Monday 12 September 2011

पूर्वज, पकवान और कब्रस्तान में पिकनिक!


इंसान ने जब परिवार बनाकर जीना शुरू किया, तभी से परिवार के बड़े-बुजुर्गों को विशेष दर्जा प्राप्त हुआ। यूँ समूह में रहने वाले पशुओं में भी एक मुखिया होता है मगर उसका यह दर्जा मुख्यत: उसकी शारीरिक ताकत पर निर्भर करता है और समूह के अन्य सदस्यों में उसके प्रति आदर उसकी इसी ताकत से उपजता है। माता-पिता और परिवार के अन्य वरिष्ठों के प्रति स्वत:स्फूर्त सम्मान तथा कृतज्ञता का भाव मनुष्यों में ही पाया जाता है। यह आदर एवं कृतज्ञता परिवार के वरिष्ठों के दिवंगत होने के बाद भी जारी रहती है। पूर्वजों का स्मरण करने की प्रथा किसी--किसी रूप में दुनिया की अधिकांश संस्कृतियों में पाई जाती है।
चीन में पूर्वजों के स्मरण का पर्व पूरे एक महीने तक चलता है। चीनी चंद्र वर्ष का सातवाँ महीना (ग्रेगोरियन कैलेंडर के अगस्त माह के आसपास) पितरों को समर्पित रहता है और इस माह का पंद्रहवाँ दिन पूर्वज दिवस अथवा प्रेत दिवस के रूप में मनाया जाता है। लोक संस्कृति में तथा ताओवाद को मानने वालों द्वारा इस पर्व को 'चोंगयांग" कहा जाता है। बौद्ध अनुयायी इसे 'उल्लमबाना" कहते हैं। दोनों को मनाने के तरीके में अधिक अंतर नहीं है। पूरे महीने के दौरान पितरों को भोग लगाया जाता है, धूप जलाई जाती है और कपड़े, स्वर्ण आदि वस्तुओं की कागजी प्रतिकृतियाँ उन्हें अर्पित की जाती हैं। ऐसी मान्यता है कि इस समय परलोक के द्वार खुल जाते हैं और वहाँ के निवासी पृथ्वीलोक पर आकर अपने वंशजों के बीच रहकर भोजन आदि ग्रहण कर सकते हैं। जिन आत्माओं के पास जाने को कोई घर-परिवार नहीं होता, वे यूँ ही भूखी भटकती रहती हैं। ऐसी भूखी आत्माएँ खतरनाक हो सकती हैं, अत: उनके लिए सामुदायिक तौर पर विशेष भोज का आयोजन किया जाता है। पर्व की समाप्ति पर कागज से बनी लालटेन जलाकर नदियों में प्रवाहित कर दी जाती हैं, ताकि इनकी रोशनी में आत्माएँ पुन: सकुशल परलोक पहुँच जाएँ। चीन में ही दिवंगत आत्माओं को समर्पित एक और पर्व बसंत के दौरान मनाया जाता है। इसे 'क्विंगमिंग" पर्व कहा जाता है। चोंगयांग तथा क्विंगमिंग में फर्क यह है कि जहाँ चोंगयांग केवल अपने से वरिष्ठ दिवंगतों की स्मृति में मनाया जाता है, वहीं क्विंगमिंग हर उम्र पीढ़ी के दिवंगतों को समर्पित होता है। इस दिन विशेष तौर पर दिवंगतों की कब्रों पर जाकर उनकी साफ-सफाई की जाती है तथा उन्हें भोजन, चाय आदि अर्पित की जाती है।
जापान का 'ओबोन" पर्व काफी हद तक चीन के चोंगयांग पर्व से मिलता-जुलता है लेकिन यह एक माह के बजाए तीन दिन तक मनाया जाता है। चंद्र वर्ष के सातवें माह के तेरहवें दिन घरों के बाहर विशेष लालटेनें जलाई जाती हैं तथा लोग पितरों को आमंत्रित करने कब्रस्तान जाते हैं। माना जाता है कि इन तीन दिनों तक पूर्वज अपने परिवार के बीच रहते हैं। अत: इस पर्व के लिए जापानी जहाँ भी हों, अपने काम-धंधे से छुट्टी लेकर अपने घर पहुँचते हैं। इस दौरान पितरों को भोग लगाया जाता है तथा एक विशेष प्रकार का नृत्य भी होता है, जिसे 'बोन ओदोरी" कहते हैं। महीने के तेरहवें दिन घर लाए गए पूर्वज महीने के पंद्रहवें दिन की शाम को विदा कर दिए जाते हैं। उनके सुरक्षित प्रवास के लिए लालटेनों को नदी में प्रवाहित किया जाता है।
उधर दुनिया के दूसरे छोर पर मेक्सिको उसके आसपास दिवंगत आत्माओं की स्मृति में मनाए जाने वाले पर्व का एक अलग ही अंदाज है। यह 31 अक्टूबर से शुरू होकर 2 नवंबर तक चलता है। यहाँ धीर-गंभीर होकर पूजा-अर्चना करने के बजाए दिवंगत आत्माओं के सम्मान में जीवन का उत्सव मनाया जाता है। मेले जैसा माहौल रहता है और खूब गाना-बजाना होता है। खोपड़ी के आकार के केक अन्य मिष्ठान्ना बनाए जाते हैं। उछलते, कूदते, नाचते कंकालों के खिलौने बाजारों में खूब बिकते हैं। दैनंदिन के कार्यों में व्यस्त कंकालों की छोटी-छोटी झाँकियाँ सजाई जाती हैं। इसके पीछे उद्देश्य यह दर्शाना है कि मृत्यु जैसा कुछ नहीं होता। जो इस दुनिया में नहीं रहे, वे भी किसी और दुनिया में जीवित हैं तथा वही सब कर रहे हैं जो हम इस दुनिया में कर रहे हैं।
लैटिन अमेरिका में भी यह मान्यता है कि इन तीन दिनों के दौरान दिवंगत आत्माएँ पृथ्वीलोक पर अपने परिवार के बीच आती हैं। अत: इनके लिए घर को फूलों से सजाया जाता है, दिवंगतों की तस्वीर के सामने मिठाइयाँ तथा उनके प्रिय पकवान रखे जाते हैं। घर के बाहर अक्सर एक बर्तन में पानी तथा एक तौलिया रख दिया जाता है ताकि घर में प्रवेश से पूर्व दिवंगत हाथ-मुँह धो सकें! 2 नवंबर को जब इन्हें बिदाई देने का समय आता है, तब भी माहौल गमगीन होने के बजाए हँसी-खुशी का होता है। कब्रस्तानों में प्रत्येक कब्र को खूब सजाया जाता है। चारों ओर गेंदे अन्य फूल अपनी छटा बिखेरते नजर आते हैं। मोमबत्तियाँ जलाई जाती हैं। यही नहीं, पूरे के पूरे परिवार यहांँ ढेर सारी खाने-पीने की वस्तुएँ लेकर आते हैं। संगीत और नृत्य की महफिल जमती है और दिवंगतों के साथ गुजारे गए खुशी के पलों को याद किया जाता है। एक तरह से कहें तो पूर्वजों के सम्मान में कब्रस्तान में पिकनिक मनाई जाती है!
योरप के अधिकांश कैथोलिक देशों में 1 नवंबर को 'ऑल सेंट्स डे" अर्थात संतों का दिवस मनाया जाता है। इस दिन लोग कब्रस्तान जाकर दिवंगतों की स्मृति में मोमबत्तियाँ जलाते हैं। इसके अगले दिन 'ऑल सोल्स डे" मनाया जाता है। यह उन दिवंगतों की स्मृति को समर्पित होता है, जो संत घोषित नहीं हुए। उधर अमेरिका अन्य देशों में 31 अक्टूबर को हैलोवीन पर्व जोर-शोर से मनाया जाता है। इसकी शुरुआत आयरलैंड से हुई मानी जाती है। प्राचीन काल में माना जाता था कि इस रात जीवित लोगों और मृतकों के बीच विभाजन रेखा समाप्त हो जाती है। ऐसे में दिवंगत आत्माएँ जीवित लोगों के लिए खतरा भी बन सकती हैं। अत: उन्हें डराने या फिर खुश करने के लिए कई तरह के जतन किए जाने लगे। ये ही कालांतर में अलग-अलग देशों में भिन्ना-भिन्ना रूप धारण करते गए। हैलोवीन भी इसी का हिस्सा है।
ऑस्ट्रिया में 31 अक्टूबर की रात सोने से पहले लोग खाने की मेज पर पानी, ब्रेड और जलता दीया छोड़ देते हैं। समझा जाता है कि इससे प्रसन्ना होकर दिवंगत आत्माएँ अपना आशीर्वाद देने घर में आती हैं। जर्मनी में लोग इस रात घर में कोई भी छुरी-चाकू खुला नहीं छोड़ते ताकि रात को आने वाली आत्माओं को कहीं इनसे चोट पहुँचे।
पूर्वजों को याद कर हम एक प्रकार से अपनी जड़ों, अपने अतीत से ऊर्जा एवं संबल ग्रहण करते हैं और फिर जुट जाते हैं भविष्य की ओर सफर करने में। ये पर्व हमें निरंतर चलते रहने वाले जीवन-चक्र का भी स्मरण कराते हैं, मृत्यु जिसका एक हिस्सा मात्र है।

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