हो ही जाता है। लेकिन अचानक यदि 'मुर्दा' सिर उठाकर अपनी अर्थी के साथ चल रहे लोगों को देखने लगे तो कैसा लगेगा? स्पेन में एक खास दिन ऐसी एक नहीं, अनेक शवयात्राएँ निकलती हैं। ये उन जिंदा लोगों की नकली शवयात्राएँ होती हैं, जो पिछले एक साल में मरते-मरते बचे हैं। यह संत मार्ता के प्रति एक प्रकार का शुक्राना होता है। संत मार्ता ईसा मसीह की शिष्या मेरी मैग्डेलीन की बहन थीं। एक छोटे-से गाँव में पहाड़ी पर उनकी स्मृति में निर्मित चर्च में उनके स्मृति दिवस पर यह अनूठा आयोजन होता है।
मृत्यु के पंजों से बच निकले व्यक्ति के रिश्तेदार मित्र उसकी बिल्कुल असली जैसी शवयात्रा निकालते हैं। जिसका कोई मित्र अथवा रिश्तेदार हो, वह खुद अपना ताबूत उठाकर चलता है। कुछ श्रद्धालु तो 6 किलोमीटर का पहाड़ी रास्ता घुटनों के बल चलकर तय करते हैं। सारी शवयात्राएँ चर्च पहुँचती हैं। यहाँ प्रार्थना सभा के बाद श्रद्धालुओं की भीड़ संत मार्ता की प्रतिमा के साथ बाहर आती है। फिर इसे मंत्रोच्चार के बीच पूरे गाँव में घुमाया जाता है। इसके बाद बारी होती है विश्राम और दोपहर के भोजन की। फिर शाम को शुरू होता है मेले जैसा उत्सवी दौर, जिसमें और बातों के अलावा मृत्यु को चकमा देने वाले लोग अपने अनुभव भी सुनाते हैं।
श्रद्धा के प्रकटीकरण के रूप में शुरू हुए अनेक उत्सव सदियों के प्रवाह को लाँघते हुए अपना रूप कुछ बदलते, कुछ बचाते हुए आज भी हमारे बीच कायम हैं। बाहर से देखने वालों के लिए ये आज किसी अजूबे-से लग सकते हैं लेकिन परंपरागत रूप से इन्हें मनाते आए लोगों को ये अब भी श्रद्धा से भाव-विभोर कर देते हैं। कुछ ऐसे भी पर्व हैं, जिनकी उत्पत्ति की कहानी समय की धुंध में कहीं खो गई है। इसके बावजूद उन्हें मनाने के जोश में कोई खास कमी नजर नहीं आती। परंपरा के साथ आधुनिकता के कुछ अंश भी जुड़े हैं, जिन्होंने इन त्योहारों को 'आउटडेटेड' होने से बचा लिया है। एक और रोचक बात यह है कि दुनिया के अलग-अलग देशों में प्रचलित ऐसी कई परंपराओं में आपको समानता दिख जाएगी। ऊपर वर्णित स्पेन के सांता मार्ता पर्व का ही उदाहरण लीजिए। हमारे यहाँ उत्तरी गुजरात तथा दक्षिणी राजस्थान में बसा एक समुदाय भी नकली शवयात्रा का ऐसा ही एक पर्व मनाता है। नवरात्रि के दौरान सप्तमी के दिन यह विशेष आयोजन होता है। चामुंडा माता की आराधना के दौरान अचानक कुछ लोग 'मरने' लगते हैं। ये वे लोग हैं जो माता से अच्छे स्वास्थ्य एवं दीर्घायु का वरदान चाहते हैं। इनके 'मरकर' जमीन पर गिरते ही इनके साथ आए मित्र परिजन विलाप करने लगते हैं। इनकी शवयात्रा निकाली जाती है, जो गाँव के छोर पर स्थित हनुमान मंदिर पर जाकर रुक जाती है। यहाँ एक बार फिर जोरदार विलाप किया जाता है, जिसके बाद यह रस्म संपन्न हो जाती है।
ऐसी कई और परंपराएँ भी हैं। हमारे यहाँ गोवर्द्धन पूजा पर पशुओं को सजा-धजाकर उनकी पूजा करने की परंपरा प्राचीन काल से चली रही है। फिलिपीन्स के पुलिलान में हर वर्ष मई में अच्छी फसल के शुक्राने के तौर पर कैराबाओ उत्सव मनाया जाता है। साल भर खेतों को अपने श्रम से सींचने वाले कैराबाओ भैंसे इस आयोजन के केंद्र में होते हैं। उन्हें नहलाकर, बाल काटकर, तेल से मालिश कर, इत्र से महकाकर तथा विभिन्न रंगों से सजाकर सड़कों पर उतारा जाता है। उन्हें शहर के मध्य में स्थित चर्च लाया जाता है, जो श्रम के संत इसिडोर की स्मृति में निर्मित है। यहाँ इन मेहनती भैंसों को घुटनों के बल बिठाकर उन्हें संत का आशीर्वाद दिलाया जाता है। दूसरे दिन इन भैसों के बीच दौड़ आदि की स्पर्धाएँ होती हैं और हँसी-खुशी के माहौल में यह दो दिनी पर्व संपन्न होता है।
थाइलैंड में बौद्ध नव वर्ष पर काफी हद तक होली जैसा माहौल रहता है। क्या बड़े, क्या छोटे, सब एक-दूसरे पर जमकर पानी डालते हैं, तर-बतर होते हैं और तर-बतर करते हैं। बुद्ध की प्रतिमाओं का भी जलाभिषेक कर उनका चल समारोह निकाला जाता है। वयस्क बेटे-बेटियाँ अपने माता-पिता की अँजुली में पानी डालकर उनसे अपनी गलतियों के लिए क्षमायाचना करते हैं और भविष्य के लिए आशीर्वाद माँगते हैं।
यूँ स्पेन का टमाटर उत्सव भी होली से मिलता-जुलता है। फर्क यही है कि यहाँ एक-दूसरे पर पानी या रंग नहीं, टमाटर फेंके जेते हैं। दूसरा फर्क यह है कि इसके पीछे कोई पुरानी परंपरा नहीं है। पिछली सदी के पूवार्द्ध से ही यह शुरू हुआ है। इसी प्रकार दशहरे पर रावण के पुतले जलाने की प्रथा से मिलती-जुलती प्रथा अमेरिका के दक्षिणी भाग में देखने को मिलती है 'बर्निंग मैन फेस्टिवल" के रूप में। इसे भी शुरू हुए अभी बहुत समय नहीं हुआ है।
जापान में कुछ खास पर्वों के दौरान 'मिकोशी' अथवा 'दाशी' के चल समारोह निकलते हैं। ये कुछ-कुछ जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा और कुछ-कुछ ताजियों के जुलूस की याद दिलाते हैं। मिकोशी और कुछ नहीं, चलित शिंतो मंदिर होते हैं। इन्हें सड़कों पर घुमाने की परंपरा लगभग दसवीं सदी में शुरू हुई। इसके पीछे यह विश्वास था कि धरती पर कुछ ऐसी बुरी आत्माएँ विचरती हैं, जो तो स्वर्ग में जा सकती हैं और ही नर्क में। ये आत्माएँ लोगों का बुरा करती हैं और इन्हें भगाने के लिए चलित मंदिर लेकर निकलना जरूरी है। मिकोशी का आधार एक विशेष पेड़ की मजबूत लकड़ी से तैयार किया जाता है और इसे बिल्कुल वास्तविक मंदिर की ही तरह सजाया जाता है। भारी-भरकम मिकोशी को सफेद सूती वस्त्र धारण किए श्रद्धालु अपने कंधों पर उठाकर निकलते हैं। रास्ते में यह यात्रा कई घरों के सामने रुकती है और उस घर के रहवासी नकदी, चावल अन्य खाद्य पदार्थों का चढ़ावा चढ़ाते हैं और अपनी सुख-संपन्नता की कामना करते हैं। नगर भ्रमण के बाद मिकोशी को पुन: अपने मूल स्थान पर लाकर प्रतिष्ठित कर दिया जाता है। जहाँ तक दाशी का सवाल है, ये खास तौर से बनाए गए विशाल रथ होते हैं, जिन्हें श्रद्धालु खींचते हैं। इन्हें बड़े शाही अंदाज में सजाया जाता है और साजिंदों की टोली इस पर संगीत के सुर बिखेरती चलती है।
झूठमूठ के युद्ध करने की प्रथा तो आपको कई जगह मिल जाएगी। इटली के मशहूर पीसा शहर में ऐसा ही युद्ध सोलहवीं सदी से आयोजित किया जाता रहा है। इसमें शहर के दो हिस्सों के लोग नदी पर बने पुल पर आधिपत्य के लिए लड़ते हैं। पूरा माहौल असली युद्ध जैसा ही होता है। बिगुल बजते हैं, ललकार होती है, अपने-अपने परचम के साथ विरोधी सेनाएँ मैदान में जाती हैं और एक भारी-भरकम ट्रॉली को पुल के उस पार ले जाने की कोशिश करती हैं। योरप में कुछ अन्य स्थानों पर भी ऐतिहासिक युद्धों की पुनरावृत्ति उत्सव के रूप में की जाती है। अमेरिका में भी इसका चलन है। हमारे यहाँ इंदौर के पास गौतमपुरा में दीपावली के बाद होने वाला हिंगोट युद्ध भी किसी असली युद्ध से कम नहीं होता!
अलग-अलग स्थानों में, अलग-अलग समय-काल में, अलग-अलग संस्कृतियों के बीच उत्पन्न ये पर्व, ये रस्में अपनी समानताओं से क्या यह नहीं दर्शातीं कि अपनी सारी भिन्नताओं, सारी दूरियों के बावजूद मनुष्य कहीं--कहीं एक ही सूत्र से बँधा है? और क्यों हो? आखिर वह एक ही मिट्टी से उपजा है और एक ही मिट्टी में उसे समा जाना है। वह भिन्न-भिन्न रास्तों पर भले ही चल रहा हो लेकिन उसकी यात्रा का उद्गम एक ही था और मंजिल भी एक ही है। 

No comments:

Post a Comment