Sunday 4 December 2016

प्रकाश का प्राथमिक चमत्कार

हमारी पांच इंद्रियों में से केवल दृष्टि ही प्रकाश पर निर्भर है। इसके बावजूद यदि प्रकाश को बोध का, ज्ञान का प्रतीक कहा जाता है, तो स्पष्ट है कि हमारे पूर्वजों ने आरंभ से ही इसे अन्य संवेदों से ऊपर, एक खास दर्जा दिया है।
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प्रख्यात वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन के इस सिद्धांत को चुनौती दी जा रही है कि प्रकाश की गति हमेशा एक समान रहती है। बताया जा रहा है कि जल्द ही परीक्षण करके देखा जाएगा कि यह बात सही है या नहीं। चूंकि आधुनिक भौतिकशास्त्र बहुत हद तक प्रकाश की गति के स्थिर होने की मान्यता पर टिका हुआ है, इसलिए यदि यह मान्यता गलत साबित हो गई, तो विज्ञान के कई कथानकों का पुनर्लेखन करने की नौबत आ सकती है। खैर, परीक्षण का जो नतीजा आए सो आए, इस बहाने जरा इस बात पर भी गौर कर लिया जाए कि हमारे जीवन, हमारे अस्तित्व, हमारी संस्कृति और सभ्यता में प्रकाश का कैसा महत्व रहता आया है।
प्रकाश के प्रति मनुष्य मंे एक नैसर्गिक आकर्षण होता है। भोर की पहली किरण उसे उमंग से भर देती है। काले बादलों को चीरकर आती सूर्यकिरण उसे आशा का संदेश देती है। अंधकार उसे अनिश्चितता और भ्रम के भंवर में झोंकता है, वहीं प्रकाश उसे आश्वस्ती और ज्ञान का संबल देता है। सच तो यह है कि अंधकार के बीच से फूटते प्रकाश का नजारा मानव द्वारा अनुभूत सबसे प्राथमिक चमत्कार है। इस चमत्कार के पीछे किसी देवी शक्ति की भूमिका होने की बात मनुष्य के मन में आते देर नहीं लगी। ग्रीक आख्यानों के अनुसार, देवराज ज़्युस ने जब अपनी पुत्री आर्टिमिस से पूछा कि वह अपने तीसरे जन्मदिन पर क्या उपहार चाहेगी, तो आर्टिमिस ने जो छह उपहार मांगे, उनमें से एक था संसार में प्रकाश लाने की जिम्मेदारी। ज़्युस ने सहर्ष यह जिम्मेदारी आर्टिमिस को सौंप दी। इसलिए वन व शिकार की देवी के साथ-साथ उन्हें प्रकाश की देवी भी माना गया। दूसरी ओर चीन में माना जाता आया है कि जुन-दी नामक देवी सूर्य व चंद्रमा को आकाश में उठाए हुए हैं। इस प्रकार, रात हो या दिन, वे ही हम तक प्रकाश को पहुंचाती हैं। उनकी ही आभा ध्रुव तारे के रूप में भटके हुए राहगीरों को राह दिखाती है।
प्रकाश बोध का प्रतीक है। हमारी पांच इंद्रियों में से केवल दृष्टि ही प्रकाश पर निर्भर है। सुनने, सूंघने, स्वाद लेने या स्पर्श करने के लिए प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं होती। इसके बावजूद यदि प्रकाश को बोध का, ज्ञान का प्रतीक कहा जाता है, तो स्पष्ट है कि हमारे पूर्वजों ने आरंभ से ही इसे अन्य संवेदों से ऊपर, एक खास दर्जा दिया है। अनेक प्राचीन सभ्यताओं ने प्रकाश के प्रकट होने के साथ सृष्टि का आरंभ होना माना है। ऑस्ट्रेलिया के आदिवासियों का मानना है कि प्रकाश की किरण ही आत्मा को जागृत करती है। हमारे यहां भी आत्मा को प्रकाश माना गया है। शरीर जहां नश्वर है, वहीं आत्मा अखंड ज्योत है।

प्रकाश को पूजा भी गया है और आज भी अधिकांश धर्म-संस्कृतियों की पूजा पद्धतियों में प्रकाश की भूमिका अपरिहार्य है। कहीं दीयों के रूप में, तो कहीं मोमबत्तियों के रूप में यह पूजन विधियों में शामिल है। यहां तक कि प्रकाश का उत्सव भी विविध रूपों में अनेक स्थानों पर मनाया जाता है। भारत में दिवाली है, तो इसराइल में हनुका, जापान में ओबोन और थाईलैंड में यी पेंग व लोई क्रथोंग है। सच तो यह है कि मनुष्य ने प्रकाश के साथ अपने रिश्ते को ही एक उत्सव का रूप दे दिया है। जब तक मनुष्य है, यह संसार है, तब तक यह उत्सव जारी रहेगा। ...भौतिकशास्त्र के सिद्धांत भले ही आते-जाते रहें...! 

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